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This Article is From Dec 22, 2016

प्राइम टाइम इंट्रो : नेताओं के भाषण और बयान आधारित राजनीति में विचार गायब

Ravish Kumar
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    दिसंबर 22, 2016 22:57 pm IST
    • Published On दिसंबर 22, 2016 21:56 pm IST
    • Last Updated On दिसंबर 22, 2016 22:57 pm IST
हमारे नेता कैसे बात करते हैं. इससे एक-दूसरे का मुकाबला कर रहे हैं या भारत की राजनीति को समृद्ध कर रहे हैं. भारतीय राजनीति बयान आधारित है. हम और आप भी नेताओं का मूल्यांकन हम विचार कम डायलॉगबाजी से ज्यादा करते हैं. इसी पर ताली बजती है, यही हेडलाइन बनती है. टीवी की भाषा भी पत्रकारिता की कम, सीरीयल की ज्यादा हो गई है. इससे आप दर्शकों को बहुत नुकसान है. डायलॉग से मनोरंजन तो हो जाता है मगर राजनीति का स्तर गिर जाता है. ऐसी भाषा हमेशा छल करती है. जितना कहती नहीं है, उससे कहीं ज्यादा सवालों को टाल देती है.

राजनीति वन लाइनर होती जा रही है. बोलने में भी और विचार से भी. सारा ध्यान इसी पर रहता है कि ताली बजी कि नहीं बजी. लोग हंसे की नहीं हंसे. मजा चाहिए, विचार नहीं. इस वक्त बहुत जरूरी है कि नोटबंदी के व्यापक स्वरूप पर गंभीर चर्चा हो. कितनी गंभीर है वही देखेंगे.

राहुल गांधी ने कहा कि उनका जितना मजाक उड़ाना है उड़ाइए, मगर सवालों का जवाब दीजिए. राहुल की एक बात इस हद तक ठीक है कि भारत में एक प्रतिशत लोगों के पास देश की 50 फीसदी से अधिक संपत्ति है. लेकिन यह बात बिल्कुल ठीक नहीं है कि ऐसा सिर्फ प्रधानमंत्री मोदी के कार्यकाल में हुआ. ऐसा यूपीए और उससे पहले एनडीए और उससे पहले की सरकारों के कार्यकाल से होता आ रहा है. इस बढ़ती असमानता पर दुनिया भर के अर्थशास्त्री बात कर रहे हैं, सिर्फ वे अर्थशास्त्री नहीं बात कर रहे हैं जो किसी सरकार के सलाहकार बन जाते हैं या उसकी संस्थाओं के प्रमुख. भारत में भी और दुनिया भर में भी.

बैंकों के आगे खड़ी लाइनों में लोग कहते पाए गए कि अमीर तो दिख नहीं रहा है. जब गरीब या निम्न आय वाले ही ज्यादा हैं तो वही दिखेंगे. देश की आधी से अधिक संपत्ति के मालिक एक प्रतिशत अमीर लाइनों में लगे भी होंगे तो वे संख्या में इतने कम होंगे कि किसी को पता भी न चला होगा. अमरीका के हावर्ड और प्रिंसटन यूनिवर्सिटी के अर्थशास्त्रियों ने एक अध्ययन में पाया है कि राष्ट्रपति ओबामा के कार्यकाल के दौरान जितनी भी नौकरियां पैदा हुईं, उनमें से 94 फीसदी नौकरियां अस्थायी थीं. पार्ट टाइम वाला कम कमाता है और कम समय के लिए कमाता है. अगर राहुल गांधी का मकसद इस असमानता को उभारना है तो शुक्रिया. लेकिन लगता नहीं कि वे इसके सहारे प्रधानमंत्री को निशाना बनाने से ज्यादा कुछ करना चाहते हैं. हकीकत यह है कि मोदी हों या मनमोहन, मोटे तौर पर दोनों एक ही तरह की आर्थिक नीतियों पर चलते हैं जिससे आगे जाकर असमानता ही बढ़ेगी यानी अमीर ही सिर्फ अमीर होता है. कम से कम प्रधानमंत्री और राहुल दोनों ही बताएं कि एक प्रतिशत के पास आधी से अधिक संपत्ति उनकी मेहनत से जमा हुई या गरीबों के नाम पर चुनाव जीतने वाले नेताओं की मेहरबान नीतियों के कारण हुआ.

बीएचयू में प्रधानमंत्री के भाषण पर लोग खूब हंसे. उन्होंने कहा कि मनमोहन सिंह ने कहा कि 50 फीसदी लोग गरीब हैं वहां हम टेक्नालॉजी की बात कैसे कर सकते हैं. अब यह बताइए अपना रिपोर्ट कार्ड दे रहे हैं या मेरा दे रहे हैं. मनमोहन सिंह ने नोटबंदी की आलोचना की है, न कि आनलाइन बैंकिंग की. राज्यसभा में दिए अपने भाषण में उन्होंने कैशलेस लेन देन की कोई आलोचना नहीं की है. टेक्नालॉजी का विरोध नहीं किया है. हिन्दू अखबार में छपे अपने लेख में पूर्व प्रधानमंत्री ने यह जरूर कहा है कि आधी आबादी यानी साठ करोड़ भारतीय ऐसे गांव कस्बों में रहती हैं जहां एक भी बैंक नहीं है जबकि 2001 से अब तक गांवों में बैंक शाखाओं की संख्या दोगुनी हो गई है. आदर्श स्थिति तो यह होती कि जब पूर्व प्रधानमंत्री की आलोचना का जवाब प्रधानमंत्री दे रहे हों तो कम से कम एक दूसरे की बात को सही से कोट करें.

कभी विरोधियों को पाकिस्तान भेजने या पाकिस्तानी से तुलना गिरिराज सिंह जैसे मंत्री करते थे. अमित शाह पाकिस्तान भेज देने की बात करते थे, तब भी प्रधानमंत्री इस बात से बचते थे. लेकिन अब वे भी नोटबंदी का विरोध करने वालों की तुलना आतंकवादियों की मदद करने वाली पाकिस्तानी सेना से करने लगे हैं. जेबकतरा और उसके दोस्त के किस्से के सहारे विरोधियों को जवाब तो दे दिया लेकिन क्या प्रधानमंत्री के लिए यह उचित था. वैसे उन पर भी हमले कम नहीं होते. उन हमलों में भी गरिमा नहीं होती है.

यही नहीं प्रधानमंत्री ने नोटबंदी का विरोध करने वाले दलों के नेताओं के लिए मेले में आए जेबकतरे और उसके साथी का किस्सा सुनाया. कहा कि जब जेबकतरा जेब काटेगा तो उसका साथी दूर खड़ा रहता है. काम खत्म होने पर उधर की तरफ दौड़ता है कि चोर भाग गया, चोर भाग गया. पुलिस उधर भागेगी और जेब कतरा निकल जाएगा. बेईमानों को बचाने के लिए न जाने कितनी तरकीबें अपनाई जा रही हैं.

गांधी जी बहुत अच्छे वक्ता नहीं थे. कम बोलते थे और धीरे-धीरे बोलते थे. हुंकार नहीं भरते थे और फुफकार नहीं मारते थे. अपनी आत्मकथा सत्य के साथ प्रयोग में उन्होंने बोलने पर कुछ कहा है उसका जिक्र करना चाहूंगा. लिखते हैं कि एक बार मैं वेंटनर गया था. वहां मजमुदार भी थे. वहां के एक अन्नाहार घर में हम दोनों रहते थे. वहां अन्नाहार को प्रोत्साहन देने के लिए एक सभा की गई. उसमें हम दोनों को बोलने का निमंत्रण मिला. दोनों ने उसे स्वीकार किया. मैंने जान लिया था कि लिखा हुआ भाषण पढ़ने में कोई दोष नहीं माना जाता. मैं देखता था कि  अपने विचारों को सिलसिले से और संक्षेप में प्रकट करने के लिए बहुत से लोग लिखा हुआ पढ़ते थे. मैंने अपना भाषण लिख लिया. बोलने की हिम्मत नहीं थी. जब मैं पढ़ने के लिए खड़ा हुआ तो पढ़ न सका. आंखों के सामने अंधेरा छा गया और मेरे हाथ-पैर कांपने लगे. मजमुदार का भाषण तो अच्छा हुआ. श्रोतागण उनकी बातों का स्वागत तालियों की गड़गड़ाहट से करते थे. मैं शर्माया और बोलने की अपनी असमर्थता के लिए दुखी हुआ. अपने इस शर्मीले स्वभाव के कारण मेरी फजीहत तो हुई पर मेरा कोई नुकसान नहीं हुआ बल्कि अब तो मैं देख सकता हूं कि मुझे फायदा हुआ है.

उन्हीं के शब्द हैं कि कम बोलने वाला बिना विचारे नहीं बोलेगा, वह अपने प्रत्येक शब्द तौलकर बोलेगा. सत्य के साथ प्रयोग में लिखते हैं कि अक्सर मनुष्य बोलने के लिए अधीर हो जाता है. 'मैं भी बोलना चाहता हूं', इस आशय की चिट्ठी किस सभापति को नहीं मिलती होगी...फिर उसे जो समय दिया जाता है वह उसके लिए पर्याप्त नहीं होता. वह अधिक बोलने देने की मांग करता है और अंत में बिना अनुमति के ही बोलता रहता है. इन सब लोगों के बोलने से दुनिया को लाभ होता है, ऐसा शायद ही हुआ है. पर उतने समय की बर्बादी तो स्पष्ट देखी जा सकती है.

हम जिस दौर में रह रहे हैं उसमें यही मॉडल चल पड़ा है. सोशल मीडिया पर जहां लोग लिखकर बोलते हैं, वहां बोलना बदल गया है. गालियां लिखकर दी जा रही हैं और भाषा हिंसा से भरी हुई है. यह प्रधानमंत्री मोदी की शैली रही है कि जहां भाषण देने गए पहले वहां के प्रतीकों और महापुरुषों को जरूर याद करते थे. अब राहुल गांधी भी करने लगे हैं.

राहुल गांधी प्रधानमंत्री मोदी की टेक्निक इस्तेमाल करने लगे हैं और प्रधानमंत्री लोकसभा चुनाव से पहले अपने विरोधियों की तरह बोलने लगे हैं. पहले उनके विरोधी उनका मजाक उड़ाया करते थे, अब वे भी उड़ाने लगे हैं.

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