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This Article is From Jan 29, 2019

जॉर्ज फर्नांडीज चले गए, सवाल बचे हुए हैं

Priyadarshan
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    जनवरी 29, 2019 14:21 pm IST
    • Published On जनवरी 29, 2019 14:21 pm IST
    • Last Updated On जनवरी 29, 2019 14:21 pm IST

भारत में साठ का दशक आज़ादी के बाद के पहले मोहभंग का दशक भी था. आज़ादी के दौर में देखे गए सपने थकने से लगे थे. आज़ादी की लड़ाई लड़ने वाली पीढ़ी विदा हो चुकी थी और उसकी कमाई खाने वाले लोग हर तरफ़ उभर रहे थे, चीन युद्ध के बाद की हताशा और नेहरू के निधन से पैदा शून्य के बीच भारतीय राजनीति ख़ुद को पुनर्परिभाषित और पुनर्व्याख्यायित करने की चुनौती से गुज़र रही थी. इस दौर में एक तरफ़ लोहिया और गांव-देहात और पिछड़ों से जुड़ी उनकी समाजवादी चिंताएं थीं और दूसरी तरफ़ उभरता हुआ जनसंघ था जो तब भी कभी अखंड भारत का जाप करता था और कभी हिंदी-हिंदू, हिंदुस्तान का नारा लगाता था. इस नए सिरे से संघर्षरत भारत में जो कुछ चमकते चेहरे भविष्य के प्रति आस्था जगाते थे, उनमें जॉर्ज फर्नांडिस भी एक थे. वे जैसे किसी धूमकेतु की तरह उदित हुए थे. शुरुआत उन्होंने मज़दूर आंदोलन से की थी. वे मुंबई की टैक्सी यूनियन के नेता थे. तब उनके एक इशारे पर महानगर का चक्का जाम हो जाया करता था. 1967 में उन्होंने महाराष्ट्र के महारथी एसके पाटिल को हरा कर लोकसभा में प्रवेश किया था. 

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एसके पाटिल आज़ादी की लड़ाई के नेता रहे, नेहरू, लाल बहादुर शास्त्री और इंदिरा गांधी की सरकार में मंत्री रहे और उन्होंने कल्पना तक नहीं की थी कि उन्हें दक्षिण मुंबई में हराया भी जा सकता है. लेकिन वे हारे और जॉर्ज किसी सनसनी की तरह सामने आए. सत्तर के दशक में इस सनसनी ने बताया कि वह दीर्घजीवी ज्वालामुखी हैं. इमरजेंसी से पहले 15 लाख रेलकर्मियों को लेकर उन्होंने जिस तरह हड़ताल की थी, उसे मजदूर आंदोलन के इतिहास में किसी मिथक कथा की तरह याद रखा जाता है. इसी तरह इमरजेंसी के दौरान जेल में रहते हुए उन्होंने मुजफ्फरपुर सीट से जिस तरह जीत हासिल की, वह भी राजनीति की बार-बार  दुहराई जाने वाली कहानियों में है. उस दौर के नेताओं में अटल के अलावा वे दूसरे थे जिनकी वक्तृता शैली की अलग से चर्चा होती थी. उन्हें 'दायरे में बंद तूफ़ान' कहा जाता था.

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जॉर्ज के बारे मे दो-तीन बातें बेहद स्पष्ट थीं. वे लड़ना और जूझना जानते थे. गरीबों, मजदूरों और आम लोगों से जुड़ने में उन्हें समय नहीं लगता था. वे अपनी तरह के जज़्बाती सर्वहारा थे. वे उम्मीद जगाते थे. उनका साहस बिल्कुल रोमांच की हद तक चला जाता था. बड़ौदा डायनामाइट केस उनके इसी दुस्साहस की मिसाल की तरह देखा जाता है. इंदिरा गांधी की सरकार को वे फ़ासीवादी सरकार मानते थे और इसे हटाने के लिए वे डायनामाइट तक के इस्तेमाल की सोच सकते थे.  1977 में जब जनता पार्टी की सरकार बनी तो जॉर्ज उद्योग मंत्री बनाए गए. उन्होंने जो अहम फ़ैसले किए, उनमें कोकाकोला जैसी बड़ी कंपनी को भारत से भगाना भी था. यह अलग बात है कि करीब दो दशक बाद कोकाकोला उनके जीते-जी लौट आया. बाद में रेल मंत्री, रक्षा मंत्री सब कुछ बनते गए. लेकिन जॉर्ज की पूरी राजनीति बताती है कि कैसे भारतीय लोकतंत्र में संभावनाओं के बड़े-बड़े अग्निबीज समझौतों के ठंडे पड़ते पुर्जों में बदलते चले गए.  इस राजनीति का अध्ययन यह समझने के लिहाज से दिलचस्प हो सकता है कि आखिर फासीवाद और सांप्रदायिकता के खतरों से लड़ने निकला भारतीय समाजवाद कैसे उनकी ही गोद में जाकर बैठता चला गया. 

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दरअसल इन दिनों जो लोग साम्यवाद और समाजवाद को बिल्कुल एक राजनीतिक लाइन में रखते हैं, वे शायद नहीं जानते कि एक दौर में भारतीय समाजवादी कांग्रेस और भारतीय वामपंथियों से इस तरह चिढ़ते थे कि उन्हें जनसंघ के क़रीब आने में भी गुरेज नहीं होता था. लोहिया कहा करते थे कि पूंजीवाद और साम्यवाद दोनों भारत पर हमले के आख़िरी यूरोपीय हथियार हैं.  मजदूर आंदोलन से जुड़े जॉर्ज चीन को भारत के लिए बड़ा ख़तरा मानते थे और संभवतः इंदिरा गांधी और कांग्रेस के लोकतंत्रविरोधी व्यक्तिवादी रुझान से बुरी तरह नाराज़ किसी से भी हाथ मिलाने को तैयार थे. 1977 की पहली जनता पार्टी सरकार में जॉर्ज-मधु लिमये और अटल-आडवाणी का साथ आना इसी विडंबना का एक रूप था जिसके ख़तरों को तब किसी ने पहचाना नहीं था. 

सच तो यह है कि जॉर्ज की राजनीतिक कलाबाज़ियां इसी दौर से शुरू होती हैं. 1979 में जब जनता पार्टी टूटी तो जॉर्ज ने 24 घंटे में पाला बदला. एक दिन पहले मोरारजी की सरकार के पक्ष में ज़ोरदार दलीलें दीं और अगले दिन दूसरे पाले में नज़र आए.  बेशक, यह समझौतापरस्ती से ज़्यादा तात्कालिक राजनीतिक दबावों के आकलन की हड़बड़ी थी जिससे जॉर्ज ने यह फ़ैसला लिया. आने वाले दिनों में ऐसे फ़ैसले और ज्यादा दिखने लगे. खास कर 90 के दशक में उन्होंने लालू यादव के भ्रष्टाचार और परिवारवाद के ख़िलाफ़ पहले समता पार्टी बनाई और उसके बाद बीजेपी से हाथ मिला लिया. यहां आकर अचानक जॉर्ज बदले-बदले दिखते हैं. वह आग बुझी हुई सी नज़र आती है जिसके बीच उनका सुलगता हुआ व्यक्तित्व बनता था. वे वाजपेयी सरकार के रक्षा मंत्री भी बनते हैं और संकटमोचन भी. अचानक हम पाते हैं कि ओडिशा में फादर जॉर्ज स्टेन और उनके बच्चों को ज़िंदा जला कर मार दिए जाने की घटना से भी वे अप्रभावित रहते हैं. वे केंद्र की ओर से जाकर जांच करते हैं और सबको क्लीन चिट देकर लौट आते हैं.क्या यह पुराने जॉर्ज से संभव था? वह होता तो आग लगा देने की सोचता. जिस असहिष्णुता की चर्चा आज हो रही है, वह उन्हीं दिनों शुरू हो गई थी जब केंद्र में पहली एनडीए सरकार उस प्रधानमंत्री के नेतृत्व में बनी थी जिसे सब उदार मानते थे. लेकिन वह एक मुखौटा भर थे, यह बात किसी और ने नहीं, उस गोविंदाचार्य ने कही थी जो उन दिनों बीजेपी और संघ परिवार के नीति निर्धारकों में प्रमुख हुआ करते थे. कहने की ज़रूरत नही कि वह मुखौटा आज हट भर गया है.

बहरहाल, करगिल के समय भी जॉर्ज के कुछ बयान हैरान करने वाले रहे. बाद में तहलका के स्टिंग ऑपरेशन की वजह से उनको कुछ समय के लिए इस्तीफ़ा भी देना पड़ा. वे दुबारा लौटे, लेकिन उनको लेकर संसद में टकराव चलता रहा और वे इससे बेअसर रहे. लोकतंत्र को कमज़ोर करने वाली ताकतों से लड़ने और एक समाजवादी भारत बनाने का सपना देखने वाला एक नेता एक दिन अचानक फिर दूसरे सिरे पर जाकर उन्हीं ताकतों का साथी हो जाता है जो लोकतंत्र को कमज़ोर कर रही हैं- यह बात चाहे जितनी उदास करने वाली हो, लेकिन जॉर्ज की राजनीति के निजी पराभव की तरह इसे पढ़ना उन बहुत सारे सवालों को अलक्षित कर देना होगा जिसकी वजह से यह स्थिति पैदा हुई कि बहुत सारे लोग इस खेमे से उस खेमे में चले गए. यह वह त्रासदी है जो भारत में लोकतंत्र को फासीवाद के लगातार मजबूत होते जाल से बचाने की चुनौती को बड़ा बना रही है. 

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जॉर्ज जब राजनीति में आए थे, तब एक तरह का मोहभंग था. उनका आना जितना नाटकीय था, उनका जाना उतना ही अनाटकीय रहा. वे बरसों तक स्मृति की यातना से दूर बस निष्पंद सांस लेते रहे. विस्मृति की भी कोई यातना होती है या नहीं, यह नहीं मालूम, लेकिन जॉर्ज सबकुछ भूल चुके थे- वह बहुत कुछ भी जो वाकई भूला जाने लायक था. लेकिन हमें याद रखना होगा- वे कौन सी विडंबनाएं थीं जिनकी वजह से हमारे बचपन और किशोर दिनों का एक बड़ा और संभावनाशील नेता हमसे दूर होता चला गया. लेकिन यह उनके व्यक्तित्व का ही जादू था कि उनसे असंख्य शिकायतें रहीं, लेकिन कोई शिकायत किसी शत्रु-भाव में नहीं बदल सकी. मृत्यु वैसे भी हर लकीर मिटा देती है. 

 

प्रियदर्शन NDTV इंडिया में सीनियर एडिटर हैं...

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