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This Article is From Jul 30, 2018

उद्योगपतियों की तारीफ करते प्रधानमंत्री और देश के विकास का सच... 

Priyadarshan
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    जुलाई 30, 2018 16:16 pm IST
    • Published On जुलाई 30, 2018 16:16 pm IST
    • Last Updated On जुलाई 30, 2018 16:16 pm IST
प्रधानमंत्री की यह बात बिल्कुल सही है कि उद्योगपति देश के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं, उन्हें चोर-लुटेरे समझना या कहना ठीक नहीं और उनके साथ रिश्ते रखने में कोई बुराई नहीं. हो सकता है, उनका यह आरोप भी सच हो कि जो लोग सार्वजनिक जीवन में उद्योगपतियों से दूरी बरतते हैं, वे चुपचाप उनके घरों में जाकर दंडवत होते हैं. नेताओं के पाखंड के बारे में आम राय अब इतनी स्पष्ट है कि दलों के आर-पार जाकर उनके इस कथन पर भरोसा किया जा सकता है.

लेकिन राजनीति और उद्योग के इस रिश्ते में कुछ पेच भी हैं. सवाल है, प्रधानमंत्री को यह बात कहने की ज़रूरत क्यों पड़ी...? क्योंकि राहुल गांधी ने संसद में इल्ज़ाम लगाया कि राफेल सौदे में एक उद्योगपति अनिल अंबानी को फायदा पहुंचाया गया है. कांग्रेस ने इसके सबूत में ऐसे दस्तावेज़ जारी किए, जिनसे लगता है कि जिन कंपनियों को राफेल के ऑफसेट कॉन्ट्रैक्ट मिले, उनमें से एक महज़ 15 दिन पहले बनी थी और दूसरी सौदे के बाद. ऐसी अनुभवहीन कंपनियों के साथ करार कितना नुकसानदेह हो सकता है, इसका बस अंदाज़ा लगाया जा सकता है. सोमवार को ही 'इंडियन एक्सप्रेस' में एक ख़बर छपी है, जिसके मुताबिक नौसेना ने एक निजी कंपनी को दो जहाज़ बनाने का जो ठेका दिया था, वह अटक चुका है और इस वजह से इस मोर्चे पर नौसेना की तैयारी एक दशक पीछे चली गई है.

बहरहाल, यह बात छोड़ें. यह पूछें कि एक निजी कंपनी को बिना अनुभव के आधार पर करोड़ों का यह कॉन्ट्रैक्ट क्यों दिया गया...? क्या इसलिए कि प्रधानमंत्री जैसा कहते हैं - उनके उद्योगपतियों से रिश्ते हैं और उनके मुताबिक उद्योगपति देश की तरक्की में बड़ी भूमिका अदा करते हैं...? क्या यह कॉन्ट्रैक्ट रिश्तों का खेल है...?

सरकारें ऐसे खेल खेलती रहती हैं, इसका एक और सबूत पिछले दिनों तब दिखा, जब सर्वोत्कृष्ट संस्थानों के चयन में रिलायंस के जियो इंस्टीट्यूट को देश के गिने-चुने संस्थानों में शामिल किया गया. जब यह बात सामने आई कि जियो इंस्टीट्यूट तो अभी बना ही नहीं है, तब बताया गया कि उन्हें संभावनाशील संस्थानों की सूची में रखा गया है. ज़ाहिर है, यह भी अपनों के प्रति ममत्व का एक और उदाहरण है.

उद्योगपतियों के साथ रिश्तों में बुराई न होने की बात करते हुए प्रधानमंत्री ने जिस उद्योगपति का नाम लिया, वह अमर सिंह थे. बहुत लोग मानते हैं कि मुलायम सिंह यादव और समाजवादी पार्टी का चाल-चरित्र और चेहरा बदलने में जिन लोगों की बड़ी भूमिका रही, उनमें अमर सिंह शामिल हैं. अमर सिंह एक दौर में मुलायम के बाद पार्टी के सर्वेसर्वा रहे और पार्टी के बहुत सारे राज़ उनके पास दफ़न होंगे. प्रधानमंत्री ने इसी तरफ इशारा किया और एक तरह से चेतावनी भी दे डाली कि अगर उन पर दाग लगाने की कोशिश हुई, तो वह अमर सिंह को पुराने दाग दिखाने के लिए तैयार कर लेंगे. अमर सिंह भी NDTV को दिए एक इंटरव्यू में कह चुके हैं कि वह मायावती और अखिलेश के मुकाबले नरेंद्र मोदी और योगी आदित्यनाथ को चुनना पसंद करेंगे.

लेकिन मामला सिर्फ नेताओं-उद्योगपतियों के रिश्तों का नहीं है, उस दृष्टि का भी है, जो प्रधानमंत्री की बात में दिखाई पड़ती है. वह इस बात को रेखांकित करते हैं कि देश के विकास में उद्योगपतियों का भी योगदान है. निश्चय ही यह योगदान होगा, लेकिन क्या भारत के उद्योगपति इस देश के गरीबों के मुकाबले देश का ज़्यादा भला कर रहे हैं...?

हर आंकड़ा इसी बात की तसदीक करता है कि इस देश में पिछले तीन दशकों में अमीरों की अमीरी भी बढ़ती गई है और गरीबों की गरीबी भी. ज़ाहिर है, देश का जो भी विकास हुआ हो, उसके सबसे ज़्यादा फ़ायदे उद्योगपतियों ने लिए हैं. ऑक्सफैम की रिपोर्ट बताती है कि इस देश की 73 फ़ीसदी दौलत पर बस एक फ़ीसदी आबादी का कब्ज़ा है. बीते साल यह कब्ज़ा 58 फ़ीसदी का था. इस एक साल में इस एक फ़ीसदी आबादी की दौलत 20 लाख करोड़ बढ़ गई.

जबकि दूसरी तरफ़ इस देश की 67 करोड़ की आबादी बस एक फ़ीसदी बढ़ोतरी में सिमट गई, जबकि इस देश के विकास में सबसे बड़ी भूमिका उसी की रही है. असंगठित क्षेत्र के गरीब मज़दूर या फिर छोटे उद्यमी असल में यह देश चलाते हैं. छोटे और मझोले उद्योग इस देश की अर्थव्यवस्था में 48 फ़ीसदी का योगदान करते हैं. सबसे ज़्यादा रोज़गार वे देते हैं. देश की 48 फीसदी आबादी गैरसंगठित क्षेत्र में काम करती है. बड़े उद्योगों में भी जो कामगार हैं, वे लगातार असुरक्षित हुए हैं. तरक़्क़ी के रास्ते में सबसे पहले उनकी सुरक्षा और सुविधाएं कटी हैं. पेंशन योजनाएं पहले की तरह नहीं रहीं, नौकरी की सुरक्षा अब बीते दिनों की चीज़ है, रह-रह कर उद्योग-धंधों में छंटनी की तलवार लटकी मिलती है. काम के घंटे तक तय नहीं हैं.

बेशक, यह स्थिति सिर्फ मोदी सरकार के समय नहीं आई है. डॉ मनमोहन सिंह के वित्तमंत्री और बाद में प्रधानमंत्री रहते हुए और उनके बीच अटल बिहारी वाजपेयी या देवगौड़ा-गुजराल के प्रधानमंत्रित्व के दौर में भी यह देश उदारीकरण की नीतियों का प्रतिरोध धीरे-धीरे भूलता चला गया. मज़दूर आंदोलन कमज़ोर पड़ते चले गए और उद्योगपतियों की दौलत बढ़ती चली गई. भारत के अरबपतियों की तादाद में भी इज़ाफ़ा हुआ. साफ है, हमारी राजनीति पर उद्योगपतियों का दबाव बढ़ता चला गया है. नरेंद्र मोदी का दौर इसका अपवाद नहीं है. बल्कि उन्होंने सीधे-सीधे उद्योगपतियों की पीठ थपथपाकर साफ कर दिया है कि पूंजी की मनमानी अभी चलती रहेगी. क्या यह भारतीय लोकतंत्र के केंद्र से इस देश के आम और कमज़ोर आदमी को हटाकर खास और मज़बूत आदमी को थोपने की वैचारिक शुरुआत है...?

प्रियदर्शन NDTV इंडिया में सीनियर एडिटर हैं...

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं. इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति NDTV उत्तरदायी नहीं है. इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं. इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार NDTV के नहीं हैं, तथा NDTV उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है.

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