यह ख़बर 10 सितंबर, 2014 को प्रकाशित हुई थी

हुनर पर ध्यान क्यों नहीं?

फाइल फोटो

नमस्कार मैं रवीश कुमार। ऑल इंडिया काउंसिल फॉर टेक्निकल एजुकेशन की साइट के अनुसार भारत में 6000(6223) से ज्यादा सरकारी और ग़ैर-सरकारी इंजीनियरिंग एंड टेक्नालजी कालेज हैं। इसी साइट से पता चलता है कि 3139 पोलिटेक्निक संस्थान हैं। इंटरनेट पर यहां वहां से मिले आंकड़ों के अनुसार हमारे देश में हर साल 15 लाख इंजीनियर बनकर निकलते हैं, मगर इनमें से 70 से 80 फीसदी इंजीनियर नौकरी के लायक नहीं हैं। ऐसी खबरें आती रहती हैं और हम भी उचित रूप से ध्यान नहीं देते हैं, लेकिन जब पिछले दिनों प्राइम टाइम के छोटे से हिस्से में इस बात पर चर्चा की क्या वजह है कि इलेक्ट्रिशियन की सैलरी इंजीनियर से ज्यादा है तो लोगों की दिलचस्पी से हैरान हो गया।

सोचा कि आज इस मसले को विस्तार से टटोलते हैं। जिसकी रिपोर्ट थी उसका तो श्रेय बनता ही है तो टाइम्स आफ इंडिया की नम्रता सिंह ने स्टोरी फाइल की कि बारहवीं पास इलेक्ट्रिशियन की महीने की सैलरी 11300 रुपये है, जबकि डिग्री वाले इंजीनियर की सैलरी 14800 यानी 3500 रुपये ज्यादा है। दोनों की सैलरी में समान गति से वृद्धि होती है।

पिछले छह साल में इलेक्ट्रिशियन प्लंबर, टेक्निशियन का वेतन बढ़ा है। जबकि आईटी इंजीनियरों की एंट्री लेवल तनख्वाह लगभग उतनी ही है। ये सर्वे टीमलीज का है। इनका कहना है कि दस साल पहले जब आईटी बूम हुआ था तब काफी मांग थी। तब से सालाना चार लाख आईटी इंजीनियर की मांग बनी हुई है, यानी कोई खास वृद्धि नहीं आई है, जबकि आईटी सेक्टर में ही आने वाले इंजीनियरों की तादाद बढ़कर 15 लाख हो गई है।

पिछले कुछ साल से अलगअलग संस्थाओं की ऐसी कई रिपोर्ट आ चुकी है कि हमारे ज्यादातर इंजीनियर नौकरी देने योग्य नहीं हैं। नेशनल एसोशिएसन ऑफ सॉफ्टवेयर एंड सर्विसेज कंपनीज यानी नैसकाम ने 2011 में एक सर्वे किया तो पता चला कि 75 फीसदी टेक्निकल स्नातक नौकरी के लायक नहीं हैं।

60 अरब डॉलर का आईटी उद्योग इन इंजीनियरों को भर्ती करने के बाद ट्रेनिंग पर करीब एक अरब डॉलर खर्च करते हैं। एक शिकायत रहती है कि डिग्री और स्किल यानी ज्ञान और हुनर में फासले की। पर ये कैसे हो गया कि ज्ञान का मतलब हुनर नहीं रहा या हुनर ज्ञान से अलग हो गया। इसी अंतर को पाटने के लिए स्किल डेवलपमेंट के कार्यक्रम शुरू हुए और अब यह राजनीतिक स्लोगन भी है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी स्किल डेवलपमेंट की बात बार-बार करते हैं। पिछली सरकार ने 2009 में जर्मनी के साथ स्किल डेवलपमेंट को लेकर कार्यक्रम भी बनाए हैं। हमें इंटरनेट से जर्मनी के स्किल डेवलपमेंट पर इकोनोमिस्ट का एक लेख मिला है और अमरीकी रेडियो एनपीआर का।


दोनों के वीडियो से जो भी पता चला हमें लगा कि आपसे साझा करना चाहिए। यह तस्वीर हमने यू-टूब से ली है हैम्बर्ग वोकेशनल एंड ट्रेनिंग इंस्टीटूट की तस्वीर है जिसमें छात्रों को सड़क बनाने से लेकर डक्ट बनाने का काम, बढ़ईगिरी का काम सिखाया जा रहा है।

कुल मिलाकर यह जानकारी हाथ लग पाई कि जर्मनी में डुअल सिस्टम चलता है। वहां के हाई स्कूल के आधे से ज्यादा छात्र 344 कारोबार में से किसी एक में ट्रेनिंग लेते हैं। चाहे वो चमड़े का काम हो या डेंटल टेक्निशियन का। इसके लिए छात्रों को सरकार से महीने में 900 डॉलर के करीब ट्रेनिंग भत्ता भी मिलता है। स्किल डेवलपमेंट के कोर्स या तो मज़दूर संघ बनाते हैं या कंपनियां। वहां का चेंबर्स और कामर्स एंड इंडस्ट्रीज इम्तहान का आयोजन करता है।

स्पेन ब्रिटेन से लेकर भारत तक सब जर्मनी के इस स्किल डेवलपमेंट का मोडल अपनाना चाहते हैं।

इलेक्ट्रिशियन और इंजीनियर की तनख्वाह की सर्वे करने वाली कंपनी कहती है कि इलेक्ट्रिशियन फिटर और प्लंबर की मांग बहुत ज्यादा है और मिल नहीं रहे हैं। एक कंपनी के डेटा पर सीधे भरोसा करने से पहले इसके भाव पर विचार करना चाहिए। इसके लिए जेके सीमेंट के एक विज्ञापन का ज़िक्र करना चाहता हूं। कई बार विज्ञापन अपने उत्पाद के प्रचार से भी ज्यादा कह जाते हैं।

इस विज्ञापन में प्रोफेसर साहब पूछते हैं कि दुनिया का स्टॉन्गेस्ट मैटेरियल क्या है। जवाब आता है.. हेक्सागोनल डायमंड सर। तो दूसरा कहता है कि सर इट्स नाइट्राइट। तो एक लड़का खड़ा होता है और कहता है कि माफ कीजिए जेके सुपर सीमेंट सबसे मज़बूत है। तो बच्चे हंस पड़ते हैं। तो लड़का जवाब देता है कि ओए इंजीनियरिंग करके बिल्डिंग बनाओगे या क्विज क्विज खेलोगे।

क्या ये विज्ञापन, ज्ञान और कौशल के अंतर को उभार नहीं रहा। व्यावहारिक चतुराई पात्रता है तो ज़रूर ज्ञान में भी कमी रही होगी। कहीं ऐसा तो नहीं कि अब इंजीनियर की ज़रूरत ही नहीं है। जो नौकरियां हैं वो असंगठित क्षेत्र के इलेक्ट्रिशियन फिटर और प्लंबर जैसे काम में हैं। जिन्हें रखना और निकालना आसान है।

एस्पायरिंग माइंड्स की एक रिपोर्ट आई है इसी साल फरवरी में। इसके अनुसार 20 प्रतिशत से भी कम इंजीनियर आईटी क्षेत्र में नौकरी के लायक हैं। 8 प्रतिशत से भी कम इंजीनियर कोर इंजीनियरिंग के लायक हैं। जब 90 प्रतिशत से ज्यादा इंजीनियरों को नौकरी चाहिए।

एस्पायरिंग माइंड्स ने अपनी रिपोर्ट में यह भी लिखा है कि एक ऐसी अर्थव्यवस्था में पढ़े लिखे बेरोज़गारों की ऐसी तादाद हो, यह अर्थव्यवस्था की कुशलता के लिहाज़ से भी अच्छा नहीं है और सामाजिक स्थिरता के हिसाब से भी। कंपनी ने कारण यह बताया है कि पढ़ाई लिखाई की गुणवत्ता बहुत अच्छी नहीं है। अपने विषय का बुनियादी ज्ञान नहीं है।

कालेज के कोर्स में तो है, मगर शिक्षण का स्तर या सिखाने की कला ज्यादातर कालेजों की खराब है।

6 सितंबर के इकोनोमिक टाइम्स में केंद्रीय मंत्री वेंकैया नायडू का एक बयान छपा है जो उन्होंने वेल्लौर इंस्टीटूट ऑफ टेक्नालजी के दीक्षांत समारोह में दिया था। अखबार की रिपोर्ट के अनुसार शहरी विकास मंत्री ने नैसकोम की रिपोर्ट का ज़िक्र करते हुए कहा कि 15 प्रतिशत ही इंजीनियर नौकरी के योग्य हैं।

वक्त आ गया है कि हम यह सोचें कि क्या हमारे पास क्वालिटी इंजीनियर हैं। चीन के छात्रों का 34 प्रतिशत इंजीनियरिंग की पढ़ाई करता है जबकि भारत में कुल छात्रों का मात्र 6 प्रतिशत।

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क्या वेंकैया यह कह रहे हैं कि और अधिक इंजीनियर की ज़रूरत है या वो कह रहे हैं कि जितने निकल रहे हैं उनकी क्वालिटी अच्छी होनी चाहिए या वो दोनों बातें कह रहे हैं। एक सवाल यह भी है। दूसरा अगर इलेक्ट्रिशियन, प्लंबर और टेक्निशियन की मांग बढ़ रही है तो उसका लाभ कैसे उठाया जा सकता है। क्या हमारे पास ऐसी कोई योजना है, ऐसा कोई सेंटर हैं जो ऐसी नौकरियों के लिए कम पैसे में प्रशिक्षण दे सकें। ज्यादातर लोग तो अपने अनुभव से सीख कर ही नौकरी पाते हैं वो भी अस्थायी। कई तरह के एंगल हैं बात करेंगे प्राइम टाइम में।

(प्राइम टाइम इंट्रो)