क्या आप डेटा चोरी का मतलब समझते हैं ? 

सरकार के पास अगर सुरक्षा के इतने ही मज़बूत इंतज़ाम हैं तो क्या वह बता सकती है कि उसने लोगों की निजी जानकारी को चुराने के कौन से मामले पकड़े हैं.

क्या आप डेटा चोरी का मतलब समझते हैं ? 

फेसबुक ने डेटा लीक किया है. इसे लेकर उस भारत में बहस हो रही है जो बिना सोचे समझे लाइन में लगकर आधार कार्ड बनवा रहा है. जहां लोग न प्राइवेसी का मतलब समझते हैं और न डेटा की डकैती का खेल. आधार नंबर का डेटा पांच फुट चौड़ी और 13 फीट ऊंची दीवार के बीच सुरक्षित है. इसे कोई भेद नहीं सकता, ऐसा दावा करने वाली सरकार के पास अगर सुरक्षा के इतने ही मज़बूत इंतज़ाम हैं तो क्या वह बता सकती है कि उसने लोगों की निजी जानकारी को चुराने के कौन से मामले पकड़े हैं. दुनिया भर में गूगल, फेसबुक पर डेटा चोरी के मामले दर्ज हो रहे हैं. मुकदमे चल रहे हैं. भारत सरकार क्या बता सकती है कि क्या उसने गूगल, फेसबुक के खिलाफ ऐसा एक भी मामला पकड़ा है. क्या हम यह मान लें और क्यों मान लें कि भारत में फेसबुक और गूगल ने कोई गड़बड़ी नहीं की होगी.

यह सवाल इसलिए किया क्योंकि बुधवार को आईटी मंत्री काफी जोश में बोल रहे थे. उन्होंने कहा कि मिस्टर मार्क ज़ुकरबर्ग, आप भारत के आईटी मंत्री की प्रतिक्रिया को नोट कर लें, हम भारत में फेसबुक का स्वागत करते हैं, लेकिन अगर फेसबुक सिस्टम की मिलीभगत से भारतीयों का डेटा चोरी हुआ है तो यह बर्दाश्त नहीं किया जाएगा. हमारे आईटी एक्ट काफी सख्त हैं. हम उसका इस्तमाल कर सकते हैं, आपको भी भारत बुला सकते हैं. हमारे पास काफी मज़बूत ढांचा है. लेकिन आज मैं अपनी चेतावनी अटलांटिक पार सुदूर कैलिफोर्निया तक सुना देना चाहता हूं. 

जिस तेवर से अंग्रेज़ी में कहा गया है वो तेवर अनुवाद में तो नहीं झलकता है मगर फिर भी मंत्री जी 'अरे ओ सांभा टाइप' बयान देने से अच्छा होता कि बता देते कि भारत ने गूगल और फेसबुक के खिलाफ कभी कोई मुकदमा किया है, चोरी पकड़ी है जैसे यूरोपीयन यूनियन ने जून 2017 में गूगल के खिलाफ 2.4 बिलियन यूरो का जुर्माना किया था, क्योंकि गूगल गलत तरीकों से अपना वर्चस्व बना रहा था. नेट न्यूट्रालिटी के वक्त भारत सरकार ने ज़रूर फेसबुक को रास्ते पर ला दिया था क्योंकि उस वक्त फेसबुक यहां के अखबारों में विज्ञापन देकर सरकार के खिलाफ ही लोगों को उकसाने लगा था. इस घटना को भी हम भूल चुके हैं. यह मामला भी लोगों ने पहले उठाया, खूब बहस हुई तब जाकर सरकार इसमें आई.  
फेसबुक, क्रैंब्रिज एनालिटिका से जुड़ी बहस बहुत गंभीर है. इसे ध्यान से समझा जाना चाहिए. भारत में कानून तो है, लेकिन क्या उसे लेकर हमारी आपकी समझ है. कल जब कोई आधार नंबर के सहारे चुनावी खेल कर जाए, तब आप और हम कैसे समझेंगे कि इन जानकारियों के ज़रिए जनमत को पलट दिया गया. हम कैसे समझेंगे कि जो हुआ वो गलत था, उसके लिए हमीं ज़िम्मेदार थे, हमने ही जानकारी दे दी थी और उसके बाद यह साबित कैसे होगा. क्या चुनाव आयोग ऐसी परिस्थितियों के लिए तैयार है. भारत जैसे देश में हर चुनाव में किसी न किसी की सेक्स टीवी चैनलों पर चलने लगती है, उस देश में हमारे नेता प्राइवेसी के एक्सपर्ट बनकर भाषण दे रहे हैं. जनता को आश्वस्त कर रहे हैं कि आपका डेटा यानी आपकी जानकारी सुरक्षित है. आप अपने शहर के किसी भी साइबर सेल में चले जाइये. उसकी हालत देख लीजिए फिर पता चलेगा कि भारत ने क्या इंतज़ाम किए हैं. 

पूरी दुनिया में बहस चल रही है कि कहीं बाहर का देश, कंपनियों का गिरोह मिलकर हमारे आपके डेटा से चुनाव का नतीजा ही न बदल दे. पिछले साल सितंबर में इस मामले को लेकर सुप्रीम कोर्ट में बहस हुई थी. उस वक्त सरकार ने सितंबर 2017 में स्मार्ट फोन बनाने वाली 21 कंपनियों से पूछा था कि आपके मोबाइल फोन में डेटा कितना सुरक्षित है. व्हाट्स अप ने सुप्रीम कोर्ट से कहा था कि वह किसी भी थर्ड पार्टी को अपना डेटा नहीं देगा. इसी में सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को बताया कि उसने डेटा की सुरक्षा के लिए एक कमेटी बनाई है. 23 जनवरी 2018 को सेंटर ने सुप्रीम कोर्ट को कहा है कि रिटायर जस्टिस बीएन श्रीकृष्ण की अध्यक्षता में जो कमेटी बनाई गई है वो बिल मार्च तक तैयार हो जाएगा. यानी भारत अभी काफी पीछे है. दुनिया की सरकारें पहले से ही जग चुकी हैं. 

अमरीका में हुए राष्ट्रपति चुनाव, इटली, फ्रांस और जर्मनी के चुनावों के दौरान ही वहां चर्चा चल पड़ी कि रूस उनके चुनावों को बदलने की ताकत रखता है. टेक्नॉलजी और डेटा के ज़रिए वह चुनाव को प्रभावित कर रहा है. झूठ और नफरत की बातों का ज़ोर-शोर से प्रचार होता है, जिसके प्रभाव में नतीजे बदल जाते हैं. खासकर यूरोपीयन यूनियन को लगा कि रूस हर चुनाव में हस्तक्षेप कर यूरोपीय यूनियन की एकता को प्रभावित कर रहा है. यूरोपीयन यूनियन को तोड़ रहा है. खासकर ब्रिटेन के अलग होने को भी डेटा के इस्तमाल से जोड़ा जा रहा है. सोचिए भारत में चुनाव हो रहे हैं और हमारे डेटा से अमरीका तय कर रहा हो कि कौन से दल को बहुमत मिलना चाहिए ताकि उसकी सरकार बनने के बाद वो मनचाहे ढंग से नीतियां बना सके. क्या आप ऐसा चाहेंगे. यूरोपीयन यूनियन के 28 देशों ने अपने यहां होने वाले चुनावों को बचाने के लिए डेटा प्रोटेक्शन कानून बनाया है. आप जानते हैं कि अमरीका की कई टेक्नॉलजी कंपनी फेसबुक गूगल का मुख्यालय आयरलैंड में है, क्योंकि आयरलैंड में बाकी देशों का कानून लागू नहीं होता था. 

यूरोपीयन यूनियन ने कानून के ज़रिए इस व्यवस्था को बदल दिया है. अब इन कंपनियों पर यूरोपीयन यूनियन के बनाए नियम लागू होने थे. जर्मनी ने भी अपने कानून काफी सख्त किए हैं. कुछ साल पहले बेल्जियम ने फेसबुक को प्राइवेसी डेटा कानून के उल्लंघन के मामले में अदालत में घसीट लिया था. ब्रिटेन की संसद में एक कमेटी बनी है कि सोशल मीडिया का चुनावों पर क्या प्रभाव पड़ रहा है, वहां इंफॉर्मेशन कमिश्नर ऑफिस है जो ऐसे मामलों की जांच करता है. 

भारत दावा तो करता है कि उसके कानून सख्त हैं मगर वह काफी पीछे चल रहा है. किसी ज़िले में तनाव हो जाए तो सीधा इंटरनेट बंद करना पड़ता है. जिन तत्वों की वजह से बंद करना पड़ता है उन्हें कभी इन सख्त कानूनों के दम पर सज़ा मिली है या नहीं, इसका रिकॉर्ड बहुत ख़राब ही होगा. पिछले साल सितंबर में सुप्रीम कोर्ट में इस पर बहस हुई थी. तब व्हाट्स अप ने कहा था कि वह यूज़र का डेटा किसी तीसरे को नहीं देता है. सरकार ने स्मार्ट फोन बनाने वाली 21 कंपनियो से पूछा था कि आपके यहां डेटा कितना सुरक्षित है. रिटायर जस्टिस बीएन श्रीकृष्ण की अध्यक्षता में डेटा प्रोटेक्शन पर कमेटी बनाई. अभी जनवरी महीने में सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को बताया है कि इसकी रिपोर्ट के बाद मार्च तक डेटा प्रोटेक्शन का बिल तैयार हो जाएगा. यानी अभी हम तैयार नहीं है, तैयारी कर रहे हैं. 

क्या आप चाहेंगे कि रूस या अमरीका हमारा आपका डेटा लेकर ऐसा चुनावी कैंपेन चला दे जिसके झांसे में हम सब आ जाएं और हम ऐसी सरकार चुन लें जो बाद में हमारी ही जेब काटने लगे. जीना मुश्किल कर दे. इसी को कहते हैं कि डेटा से चुनाव प्रभावित किया जा रहा है. फिर भी बहुत से लोग नहीं समझते हैं कि चुनाव को कैसे प्रभावित किया जा सकता है. हमने यही सवाल राकेश से पूछा जो बैलैटबॉक्स इंडिया नाम की संस्था चलाते हैं. नई संस्था है, हम ज़्यादा नहीं जानते. 

अब आते हैं मौजूदा विवाद पर. आप जानते हैं कि जब से ट्रंप जीते हैं अमरीका में जांच हो रही है कि क्या इस चुनाव में रूस ने दखल दिया था, मतलब क्या रूस ने अपनी तरफ से कोई प्रोपेगैंडा चलाया जिसका लाभ ट्रंप को मिला. मान लीजिए भारत में दस कंपनियां किसी नेता को अपना बंटी समझती हों, कि बंटी को जीता दें और बाद में बंटी हमारी सीटी पर काम करेगा. बंटी जीत गया, आपके सामने शेर बनेगा मगर कंपनियों के सामने चुप रहेगा. इसीलिए दुनिया भर में रिसर्च चल रहा है कि कहीं डेटा के इस्तमाल से लोकतंत्र ही न समाप्त हो जाए. अभी यह समझा ही जा रहा है कि क्या गलत है, क्या सही है. लेकिन भारत में कांग्रेस और बीजेपी इस तरह एक दूसरे पर आरोप लगा रही हैं जैसे इन दोनों ने सबकुछ समझ लिया हो. 

दिसंबर 2016 में अमरीका की डिज़ाइन की प्रोफेसर 'Carole Cadwalladr' ने अपने रिसर्च के दौरान पाया कि अमरीकी चुनाव में कैंब्रिंज एनालिटा की भूमिका है और उसका संबंध यूरोपीयन यूनियन से ब्रिटेन को अलग करने के अभियान में भी है. कैंब्रिज एनालिटिका को 5 करोड़ से अधिक अमरीकी नागरिकों का डेटा एक रिसर्चर से मिला. इस रिसर्चर ने एक ऐप बनाया था, जिससे लोग अपनी सहमति से जुड़े थे. जैसे फेसबुक पर बहुत से एप आते हैं, आप क्लिक कर जुड़ने लग जाते हैं और आई एग्री का बटन दबा देते हैं. या तो आप समझ नहीं पाते या लापरवाह हो जाते हैं, उधर वह एप आपकी सारी जानकारी लेकर किसी तीसरी पार्टी को बेच देते हैं. वह कंपनी उस डेटा का इस्तेमाल राजनीतिक की हवा बदलने में करती है या किसी प्रोडक्ट को बेचने में करती है. यही हुआ है इस विवाद में. अब पांच दिनों तक फेसबुक के मार्क ज़ुकरबर्ग ने माना कि बहुत बड़ी ग़लती हो गई है. आगे से नहीं हो इसके लिए व्यवस्था की जाएगी. डेटा और प्राइवेसी से जुड़े लोग कहते हैं कि यह काफी नहीं है. ज़ुकरबर्ग यह बतायें कि 2014 से पहले जिन जिन एप ने डेटा चुराया है, उसका वे क्या कर रहे हैं इसकी जांच संभव नहीं है, क्योंकि एप की संख्या तो कई हज़ार में है. 

हम और आप फेसबुक का इस्तेमाल करते हैं. एक भरोसा होता है मगर उसी से जानकारी किसी और के पास चली जाए तो फिर भरोसा टूटता है. और उस जानकारी का इस्तेमाल आपके राजनीतिक मत को प्रभावित करने में रूस या अमरीका में बैठी कोई कंपनी कर ले तो सीधा मतलब यह हुआ कि लोकतंत्र टेक्नॉलजी के कारण कभी भी खतरे में पड़ सकता है. आप देखिए कि कई जगहों पर ऐसा हो रहा है. एक बार जो सत्ता में आ रहा है, वो हार ही नहीं रहा है. रूस के राष्ट्रपति पुतिन को देखिए, चीन के राष्ट्रपति तो आजीवन ही गद्दी पर बैठ गए हैं. भारत में कोई इस तरह का सपना न देखे इसलिए जनता को इस विषय को लेकर सतर्क हो जाना चाहिए. यह मसला फेसबुक का है मगर आपको सोचना चाहिए कि कहीं आधार नंबर के कारण यह खतरा करीब तो नहीं है. अमरीका, इटली, फ्रांस और जर्मनी में आधार नंबर नहीं है, भारत में आधार नंबर है. कहीं ऐसा न हो कि सब्सिडी बचाने के नाम पर लोकतंत्र ही हाथ से चला जाए. ब्रिटेन में मामला उठा तो वहां का चुनाव आयोग तुरंत जांच करने लगा, भारत में कांग्रेस बीजेपी आरोप लगा रहे हैं, खुलेआम कह रहे हैं कि आपने ऐसा किया तो आपने ऐसा किया. मगर चुनाव आयोग का पता नहीं. क्या पता उसके अधिकार क्षेत्र में ही यह न आता हो. 

भारत में जब भी ईवीएम के हैक किए जाने का सवाल उठता है तो हम मज़ाक उड़ाते हैं. सबसे बड़ी दलील है कि चुनाव आयोग पर शक कैसे कर सकते हैं. हमें नहीं भूलना चाहिए कि इसी चुनाव आयोग के रहते दशकों बूथ लूटे जाते रहे. आयोग ने नहीं, एक व्यक्ति ने आयोग को भरोसे लायक बनाया था. क्या आपको यह लगता है कि अमरीका, फ्रांस, इटली, जर्मनी के चुनाव आयोग में लोगों का विश्वास ही नहीं हैं. फिर भी वहां बहस हो रही है कि टेक्नालजी से कहीं रिज़ल्ट या चुनाव की प्रक्रिया को प्रभावित तो नहीं किया जा रहा है. जर्मनी में आम चुनाव के पहले वहां खूब चर्चा हुई. वहां के फेडरल ऑफिस फार दि प्रोटेक्शन ऑफ दि कांस्टिट्यूशन के प्रमुख ने कहा था कि चुनाव को हैक करना, बाहर से प्रभावित करना बिल्कुल संभव है. एक रिपोर्ट पढ़ रहा था जिसमें कहा गया कि जर्मनी में एक काउंटिंग सॉफ्टवेयर है जिसे PC-Wahl है, इसे हैक किया जा सकता है. इसके डेटा को छेड़ कर रिज़ल्ट बदला जा सकता है. उन देशों में ऐसे सवालों को गंभीरता से लिया जाता है, हमारे यहां ऐसे सारे सवाल का यही जवाब है कि हम चुनाव आयोग पर शक कैसे कर सकते हैं. यही पूछ लीजिए कि चुनाव आयोग के पास ऐसी संभावना को रोकने के लिए सिस्टम ही क्या है. बैलेटबॉक्स इंडिया के राकेश ने हाल ही में एक लंबा पत्र लिखकर इन खतरों के प्रति आगाह किया था मगर वही जवाब मिला, बल्कि अब तो जवाब न मिलना ही जवाब समझा जाने लगा है. 

यह जटिल मसला है मगर समझना आसान है. क्या होगा कि आप सहमति से अपनी जानकारी किसी एप को दे दें, और वह उसका इस्तमाल किसी और काम के लिए कर ले. जैसा कि क्रैंबिंज एनालिटिका के मामले में हुआ. लोगों ने खुद ही कैंब्रिज यूनिवर्सिटी के रिसर्चन कोगन को जानकारी दी. उसने ज़रूर कैंब्रिज एनालिटिका को बेच दिया. इतनी जल्दी से कांग्रेस बीजेपी के खेल में मत पड़िए. मेहनत से हासिल लोकतंत्र की चिन्ता कीजिए. भारत में हर दल अब डेटा का इस्तेमाल कर रहा है. इसीलिए हर चुनाव में आप देखेंगे कि झूठ का बोलबाला हो गया है. हर झूठ दूसरे झूठ से बड़ा होता है. भारत में कैंब्रिज एनेलिटिका कंपनी के सूत्र अब जेडीयू के नेता केसी त्यागी के बेटे अमरीश त्यागी से जुड़ रहे हैं. कैंब्रिज एनेलिटिका कंपनी के संस्थापक अलेक्जेंडर निक्स ने भारत में स्ट्रेटिजिक कम्यूनिकेशन लेबोरेटरी बनाई.निक्स दो लोगो के साथ मिलकर देख रहे थे जिनमें से एक हैं अवनीश राय और दूसरे हैं अमरीश त्यागी, केसी त्यागी के लड़के. अवनीश राय ने श्रीनिवासन जैन से बात की और विस्तार से बताया कि कैसे निक्स की रूचि भारत के चुनाव में थी. शुरुआत में निक्स ने कहा था कि वो कांग्रेस के लिए डेटा कलेक्शन की बात करने आए हैं मगर बाद में पचा चला कि वे कांग्रेस को हराने के लिए काम कर रहे थे.

अवनीश यह भी बता रहे हैं कि एप बना कर कैसे डेटा इकठ्ठा किया और उस डेटा का होस्ट कौन होगा इस पर विवाद हुआ. अवनिश अब इस मामले में व्हिसल ब्लोअर बन गए है. आप इनका इंटरव्यू सुनिये, होश उड़ जाएंगे. निक्स का कहना था कि उसका मतलब सिर्फ धंधा करने से है वो पैसा कमाने से आया था.


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