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This Article is From Sep 07, 2015

मिलेनियम सिटी गुड़गांव का मज़दूरी लूट सूचकांक

Reported By Ravish Kumar
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    सितंबर 07, 2015 21:36 pm IST
    • Published On सितंबर 07, 2015 21:17 pm IST
    • Last Updated On सितंबर 07, 2015 21:36 pm IST
फर्ज़ कीजिए कि आप किसी शहर में नौकरी करने जाते हैं। किराये का घर लेते वक्त मकान मालिक एक शर्त रखता है कि आप उसी की दुकान से ख़रीदारी करेंगे और वो जो दाम तय करेगा वही चुकाएंगे। ये आप भी कई प्रकार के हो सकते हैं। आप में से कुछ आप बहुत अमीर होंगे। आप में से कुछ ठीक ठाक कमाते खाते होंगे और आप में बहुत सारे आप रोज़ की कमाई से अपना पेट भरते होंगे। जो अमीर आप होंगे या जो ठीक ठाक कमाने खाने वाले आप होंगे उन्हें तो बिल्कुल बर्दाश्त नहीं होगा। उन्हें इस इंडिया पर शेम होने लगेगा और प्राउड फील करने पर अफसोस होगा। लेकिन आप में से जो बहुत आप हैं जो कमज़ोर हैं वो क्या करेंगे। वो कुछ बोलेंगे भी तो क्या आप उनका साथ देंगे।

पिछले हफ्ते मज़दूरों की हड़ताल के दिन मैं गुड़गांव गया था। इस लड़के ने कैमरे की तरफ अपनी पीठ करते हुए बताया कि मकान मालिक मार्केट रेट तय करता है। हमारे सहयोगी सुशील बहुगुणा कहते हैं कि ये मज़दूर मूल्य सूचकांक है। जैसे थोक या खुदरा मूल्य सूचकांक होता है। यह लड़का बताये जा रहा था कि मकान मालिक की दुकान से सामान नहीं खरीदा तो कमरा खाली करा देगा। जिसके यहां जाएंगे उसके यहां भी यही सिस्टम है। आपने बुधवार को अगर देखा हो तो इस सीन को याद कीजिए। अगर इसका चेहरा दिख जाता तो हमारे लौट आने के बाद इसे कमरा खाली करना पड़ जाता। महीने का अडवांस अलग से देना पड़ता। पार्टनर छूट जाता सो अलग। शोषण की यह व्यवस्था हमारे समाज के भीतर से बनी है। हमारा समाज जाति और आर्थिक आधार पर ज़माने से कमज़ोर लोगों का शोषण करता रहा है। लेकिन एक औद्योगिक इलाके में मज़दूरों को चीनी का रेट 12 रुपया प्रति किलो ज़्यादा देना पड़े तो आप क्या कहेंगे। ग़ुलामी या काला पानी।

जिन मज़दूरों को न्यूनतम मज़दूरी नहीं मिलती है उनसे अधिकतम दाम वसूले जा रहे हैं। जब यह रिपोर्ट चल रही थी तब ट्वीटर पर कुछ लोग अपनी पसंद की पार्टी की पहरेदारी करने आ गए। इस लिहाज़ से उन्हें बुरा लगा कि ये सच तो है लेकिन इस सच को पहले क्यों नहीं दिखाया। शायद मुझे पैदा होने से पहले ही दिखा देना चाहिए था।
 
वैसे 2010 के साल में गुड़गांव के उद्योग विहार से लगे दिल्ली के कापसहेड़ा गांव में गया था। सेम से टू सेम कहानी। तब किसी और की सरकार थी और तब अपनी अपनी सरकार की चौकीदारी करने वाले ट्वीटर पर लोग नहीं थे। थे मगर उन्हें भाड़े का पब्लिक नहीं बनाया गया था। 2010 में जब ये सुना कि मकान मालिक की दुकान से ही खरीदना होगा तब सन्न रह गया था।

दाम तो दाम थूकने पर 200 का जुर्माना और बदतमीजी करने की सज़ा अलग। दिल्ली मेट्रो में थूकने का जुर्माना आज 200 रुपया है। 2010 से कापसहेड़ा के मज़दूर थूकने का जुर्माना दे रहे हैं। समय पर किराया न देने का भी जुर्माना तय है। लास्ट डेट तक नहीं दे पाए तो 100 रुपया जुर्माना। हमें कई जगहों पर जुर्माना वसूलने की हिदायत नज़र आई थी। इतना जुर्माना तो सरकार भी नहीं वसूलती होगी। वैसे महाराष्ट्र सरकार ने इस साल एक कानून बनाया है। अगर आप सार्वजनिक स्थलों पर थूकते हुए पहली बार पकड़े गए तो हज़ार रुपये का फाइन देना होगी और एक दिन सज़ा के तौर पर सामुदायिक सेवा करनी होगी। दूसरी बार गलती करने पर तीन हज़ार का जुर्माना देना होगा और तीन दिन की सेवा देनी होगी। यही नहीं 2010 में कापसहेड़ा में एक कपड़ा प्रेस कराने पर ढाई रुपये देना होता था। उस समय ये रेट भी ज़्यादा था।

2010 से लेकर 2015 के बीच क्या बदला आप देख रहे हैं। आप इसे राजनीतिक दल के हिसाब से देखेंगे तो मैं बंगाल से लेकर गुजरात, पंजाब तक से ऐसी रिपोर्ट दिखा दूंगा। मकान मालिक आज भी अपनी दुकान से अधिक दाम पर सामान खरीदने के लिए बिहार, यूपी और उड़ीसा के बेआवाज़ मज़दूरों को मजबूर कर रहे हैं। वैसे बेआवाज़ तो पूरी दिल्ली है। दिल्ली की झुग्गियों में और मकानों में मकान मालिक किरायेदार से दस रुपये प्रति यूनिट तक बिजली के लिए चार्ज करते हैं। हमें शोषण की इतनी आदत हो गई है इसका गुस्सा हिन्दू मुसलमान के नाम पर एक दूसरे पर निकाल देंगे लेकिन सही चीज़ों के लिए आवाज़ नहीं उठायेंगे। इस बार हमने सोचा कि इसे ठीक से रिपोर्ट किया जाए। मेरी रिपोर्ट में जो कमी रह गई थी उसे पूरी करने के लिए परिमल गुड़गांव गए।

धोती लुंगी में परिमल को देखकर आप ये न सोचें कि ये भारतीयता पर कोई लेक्चर देने निकले हैं। बल्कि ये बताने निकले हैं जिस भारतीयता के नाम पर हम स्टेडियम सजा देते हैं वो दरअसल किस भारतीय के लिए है समझना मुश्किल भी नहीं है। वैसे धोती में रिपोर्टर का आइडिया लेकर कोई नेता पत्रकारिता में भारतीयाता कायम करने की नौटंकी से वोट जीत सकता है और परिमल का ये आइडिया किसी चुनाव में काम आ सकता है। खैर परिमल का मकसद था कि मज़दूर बनकर निकला जाए। बैग में कैमरा लगाया और फिर रिकॉर्ड किया। वे किराये का मकान खोजने लगे। साथ में दुकान भी मिलने लगा। मैं किन्हीं ख़ास कारणों से ये नहीं कर सका। शायद इन जगहों पर दुबारा जाने से पहचाने जाने का ख़तरा था। परिमल ने तय किया है कि जिस भी मज़दूर से बात करेंगे कि उसका चेहरा टीवी पर नहीं दिखायेंगे। मकान मालिक का चेहरा ज़रूर दिखायेंगे। परिमल जिन कहानियों के साथ लौट कर आए हैं उनसे आपको हैरान होना चाहिए। हैरान नहीं हो सकते तो कम से कम शर्मसार तो होना ही चाहिए। शर्मसार भी नहीं हो सकते तो ये चैनल बंद कर आपको कोई सीरियल देखना चाहिए। 2010 से 2015 के बीच कुछ नहीं बदलता है। क्या आप कोई उम्मीद पाल सकते हैं कि इस बार बदल जाएगा।

हिन्दुस्तान की पूरी सरकार इस बात का दावा करती है कि महंगाई कम हो गई है। अच्छी बात है। होनी भी चाहिए। लेकिन आपके ही मुल्क का वो हिस्सा क्यों अधिक दाम पर चीज़ें खरीद रहा है। वो बिहार यूपी से कमाने आया है। क्या उसका काम इतना ही है कि रैली में बुलाया जाए, उससे ताली बजवाई जाए और फिर घर लौटते ही उसके सामान की तालाशी ली जाए कि कहीं उसने सस्ती दरों पर सामान तो नहीं ख़रीद लिया है।

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