मैं 'पहल' का लेखक बहुत बाद में बना - जब दूसरे दौर में 'पहल' का प्रकाशन शुरू हुआ, तब उसमें कुछ समीक्षात्मक आलेख लिखे और एक कहानी भी प्रकाशित हुई. लेकिन 'पहल' से ज़्यादातर रिश्ता मेरा अस्वीकार वाला रहा. मेरी एक कहानी ज्ञान जी ने अस्वीकृत कर दी, जो बाद में 'तद्भव' में छपी. इत्तफ़ाक़ से 'पहल' के आख़िरी अंक के लिए भी एक प्रयोगात्मक कहानी लिखी, जो संभवतः अस्वीकृत हो गई, क्योंकि उसके बारे में कोई सूचना नहीं मिली.
लेकिन 'पहल' के पहले दौर से भी मैं जुड़ा रहा - एक पाठक की तरह और एक 'पहल' विक्रेता की तरह. यह 87 से 90 के बीच के कभी के दिन थे, जब रांची में रहते हुए और जन संस्कृति मंच के लिए उत्साह और सक्रियता से काम करते हुए हम बाहर की पत्रिकाएं बांटना-बेचना भी अपना कर्तव्य समझते थे. कम से कम दो पत्रिकाओं 'पहल' और 'समकालीन जनमत' की प्रतियां हमारे पते पर आतीं. क़ायदे से हमें उन्हें बेचना था, लेकिन छोटे शहर के शील-संकोच के मुताबिक बेचने की जगह हम उन्हें बांट दिया करते थे - या कई ऐसे मित्रों को दे दिया करते थे, जो बाद में भुगतान का वादा कर भूल जाते थे. फिर इन पत्रिकाओं से झिड़की भरे पत्र आते - 'आपको पता है, पत्रिका पैसे के बिना नहीं निकलती, कृपया जल्दी भुगतान भेजें...'
इस बात की हल्की चुभन या मायूसी अब तक बनी हुई है कि एक छोटे-से शहर के युवा-उत्साही लेखकों को इन पत्रिकाओं ने अपने हॉकर से ज़्यादा कुछ नहीं समझा था, वे हमारी रचनाओं या चिट्ठियों का जवाब देना अपनी तौहीन समझती थीं. लेकिन इसके बावजूद इन पत्रिकाओं से मोहब्बत कम नहीं हुई - ये पत्रिकाएं वे बेवफ़ा प्रेमिकाएं बनी रहीं, जो बस कल्पना या नज़र में होती हैं, उनसे जुड़ने का खयाल या ख़्वाब एक उम्रभर की मीठी खलिश की तरह बचा रहता है.
दरअसल, 'पहल' से इस इश्क का एक और पहलू रहा. हमारे जाने-अनजाने 'पहल' हमें बनाती रही. सत्तर-अस्सी के दशकों में मध्यवर्गीय 'श्रेष्ठ' साहित्य का जो अभ्यास और आस्वाद हमारे भीतर 'धर्मयुग', 'साप्ताहिक हिन्दुस्तान' या 'सारिका' जैसी पत्रिकाओं ने पैदा किया था, उसको तोड़ने का काम सबसे ज़्यादा जिन लघु पत्रिकाओं ने किया, उनमें 'पहल' प्रमुख रही. 'पहल' ने हमारी साहित्यिक अभिरुचियों को नए सिरे से संवारा, हमारे बौद्धिक आसमान को नए क्षितिज दिए. उसके कई यादगार विशेषांक आए, जो तब हमारी वैचारिक क्षुधा को शांत करने के लिए ही ज़रूरी नहीं थे, बल्कि अपने समाज की विसंगतियों को समझने के लिए लिहाज़ से भी महत्वपूर्ण थे. 'पहल' पढ़ते हुए ही यह समझ में आया कि वैचारिक साहित्य कितना गंभीर होता है और अपने देश और समाज को समझने के लिए लिहाज़ से कितना ज़रूरी और दिलचस्प भी. 'पहल' को पढ़ना अपनी दुनिया को कुछ बेहतर ढंग से - कुछ चौकन्नी निगाह से समझना था, शोध के आनंद और प्रतिरोध के साहस में सहचर होना था. 'पहल' को पढ़ना उन उभरते कवियों-लेखकों और बेचैन विचारकों को पहचानना था, जो आने वाले दिनों में हिन्दी की सीमित दुनिया के सितारे होने थे. हम 'पहल' के तमाम अंक किसी बहुमूल्य थाती की तरह बचाते रहे. हर अंक विशेषांक लगता था और विशेषांक बिल्कुल धरोहर लगता था. 'पहल' का 'इतिहास अंक' लिए मैं पता नहीं कहां-कहां इस गुमान के साथ घूमता रहा कि इतिहास की मेरी समझ कुछ बेहतर हुई है. 'पहल' के फासीवाद विरोधी अंक का प्रकाशन मेरे बचपन के दिनों की घटना था, लेकिन उसका असर मेरे किशोर दिनों में भी बना रहा.
दरअसल 'पहल' का महत्व समझने के लिए कुछ और बातों को समझना होगा. वह इंटरनेट तो दूर, टीवी-टेलीफोन तक का भी ज़माना नहीं था. अख़बार तक बस बड़े शहरों से निकला करते थे. हिन्दी में दुनिया की समझ विकसित करने के ज़रिये बहुत कम थे. फिर वह सत्तर का दशक था, जब आज़ादी के बाद का मोहभंग अपने चरम की ओर बढ़ रहा था. नक्सलवादी क्रांति किसी बिजली की तरह चमककर बुझ चुकी थी, लेकिन उसकी रोशनी हिन्दी साहित्य पर छाई हुई थी. दुनिया भर में साठ के दशक के युवा विद्रोह की अनुगूंज बाक़ी थी, सोवियत सत्ता और वाम वैचारिकी को लेकर नए सिरे से बहस जारी थी. फिलस्तीन और वियतनाम सुलगते हुए सवालों की तरह हमारी आत्माओं में दहकते थे. इन सबके बीच 'पहल' वह एक बड़ा सूत्र था, जो हमें इस सिलसिले से बांधे रखता था. दुनियाभर के महान कवियों को हमने 'पहल' के पन्नों पर पढ़ा. 'पहल' की वजह से नाजिम हिकमत, बर्तोल्त ब्रेख़्त, पॉल एलुआर, पार्रा और पाब्लो नेरुदा को हम हिन्दी कवियों की तरह पढ़ते रहे, भारतीय भाषाओं और हिन्दी की विराट उभर रही परम्परा से परिचित होते रहे और इस बात पर प्रमुदित होते रहे कि हम एक वैचारिक आंदोलन की कतार में हैं. अपनी वाम पक्षधरता के साथ 'पहल' प्रगतिशील मूल्यों की वाहक रही और उन शक्तियों को नाराज़-मायूस करती रही, जो इस पर पक्षपात के आरोप लगाते रहे.
बहरहाल 90 का दशक आते-आते बहुत कुछ छूट-टूट गया. सोवियत संघ ख़त्म हुआ, शीत युद्ध ख़त्म हुआ, द्विध्रुवीय दुनिया खत्म हुई, पूंजी और अमेरिका का एकाधिकार बढ़ा, विचार की दुनिया में इतिहास के अंत की घोषणा हुई, विचारधारा के ख़ात्मे की बात की गई, सभ्यताओं के संघर्ष की भविष्यवाणी हुई और टर्की, अमेरिका से लेकर भारत तक में सांप्रदायिक बर्बरता पर आधारित सत्ता-प्रतिष्ठानों का उदय हुआ.
इसके बाद 'पहल' का सिलसिला भी टूट गया. हिन्दी के अप्रतिम कथाकार ज्ञानरंजन एक अप्रतिम संपादक की भूमिका अदा करने के बाद नेपथ्य में जाने की तैयारी कर रहे थे. लेकिन पांच साल बीतते न बीतते ज्ञानरंजन दोबारा सक्रिय हुए, 'पहल' पुनर्जीवित हुई और फिर बरसों-बरस चलती रही. 'पहल' के इस दौर तक आते-आते लेकिन हिन्दी का संसार वह नहीं रह गया था, जो वह सत्तर और अस्सी के जलते-सुलगते दशकों में था. उदारीकरण के कंधों पर सवार बाज़ार ने मध्यवर्ग को उपभोक्तावादी वर्ग में बदल दिया और लेखन पर भी उसका साया पड़ा. साहित्य में विचारधारा के वर्चस्व को ही नहीं, विचार की उपस्थिति को भी अप्रासंगिक मान लिया गया. इस बदले हुए माहौल की कुछ ख़ीझ ज्ञानरंजन के कुछ साक्षात्कारों में दिखाई भी पड़ती है. इस दौर में 'पहल' को पढ़ते हुए उस पुरानी ऊष्मा की कमी का भी एहसास हुआ, जो हम अपने भीतर पहले महसूस किया करते थे. यह सच है कि कुछ 'पहल' बदल गई थी, कुछ वक़्त बदल गया था और कुछ हम पहले से होशियार हो चुके थे. इस दुनिया में 'पहल' को एक दिन रुकना ही था. ज्ञानरंजन ने इसी के साथ किसी नई 'पहल' का रास्ता भी खोल दिया है - आख़िर ज़िन्दगी और ज़माने को किसी न किसी 'पहल' की ज़रूरत तो हमेशा रहेगी.
हां, अस्सी के दशक का वह किशोर अपनी बेमानी-सी झुंझलाहट और ढेर सारे लगाव के साथ उस 'पहल' को याद किया करेगा, जिसका उसकी निर्मिति में भी थोड़ा-बहुत योगदान था और जिसने उसे अंत तक अस्वीकार को भी सहजता से स्वीकार करने का काम सिखाना न छोड़ा.
प्रियदर्शन NDTV इंडिया में एक्ज़ीक्यूटिव एडिटर हैं...
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं. इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति NDTV उत्तरदायी नहीं है. इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं. इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार NDTV के नहीं हैं, तथा NDTV उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है.