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This Article is From Jan 08, 2015

प्राइम टाइम इंट्रो : धर्म की आलोचना की सीमा क्या हो?

Ravish Kumar, Rajeev Mishra
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  • Updated:
    जनवरी 08, 2015 21:41 pm IST
    • Published On जनवरी 08, 2015 21:32 pm IST
    • Last Updated On जनवरी 08, 2015 21:41 pm IST

नमस्कार मैं रवीश कुमार। पेरिस की घटना ने हमें फिर से उन सवालों के सामने पहुंचा दिया है जिसका जवाब तो हम जानते हैं मगर हर बार वो जवाब कुछ कम पड़ जाता है। इन सवालों के नाम हर बार अलग होते हैं। कभी अभिव्यक्ति की आज़ादी का सवाल, भावनाओं के आहत होने के सवाल, उदारता और सहनशीलता पर सकंट के सवाल, उकसाने से लेकर आदर के सवाल।

ये वही सवाल थे जिनके हक में पेरिस और लंदन की सड़कों पर घटना के तुरंत बाद ही हज़ारों लोग सड़क पर उतर आए। जो नहीं उतर सके वो अपने-अपने मुल्कों में ट्वीटर पर उतर आए और मैं शार्ली हूं वायरल हो गया। बड़ी संख्या में लोगों ने ख़ुद को शार्ली के बनाए कार्टून से जोड़ लिया। घटना से आहत लोगों ने हत्या की निंदा भी की। कुछ लोग कार्टून का समर्थन कर रहे थे तो कुछ कार्टून की भी निंदा कर रहे थे। कुछ यह कह रहे थे कि अगर ये कार्टून खराब थे तो इन्हें नज़रअंदाज़ भी किया जा सकता था। निंदा करने वालों में वे भी शामिल थे जो अपने धार्मिक प्रतीकों के खिलाफ शार्ली एब्दो जैसे कार्टून कत्तई बर्दाश्त नहीं करते।
मानहानि का मुकदमा करने वालों से लेकर ट्वीटर फेसबुक पर ब्लॉग करने वाले भी निंदा कर रहे थे। मैं भी ब्लॉग करता हूं। सवाल उठा कि अभियव्यक्ति की आज़ादी कहां तक तो यह भी कहा गया कि सीमा क्यों तय हो। क्यों नहीं, जहां तक मन करे वहां तक।

आज ही इस्लामाबाद के पास तक्षशिला में ईशनिंदा के एक आरोपी की अदालत से रिहाई के बाद हत्या कर दी गई। उसे कब्रिस्तान तक में जगह नहीं मिली। लिहाज़ा अपने ही घर में दफनाना पड़ा। मानसिक रूप से बीमार यह व्यक्ति खुद को पैगंबर बता रहा था। भारत के मशहूर चित्रकार मकबूल फिदा हुसैन के साथ क्या हुआ आप जानते हैं। पीके से लेकर विश्वरूपम फिल्मों के विरोध के कारण हमारे सामने हर दूसरे महीने यह समस्या खड़ी हो जाती है। किसी रचना या फिल्म का विरोध बिल्कुल जायज़ लोकतांत्रिक तरीका है, लेकिन प्रदर्शन रोकना, किताबें जलाना या प्रतिबंध की मांग घोर नाजायज़।

इस घटना के बहाने इस्लाम को लेकर दूसरे धर्मों के कट्टरपंथी सक्रिय हो गए। कल जब लोग मरने वालों के बारे में सोच रहे थे ये सवाल कर रहे थे कि कितने मुस्लिम देशों ने इसकी निंदा की है। खैर अरब देशों से लेकर पाकिस्तान तक ने की है। पता नहीं ब्लास्फेमी यानी ईशनिंदा के कारण फांसी और गोली मारने वाले मुल्क पाकिस्तान की निंदा से हासिल क्या हुआ। फ्रांस में 250 मुस्लिमों की एक प्रतिनिधि संस्था है उसने भी इस घटना की निंदा की है।

तारिक रमज़ान नाम के एक मुस्लिम विचारक ने लिखा है कि पैंगबर का बदला नहीं लिया गया है बल्कि हमारे मज़हब और उसके उसूलों से धोखा हुआ है।

हमारे सहयोगी असीम ने एनडीटीवीडॉटकाम पर लिखा है कि इस्लाम के अपमान के नाम पर भड़कने वाले हर मुसलमान को खुद से यह सवाल करना चाहिए कि खुद पैगंबर ऐसी स्थिति में क्या करते। हर बच्चे को बचपन से ही पढ़ाया गया है कि आलोचना और गालियों को लेकर पैगंबर मोहम्मद कितने सहनशील थे। पैगंबर मोहम्मद के विवादास्पद कार्टून तो पत्रिका कई सालों से बना रही है। दफ्तर पर हमला भी हुआ और विरोध प्रदर्शन भी। लेकिन बात यहां तक कभी नहीं पहुंची। यह साफ नहीं है कि आईसीसी आतंकी संगठन बगदादी के कार्टून छापने के कारण हत्या तो नहीं की गई है।

शार्ली एब्दो में इस्लाम से लेकर ईसाई यहूदी धार्मिक प्रतीकों के खिलाफ भी कार्टून बने हैं। बहस के दायरे में कार्टून और कार्टून बनाने की मंशा भी है। फ्रांस में 70 का दशक युवाओं के बगावत का दशक था। इस दौर में धर्म विरोधी व्यंग्य भी किए गए। यह पत्रिका उसी दौर और मानसिकता की पैदाइश है। किसी ने लिखा है कि अब कोई इस पत्रिका को नोटिस भी नहीं लेता है। क्योंकि आज का फ्रांस काफी बदल गया है। फिर भी कार्टून को लेकर कई तरह की राय है। कई लोग कार्टून को फूहड़ और उकसाऊ मानते हैं। ट्वीटर फेसबुक पर वायरल होने के बाद भी कई बड़े अखबारों ने कार्टूनों को नहीं छापा है। पर कार्टून का विरोध करने वाले हत्या की भी उतनी ही निंदा कर रहे हैं।

जैकब केनफिल्ड ने लिखा है कि शार्ली एब्दो के कार्टून भयंकर रूप से नस्ली, लिंगभेदी और अंधराष्ट्रवादी रहे हैं। न्यूयार्क टाइम्स में रॉस डाउथैट ने लिखा है कि कोई समाज कितना उदार है इससे पता चला है कि उसमें ईशनिंदा सहन करने की कितनी क्षमता है। अभिव्यक्ति की आज़ादी के लिए ज़रूरी है कि हम ठेस पहुंचाने की आज़ादी को भी स्वीकार करें। इसीलिए कार्टून खराब होने के बाद भी ईशनिंदा के अधिकार का बचाव करना ज़रूरी है क्योंकि अगर कुछ लोग कुछ कहने पर मार सकते हैं तो वो बात कही जानी चाहिए। वर्ना जो हिंसक है उसका लिबरल आर्डर पर वीटो बन जाएगा। लेकिन यह भी नहीं हो कि उकसाने के लिए ही बात लिखी जाए और लोग भड़क जाएं तो आज़ादी का कवर लेने लगे। मगर कोई बंदूक तानेगा तो कहने की आज़ादी का बचाव करना ही पड़ेगा। आज़ादी और सहिष्णुता के मामले में फ्रांस की दुनिया में अलग जगह है। वहां ये घटना हुई है। ऐसी घटनाओं को अभिव्यक्ति की आज़ादी तक ही सीमित रखें या हम यह भी देखें कि क्यों हर धर्म में कट्टरपंथी तत्व बढ़ते जा रहे हैं। क्यों असहिष्णुता बढ़ रही है। क्यों फ्रांस के नौजवान अलकायदा और आईसीस के लिए काम करने जा रहे हैं। क्यों आतंकवाद पर हम काबू नहीं पा रहे हैं। अगर सारे कारण धार्मिक ही हैं तो पेशावर में बच्चों को मारने वाले तो अलग मज़हब के नहीं थे।

अभिव्यक्ति की आज़ादी सिर्फ धार्मिक पागलनपन के कारण संकट में नहीं है। सरकार, सेना, पूंजीपती और कई बार मीडिया के कारण भी संकट में है। पेरिस की घटना से हम किन सवालों से मुख्य रूप से टकरा रहे हैं। आखिर धर्म के नाम पर हम इस पागलपन से कैसे निपटें। क्या धर्म का अनादर कर या अभिव्यक्ति की सीमा तय कर। क्या हम धर्म के लिए आलोचना की जगह बनाने में नाकाम रहे हैं। प्राइम टाइम।

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