बीजेपी शासित राज्यों में 'पद्मावत' के विरुद्ध चल रहे हिंसक प्रदर्शन बताते हैं कि हमारी लोकतांत्रिक चेतना किस हद तक सामंती जकड़न में क़ैद और कुंद होती जा रही है. सेंसर बोर्ड की हरी झंडी और सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के बावजूद 'पद्मावती' के प्रदर्शन को लगभग नामुमकिन बना दिया गया है. सड़कों पर बसें जलायी जा रही हैं, सिनेमाघरों में तोड़फोड़ की जा रही है और दहशत का ऐसा माहौल बनाया जा रहा है कि कोई फिल्म देखने से पहले अपनी सुरक्षा को लेकर सोचे. इस डर की वजह से कहीं-कहीं बच्चों के स्कूल तक बंद कर दिए गए हैं. साहित्य, सिनेमा, कला और संस्कृति के लिहाज से यह एक तकलीफ़देह समय है.
लेकिन पद्मावत के समर्थकों की दलील हैरान करने वाली है. वे बार-बार बता रहे हैं कि इस फिल्म में राजपूतों की आन-बान-शान में कोई कमी नहीं की गई है. असल फांस यही है. हम पाते हैं कि 'पद्मावत' अपने विचार में उन्हीं लोगों के साथ खड़ी है जो इसका विरोध कर रहे हैं. वह एक नकली गौरव-गाथा को उतने ही गौरवशाली ढंग से पेश करने का दावा कर रही है. इस मोड़ पर हमें संजय लीला भंसाली से कुछ असुविधानजक सवाल पूछने चाहिए. जब उन्होंने जायसी के महाकाव्य 'पद्मावत' पर फ़िल्म बनाने की सोची तो उनका इरादा क्या था? दरअसल वे एक सामंती अतीत की उसी भव्यता की कहानी कहना चाहते थे जिसमें नकली आन-बान और शान को बहुत प्रमुखता मिलती है. अगर वे लोकतंत्र के लिए, लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए संवेदनशील होते तो शायद इस सामंती चाल-चलन की खिल्ली उड़ाने वाली एक फिल्म बनाते, राजपूती आनबान के खोखलेपन को उजागर करने वाली फिल्म बनाते, यह सब न भी करते तो कम से कम याद दिलाते कि आधुनिक भारत में जातिगत भेदभाव की गुंजाइश नहीं है और हमारे लोकतंत्र में किसी का जातिगत गुणगान भी अपराध होना चाहिए.
लेकिन संजय लीला भंसाली ने यह सब नहीं किया- उन्होंने एक सुविधाजनक रास्ता चुना जिसमें महलों की भव्य चमक-दमक हो, राजपूत राजाओं की वीरता और राजपूत रानियों के त्याग का बखान हो और दुश्मन- यानी अलाउद्दीन खिलजी- को हिंदी फिल्मों का आदर्श खलनायक बना दिया जाए. यह सब न इतिहास का हिस्सा था, न कल्पनाशीलता का, बस हिंदी फिल्मों की पुरानी कहानी के लिए एक नया फ्रेम ढूढ़ने की चालाकी थी जो इतिहाससम्मत भले न हो, ऐतिहासिक नजर आए.
संजय लीला भंसाली की फिल्में यह काम बार-बार करती रही हैं. बाजीराव पेशवा भी सामंती गुणग्राहकता के बीच से निकली प्रेम कथा है. निस्संदेह इन सब फिल्मों में राजमहलों के षड्यंत्र, रानियों की स्पर्द्धा, दरबारियों और सेनापतियों की खुली-छुपी बगावतें होंगी, लेकिन जो सबसे बड़ी बात है वह एक नकली अतीत का गुणगान है. ये फिल्में जाने-अनजाने उसी मिथ का पोषण करती हैं जिससे भारतीय अतीत की सामंती मानसिकता ताकत पाती है. बल्कि इतिहास से ज्यादा वह इसी मिथ की शरण में रहती है. क्योंकि इतिहास इस गौरव गाथा के सामने असुविधाजनक सवाल प्रस्तुत करता है. वह हारी हुई लड़ाइयों की याद दिलाता है, वह महलों की साज़िश की कथाएं कहता है, वह इस बात का भी उल्लेख करता है कि चित्तौड़गढ़ में कभी राजमहलों की महत्वाकांक्षाओं की टकराहट में एक छोटे से बच्चे का खून भी शामिल था जब बनवीर ने उदय सिंह समझ कर पन्ना धाय के दूधपीते बच्चे की हत्या कर दी थी.
इतिहास के इन असुविधाजनक सवालों को मिथकों और लोककथाओं का परदा अलग करता है. वहां पन्ना धाय के त्याग की कहानी बची रहती है, वहां एक पद्मावती और उसकी रानियों का जौहर बचा रहता है, वहां राजपूतों का उत्सर्ग बचा रहता है. यह कटी-छंटी स्मृति एक समुदाय के भीतर श्रेष्ठता की वह ग्रंथि भरती है जो नए भारत में अपराध मानी जानी चाहिए. लेकिन संजय लीला भंसाली इसी श्रेष्ठता ग्रंथि को सहलाने का काम करते हैं- 'पद्मावती' में ही नहीं, अपनी कुछ और पुरानी फिल्मों में भी.
बेशक, संजय लीला भंसाली अगर सिर्फ कारोबारी आग्रहों से ऐसा करते हैं और फिल्मों के भीतर किसी रचनात्मक संदेश को बेमानी मानते हैं तो उन्हें यह मानने और अपनी फिल्में बनाने का हक़ है. उन्हें तब भी नहीं रोका जाना चाहिए. हमारे यहां बहुत सारी ख़राब फिल्में बनती हैं जो अपने विचार में अलोकतांत्रिक होती हैं, वे कभी पुलिसतंत्र की और कभी जातीय गौरव की वकालत करती हैं और हिट भी हो जाती हैं.
लेकिन 'पद्मावती' बताती है कि अगर आप अपनी फिल्मों में ऐसी ताकतों को प्रोत्साहित करते हैं तो वे पलट कर आप पर भी वार कर सकती हैं. इसकी विडंबना यह है कि इस फिल्म में अलाउद्दीन खिलजी के खलनायकत्व को कुछ ज्यादा गहरे रंग दिए गए हैं. यहां से दरअसल इसमें छुपा वह सांप्रदायिक तार प्रगट होता है जो इस मसले को फिल्म से आगे ले जाता है. यह अनायास नहीं है कि फिल्म का ज़्यादातर विरोध बीजेपी शासित राज्यों में हो रहा है. जाहिर है, बीजेपी या संघ परिवार को राजपूती-हिंदू लाइन पर ‘पद्मावत’ का विरोध रास आता है, क्योंकि इससे उनका सांप्रदायिक एजेंडा मजबूत होता है. अगर ‘पद्मावत’ का विरोध करने वाली जमात को ठीक से देखेंगे तो पाएंगे कि ये वही लोग हैं जो गोरक्षा के नाम पर भी हंगामा-हिंसा करते हैं और लव जेहाद रोकने के नाम पर पार्कों या सार्वजनिक स्थलों पर बैठे युवा जोड़ों की पिटाई करते हैं. पद्मवती प्रसंग ख़त्म होगा तब तक वेलेंटाइन डे विरोध का एक नया मुद्दा उनके सामने आ जाएगा. दुर्भाग्य से उनकी भारतीयता दरअसल भंसाली जैसे निर्देशकों द्वारा की पुष्ट की जा रही भारतीयता का ही हिस्सा है- इसमें उस लोकतांत्रिक, संवेदनशील, बहुलतावादी भारत की जगह नहीं है जो इस आक्रांता और हिंसक राजनीतिक संस्कृति के सामने अपने प्रतिरोध को तरह-तरह से व्यक्त कर रहा है- फिलहाल 'पद्मावत' देखकर भी.
प्रियदर्शन एनडीटीवी इंडिया में सीनियर एडिटर हैं
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This Article is From Jan 25, 2018
पद्मावत में ही छुपे हैं पद्मावत विरोध के बीज
Priyadarshan
- ब्लॉग,
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Updated:जनवरी 25, 2018 14:51 pm IST
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Published On जनवरी 25, 2018 14:50 pm IST
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Last Updated On जनवरी 25, 2018 14:51 pm IST
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