तो क्या इस खतरनाक आतंकी संगठन को 40 देशों की तरफ से मदद मिल रही है। ये देश उन्हें पैसा दे रहे हैं और हथियार भी दे रहे हैं। इनमें से कुछ देश जी-20 के सदस्य भी बताये जा रहे हैं। रूस के राष्ट्रपति ब्लादीमिर पुतीन ने इससे जुड़े सबूत भी जी 20 सदस्य देशों के साथ साझा किये हैं। भारतीय मीडिया में पुतीन का यह बयान तो है लेकिन पश्चिमी समाचार जगत में कई प्रमुख अखबारों और चैनलों की साइट पर जब ढूंढा तो नहीं दिखा। शायद उनके लिए ये मामूली ख़बर होगी।
लेकिन क्या ये मामूली खबर है कि 40 देश इस्लामिक स्टेट की फंडिंग कर रहे हैं। इस बात पर तो पेरिस हमले से भी ज्यादा हंगामा मच जाना चाहिए था। पुतीन ने जो सबूत जी-20 के राजनयिकों को दिये हैं उसे मीडिया में जारी नहीं किया गया है लेकिन क्या जी-20 के मुल्कों ने उसे गंभीरता से लिया है। हमें नहीं मालूम। उनकी तरफ से रूस के इस बयान पर कोई प्रतिक्रिया आई हो तो बताइयेगा। क्या पता आपको गूगल में मिल जाए। रूस ने हवाई जहाज़ से ली गईं तस्वीरें भी दी हैं कि इस्लामिक स्टेट से अवैध तेल खरीदने के लिए तेल टैंकरों की कतारें काफी लंबी हैं। सोमवार को पहली बार अमेरिकी बमवर्षक विमानों ने इस्लामिक स्टेट से तेल खरीदने वाले टैंकरों पर हमला किया है। एक साल से ISIS के खिलाफ अमेरिका हमला कर रहा है। लेकिन उसके विमानों को ISIS से तेल खरीदने वाले टैंकर शायद नज़र नहीं आए। ख़ैर, रूस ने भी अपनी रणनीति में बदलाव किया है और कहा है कि वो ISIS के खिलाफ लड़ाई में साथ आने के लिए तैयार है। फ्रांस, अमेरिका के साथ-साथ अब रूस के विमान भी ISIS पर हमला करने लगे हैं।
मुल्कों के नाम दबा लिये जाते हैं और मज़हब का नाम ज़ोर ज़ोर से लिया जाने लगता है। इसका मतलब यह नहीं कि इस्लामिक स्टेट जैसे खतरनाक आतंकी संगठन में लोग इस्लाम के नाम पर नहीं गए। ब्रिटेन, फ्रांस, बेल्जियम से मुस्लिम नौजवान क्यों गए और यह सवाल भी पूछिये कि इतने चाक चौबंद यूरोप से कोई निकल कर इस्लामिक स्टेट की आतंकी सेना में भर्ती कैसे हो जाता है। रूस का एक सरकारी और पहला अंग्रेजी न्यूज चैनल है आरटी, जो 100 मुल्कों में प्रसारित होता है और दुनिया की घटनाओं को रूसी नज़रिये से पेश करता है। इस चैनल से बात करते हुए सीराया के मुफ्ती अहमद बदरुद्दीन हासौन ने कहा है कि इस्लामिक स्टेट कोई धार्मिक युद्ध नहीं लड़ रहा है। विशुद्ध रूप से राजनीतिक लड़ाई है। इस्लाम को मानने वाला ऐसी भयावह बर्बरता कर ही नहीं सकता है। इसमें शामिल दो तरह के लड़ाके हैं। एक जो इस्लाम के बारे में जानते ही नहीं हैं और दूसरे जिन्हें कुछ पता तो है मगर वे हत्या, बर्बरता के लिए इस्लाम का सहारा लेते हैं। मुफ्ती ने कहा कि हम सीरीया में क्रिश्चियन स्टेट, यहूदी या मुस्लिम स्टेट की बात नहीं करते हैं। ये सारे विचार हम पर पश्चिम से थोपे जा रहे हैं। जो सीराया में हो रहा है वो पहले युगोस्लाविया, क्रोएशिया और बोस्निया में हो चुका है। सीरीया के लोग इस्लामिक स्टेट की सेना में क्यों नहीं जा रहे हैं। फ्रांस, ब्रिटेन और अमेरिका के इस्लामिक सेंटरों में ही ये अतिवादी तैयार हो रहे हैं जिन्हें सऊदी अरब से फंड मिलता है। यूरोप ने ही रेडिकल इस्लाम की विचारधारा को पनपने दिया है। सीरीया में राष्ट्रपति असद को हटाने के लिए गृह युद्ध चल रहा है। असद पर आरोप है कि विरोध को कुचलने के लिए ढाई लाख लोगों को मारा गया है।
राजनीति अगर रूस की है तो अमेरिका की भी है। पिछले साल संयुक्त राष्ट्र में ओबामा ने इस्लामिक स्टेट को इस्लाम से नहीं जोड़ा था। उनका भाषण देखिये तो वो कह रहे हैं कि आईसीएल नाम का एक गुट। लेकिन तुर्की में उन्होंने कह दिया कि पूरी दुनिया के मुसलमानों को, धार्मिक, राजनीतिक नेताओं और आम लोगों को बहुत ही गंभीर सवाल पूछने होंगे कि चरमपंथ की जड़ें कहां हैं। ओबामा ने कहा कि मुस्लिम समुदाय को ये सुनिश्चित करना होगा कि उनके बच्चे इस तरह की कट्टरता की चपेट में न आएं कि वो धर्म के नाम पर निर्दोषों की हत्या कर दें। मुस्लिम समुदाय की ओर से कट्टरता का जितना विरोध होना चाहिए उतना नहीं हो रहा है। वो कहते हैं कि हिंसा ठीक नहीं है लेकिन चरमपंथियों के विचारों को चुनौती नहीं दी गई है।
क्या वाकई मुस्लिम समाज की तरफ से चरमपंथियों के विचारों को चुनौती नहीं दी गई। क्या ओबामा यह कह रहे हैं कि आतंकवाद का धर्म होता है और उसका नाम इस्लाम है। अगर ऐसा है तो इस्लाम के नाम पर आतंक फैलाने वालों को किन देशों से मदद मिल रही है। पुतीन ने जिन 40 देशों की बात कही है क्या वे धार्मिक कारण से आतंकवादी सेना की मदद कर रहे हैं या राजनीतिक कारण से। इस्लामिक स्टेट के हमले के कारण यूरोप में एक बार फिर से इस्लामोफोबिया की धारा प्रबल हो गई है।
इस्लामोफोबिया मतलब इस्लाम के प्रभाव और प्रसार को लेकर तरह तरह के डर का वातावरण फैलाना या फैल जाना। सवाल यूरोप के समाज और उसकी संस्थाओं पर भी उठ रहे हैं कि क्या मुसलमान मुख्यधारा में शामिल हैं या अलग-थलग कर दिये गए हैं। 2009 में स्वीटज़रलैंड में मस्जिद को मीनार बनाने की इजाज़त होनी चाहिए या नहीं इसी को लेकर जनमत संग्रह हो गया था और वहां की जनता ने नकार दिया था। 2010 में फ्रांस में बुर्का बैन किया गया है। एम्सटरडम में 2004 में डच फिल्मकार थियो वान गाग की एक मुस्लिम नौजवान ने हत्या कर दी थी। जर्मनी के कोलोन शहर में यूरोप की सबसे बड़ी मस्जिद के निर्माण को लेकर तनाव हो गया था।
दबी ज़ुबान में यह भी कहा जाता है कि तुर्की को यूरोपीय यूनियन में इसलिए शामिल नहीं किया गया क्योंकि वो ईसाई सभ्यता का हिस्सा नहीं है। असहजता के उदाहरण हैं लेकिन क्या ये असहजता अलगाववाद की हद तक है कि मुसलमान यूरोप के समाज में खुद को अलग-थलग पाता है। क्या इस्लामिक स्टेट के लिए जो आतंकवादी बन रहे हैं वो फ्रांस, ब्रिटेन के समाज में मौजूद अलगाववाद के कारण है। क्या ये बात इतनी आसानी से कही जा सकती है।
इसी साल फरवरी में नॉर्वे की राजधानी ओस्लो में 1000 मुसलमानों ने यहुदियों के पूजा स्थल सिनेगाग के चारो तरफ मानवघेरा बनाया था। वे डेनमार्क के सिनेगाग में दो यहुदियों की हत्या का विरोध कर रहे थे। जबकि नॉर्वे में 1000 यहूदी हैं और डेढ़ से दो लाख के करीब मुसलमान। पर 2011 में नॉर्वे की सरकार पर आरोप लग चुका है कि वो मुसलमानों का तुष्टीकरण कर रही है। शरणार्थियों को पनाह देकर ख़ून में मिलावट कर रही है। जनवरी 2011 में इजिप्ट में मुसलमानों ने एक चर्च के चारो तरफ घेरा बना लिया ताकि अल्पसंख्यक ईसाई इबादत कर सकें। मुसलमान अलेक्ज़ेंड्रिया में चर्च पर हुए हमले का विरोध कर रहे थे। हम साथ जीयेंगे हम साथ मरेंगे के नारे लगे थे। यही नहीं, जब काहिरा में मुस्लिम प्रदर्शनकारियों ने नमाज़ पढ़ना शुरू किया तो ईसाई समुदाय के लोगों ने मानव घेरा बना लिया था।
भारत में भी हिन्दू मुस्लिम एकता के ऐसे असंख्य उदाहरण हैं फिर भी तनाव और टकराव एक हकीकत है। ओबामा के बयान के संदर्भ में आपको दिसंबर 2013 की तस्वीर बताता हूं। दिल्ली के रामलीला मैदान में एक लाख मुसलमानों के आने का दावा किया गया था। जमीयत उलेमा हिन्द के आहवान पर इस सम्मेलन में ब्रिटेन, नेपाल, बांग्लादेश, म्यांमार, मालदीव, पाकिस्तान, श्रीलंका से 200 से अधिक उलेमा ने हिस्सा लिया और आतंकवाद के खिलाफ फतवा जारी किया था। अगस्त 2015 में बरेली के दरगाह आला हज़रत की तरफ से मदरसों में पढ़ने वाले छात्रों के लिए इस्लाम और आतंकवाद का विषय शुरू किया गया है। दरगाह आला हज़रत की तरफ से एक फतवा आया है कि जो भी आतंकवाद से जुड़ा होगा उसके लिए नमाज़े जनाज़ा नहीं होगा।
पिछले साल सितंबर महीने में जर्मनी के सेंट्रल काउंसिल ऑफ मुस्लिम के चेयरमैन ने मुसलमानों से आग्रह किया था कि वे आतंकवाद और हत्या के खिलाफ खुलकर बोलें। 2014 के सितंबर में ही दुनिया भर के 120 इस्लामिक विद्वानों ने इस्लामिक स्टेट को अरबी में खुला पत्र लिखा था। पत्र लिखने वालों में भारत से जमीयत उलेमा हिन्द के सेक्रेटरी जनरल असद मदनी भी शामिल हैं। 18 पन्नों के इस पत्र में इस्लामी स्टेट की विचारधारा की धज्जी उड़ाई गई है और इस्लाम के खिलाफ बताया गया है। इन्हीं सब बातों के संदर्भ में प्राइम टाइम में बात करेंगे कि क्यों पश्चिम पुतिन के आरोप पर चुप है, क्या ओबामा ने वो बात कह दी है जो कोई नहीं कह पा रहा था या वो कह दिया जिसकी ओट में कोई यह नहीं पूछेगा कि क्या आपकी गलतियों की पैदाइश है ये आतंकवादी संगठन। बहुत सारी कंसपिरेसी थ्योरी है। हम भी थेथर हैं हर थ्योरी पर बात करेंगे प्राइम टाइम में।
This Article is From Nov 17, 2015
प्राइम टाइम इंट्रो : IS को कौन-कौन दे रहा है बढ़ावा?
Ravish Kumar
- ब्लॉग,
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Updated:नवंबर 18, 2015 13:26 pm IST
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Published On नवंबर 17, 2015 21:20 pm IST
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Last Updated On नवंबर 18, 2015 13:26 pm IST
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