बांग्ला के जाने-माने खेल पत्रकार और लेखक मति नंदी का एक उपन्यास है- 'स्ट्राइकर'. यह उपन्यास एक फुटबॉलर के संघर्ष की कहानी है जो अपने आर्थिक अभावों और संकटों से जूझता हुआ, तमाम तरह के विपरीत हालात का मुक़ाबला करता हुआ, आख़िरकार शिखर पर पहुंचता है. उपन्यास में फुटबॉल का जुनून है, क्लबों की राजनीति है और इंसानी रिश्तों की कहानी भी है. एक कहानी अहमद की है जो युग यात्री क्लब से खेलता है लेकिन जिस पर एक टीम से पैसे लेने का झूठा इल्ज़ाम लगा दिया जाता है. टीम का प्रबंधन उसे मैच से बाहर रखना चाहता है, लेकिन सारे खिलाड़ी अहमद के साथ खड़े हो जाते हैं. अंततः वह खेलता है और बिल्कुल जुनूनी अंदाज़ में टीम को जीत दिलाता है. यह उपन्यास क़रीब आधी सदी पुराना है. यह याद दिलाता है कि खेलों में भी धर्म और जाति की संकरी बाड़ेबंदियां खोजने-निकालने या उसके आधार पर साज़िश करने वाले कुछ लोग हमेशा से रहे हैं, लेकिन पहले उनकी तादाद कम थी और ऐसे लोगों को समाज अक्सर कुछ हिकारत और तिरस्कार से देखता था.
लेकिन अब समय बदल गया है. ऐसे ओछे हमलों पर समाज नाराज़ नहीं होता. साथ खेलने वाले खिलाड़ी भी साथ खड़े नहीं होते. देश के जाने-माने क्रिकेटर वसीम जाफ़र का मामला यही बता रहा है. उनके ख़िलाफ़ उत्तराखंड में बहुत ओछा आरोप लगाया गया. कहा गया कि वह धार्मिक आधार पर खिलाड़ियों से भेदभाव कर रहे हैं. वसीम जाफर दरअसल उत्तराखंड क्रिकेट के कोच थे. 9 फरवरी को उन्होंने अपने पद से इस्तीफ़ा दिया. इस्तीफ़े की साफ़ वजह भी बताई- कि उत्तराखंड क्रिकेट संघ के पदाधिकारी उनके काम में दख़ल दे रहे हैं, वे नाक़ाबिल लोगों को टीम में चाहते हैं.
लेकिन अगले ही दिन अख़बार में उनके विरुद्ध ख़बर छप गई. उत्तराखंड क्रिकेट संघ के सचिव के हवाले से बताया गया कि वसीम जाफ़र टीम को धार्मिक आधार पर बांट रहे हैं. वे एक मुस्लिम खिलाड़ी अब्दुल्ला को कप्तान बनाने पर ज़ोर दे रहे हैं. यही नहीं, उन पर शुक्रवार को नमाज़ के लिए मौलवी बुलाने का आरोप भी लगा. वसीम जाफ़र ने इन ख़बरों का खंडन किया. बताया कि टीम या कप्तान चुनने का काम चयनकर्ताओं का है. यह भी बताया कि वे मौलवी बुलाने के पक्ष में नहीं थे, लेकिन यह काम अब्दुल्ला ने टीम के मैनेजर की इजाज़त से किया था. उन्होंने साफ़ कर दिया था कि यह सब ट्रेनिंग सेशन के बाद होगा.
मगर वसीम जाफ़र को कौन सुनता है? अब ताज़ा खबर ये है कि उत्तराखंड के मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत ने इस पूरे मामले की जांच के आदेश दिए हैं. जांच के बाद वे कार्रवाई करेंगे. ये वही त्रिवेंद्र सिंह रावत हैं जिन्होंने केदारनाथ हादसे के बाद सारी परियोजनाओं पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा लगाई गई रोक और कई विशेषज्ञ समितियों की सलाह के बावजूद बिजली परियोजनाएं जारी रखीं जिसकी वजह से 200 से ज़्यादा लोग मारे गए. इस त्रासदी के जिम्मेदार लोगों की क्या जांच नहीं होनी चाहिए? या इसे प्राकृतिक आपदा के खाते में डाल कर मुख्यमंत्री मुक्त हो लेंगे?
वसीम जाफ़र छोटे-मोटे खिलाड़ी नहीं हैं. वे उन गिने-चुने भारतीय बल्लेबाज़ों में हैं जिन्होंने देश और विदेश- दोनों जगह दोहरे शतक लगाए हैं. इस सूची में उनके अलावा सुनील गावसकर, सचिन तेंदुलकर, राहुल द्रविड़ और विराट कोहली हैं. यही नहीं, सलामी बल्लेबाज़ों में सुनील गासवकर के अलावा यह करिश्मा करने वाले वो अकेले बल्लेबाज़ हैं. जब उन्होंने पाकिस्तान के ख़िलाफ़ दोहरा शतक लगाया था तब उनको यह करिश्मा करते देखने वालों में दूसरे सिरे पर सचिन तेंदुलकर और राहुल द्रविड़ जैसे बल्लेबाज़ भी थे.
लेकिन सचिन तेंदुलकर रिहाना और ग्रेटा थनबर्ग के ट्वीट का जवाब देने के लिए सरकार के आदेश पर बल्लेबाजी कर सकते हैं, वसीम जाफ़र के साथ खड़े नहीं हो सकते. बेशक, अनिल कुंबले और मोहम्मद कैफ़ जैसे कुछ खिलाड़ियों ने वसीम जाफ़र का समर्थन किया है, लेकिन यह पर्याप्त नहीं है.
कहा जा सकता है, वसीम जाफ़र को ऐसी जांच से क्यों डरना चाहिए? लेकिन यह जांच से डरने का मामला नहीं है. यह लगातार किसी के इस कचोट में रहने का मामला है कि उस पर उसका देश भरोसा नहीं करता, या कुछ लोग उसकी धार्मिक पहचान को उसके ख़िलाफ इस्तेमाल कर सकते हैं, यह एक सौतेलेपन के एहसास में जीने का मामला है.
यह छुपी हुई बात नहीं है कि सौतेलेपन का यह एहसास इस समाज में बढ़ रहा है. बहुत संभव है कि यह सौतेलापन बहुत सारे लोगों के भीतर न हो, बहुसंख्यक समाज के भीतर भी न हो, लेकिन जो मुखर सौतेलापन है, वह इन वर्षों में दुराग्रही भी हुआ है, तीखा भी और ढीठ भी. पहले लोग अपनी धार्मिक संकीर्णता का प्रदर्शन करते संकोच करते थे, अब वे गर्व से कहते हैं कि वे कुछ लोगों से नफ़रत करते हैं.
यह अच्छी स्थिति नहीं है. इससे वसीम जाफ़र ही कमज़ोर नहीं पड़ते, क्रिकेट भी कमज़ोर पड़ता है, इससे सिर्फ एक समुदाय के लोग ही आहत नहीं होते, देश भी घायल होता है. इस सिलसिले को तोड़ना है तो हमें वसीम जाफ़र और ऐसे तमाम लोगों के साथ खड़ा होना होगा. यह सिर्फ वसीम जाफर को बचाने के लिए नहीं है, वैसे संदिग्ध लोगों से उत्तराखंड क्रिकेट संघ और क्रिकेट को बचाने के लिए भी है जो अपने फ़ौरी हितों के लिए किसी भी हद तक गिरने को तैयार बैठे हैं.
उत्तराखंड में ही रहने वाले फेसबुक मित्र अशोक पांडे ने पिछले दिनों एक कहानी साझा की है. यह कहानी कुछ वेबसाइट्स पर भी है. 2001 में इटली के ट्रेविस्को फुटबॉल क्लब ने 18 साल के एक काले खिलाड़ी ओमोलेड को मैदान में उतारा. श्वेत वर्चस्व वाले उस क्लब के दर्शकों ने ही ओमोलेड की हूटिंग शुरू कर दी. यह एक शर्मनाक नज़ारा था जिससे टीम पहले से शर्मिंदा भी थी और परेशान भी. अगले मैच में खिलाड़ियों ने इसका एक उपाय निकाला. वे ओमोलेड के साथ देने के लिए अपने चेहरों पर काला पेंट लगाकर उतरे. इसे देख कर दर्शक पहले हैरान हुए और उसके बाद उन्होंने इसकी ऐसी सराहना की कि पिछले मैच में हो-हल्ला करने वाले अतिवादी तत्व या तो चुप हो गए या फिर गायब हो गए.
उस मैच में ओमोलेड को दूसरे हाफ़ में उतारा गया. तब बारिश हो रही थी. सबके चेहरों का पेंट उतर रहा था. और मैच के बिल्कुल आखिरी मिनटों में ओमोलेड ने हेडर से गोल कर अपनी टीम को जीत दिला दी.
क्या हम इसी तरह वसीम जाफ़र के साथ खड़े होने को तैयार हैं?
प्रियदर्शन NDTV इंडिया में एक्ज़ीक्यूटिव एडिटर हैं...
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