वन रैंक वन पेंशन : 35 साल से जारी है लड़ाई

नई दिल्‍ली:

नमस्कार मैं रवीश कुमार, वन रैंक वन पेशन के मुद्दे पर ऐसा कुछ भी नहीं बचा है जो पिछले 35 सालों में नहीं कहा गया हो। कई कमेटियों की रिपोर्ट है और 2009 में सुप्रीम कोर्ट का आदेश है कि इसे लागू करना चाहिए, बल्कि फरवरी 2015 में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि इसे बिना देरी के लागू करना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने बीजेपी को अपना चुनावी वादा भी याद दिलाया। बल्कि बीजेपी ने इसे चुनावी मुद्दा न बनाया होता तो यह मसला लंबे समय के लिए ठंडे बस्ते में चला गया होता।

गोवा में प्रधानमंत्री का उम्मीदवार चुने जाने के बाद 15 सितंबर 2013 को नरेंद्र मोदी की पहली रैली होती है हरियाणा के रेवाड़ी में। बड़ी संख्या में पूर्व सैनिक और रिटायर अफसर इस रैली में नरेंद्र मोदी को सुनने गए थे। मंच पर भी पूर्व सेना प्रमुख वी.के. सिंह, राज्यवर्धन राठौर मौजूद थे। पूर्व सैनिकों की इस रैली में नरेंद्र मोदी ने बचपन में सैनिक स्कूल में पढ़ने और सेना में भर्ती न हो पाने का अफसोस भी साझा किया था।

उन्होंने कहा कि मैं कई सालों से वन रैंक वन पेंशन के बारे में सुन रहा हूं। इसमें दिक्कत क्या है। आज मैं भारत सरकार से पब्लिकली सभी आर्मी के लोगों और पूर्व सैनिकों की ओर से मांग करता हूं कि वो वन रैंक वन पेंशन स्कीम पर व्हाईट पेपर लेकर आएं। मित्रों मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि अगर 2004 में वाजपेयी जी की सरकार बनती तो यह वन रैंक वन पेंशन का मुद्दा जटिल न होता।

वैसे प्रधानमंत्री ने मन की बात में यह नहीं बताया कि 1999 के बीजेपी के मेनिफेस्टो के राष्ट्रीय सुरक्षा के कॉलम में पेंशन से जुड़ी सभी कमियों को दूर करने का वादा किया गया था। फरवरी 2014 में जब यूपीए सरकार ने वन रैंक वन पेंशन लागू करने की घोषणा की तब भी नरेंद्र मोदी ने कहा था कि यूपीए फ्रॉड कर रही है। जब हमारी सरकार आएगी तब हम लागू करेंगे।

एक साल बाद जब इसे लेकर बेचैनी बढ़ने लगी तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने मन की बात में भरोसा दिलाया कि सरकार के भिन्न-भिन्न विभाग इस पर काम कर रहे हैं। मैं जितना मानता था उतना सरल विषय नहीं है, पेचीदा है और चालीस साल से उसमें समस्याओं को जोड़ा गया है। मैंने सरल बनाने की दिशा में सरकार में बैठे हुए सबको रास्ते खोजने पर लगाया हुआ है। पल पल की खबर मीडिया में देना ज़रूरी नहीं होता है। मैं विश्वास दिलाता हूं कि मेरी सरकार वन रैंक वन पेंशन के मसला का हल लाकर रहेगी।

इस मसले पर चंडीगढ़ के संस्करणों में काफी लेख मिले हैं। चंडीगढ़ में सेना के कई रिटायर अफसर रहते हैं इस वजह से भी हो सकता है। प्रधानमंत्री के मन की बात के बाद ट्रिब्यून में सेना के पूर्व वाइस चीफ़ रिटायर लेफ्टिनेंट जनरल विजय ओबराय ने तल्ख़ी भरा लेख लिखा और कहा कि प्रधानमंत्री के इस मुद्दे को पेचीदा बताने और टाइम फ्रेम नहीं देने से यह मुद्दा घूमफिर कर अपनी जगह पर पहुंच गया है। 'हम फुटबाल नहीं है बल्कि देश और समाज के सम्मानित और निष्ठावान नागरिक हैं। यह मसला इसलिए नहीं लटका हुआ है कि जटिल है। पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने पब्लिक में कहा था कि मैं वन रैंक वन पेंशन के हक में हूं मगर नौकरशाह ऐसा नहीं चाहते हैं।

लेफ्टिनेंट जनरल ओबराय ने 2010 में बनी कोश्यारी कमेटी की याद दिलाई। इस कमेटी के अध्यक्ष बीजेपी के सांसद भगत सिंह कोश्यारी थे। कोश्यारी कमेटी ने इस मांग को जायज़ माना था। अगर इस मांग को लागू करने में 9100 करोड़ का खर्चा आता है तो क्या देश अपने जवानों और अफसरों के लिए इतना भार नहीं उठा सकता है।'

लाखों सैनिकों और अफसरों से जुड़ा मामला है ये। जो रिटायर हो चुके हैं और जो अभी सेवा में हैं दोनों के लिए। वन रैंक वन पेंशन को समझना आसान है। 1996 में कोई मेजर जनरल के पद से रिटायर होते हैं और आज कोई लेफ्टिनेंट कर्नल के पद से रिटायर होता है तो हो सकता है कि रैंक में सीनियर होने के बाद भी मेजर जनरल की पेंशन लेफ्टिनेंट कर्नल से कम हो। यह अंतर कई हज़ार का होता है। इसलिए कहा जा रहा है जो जिस रैंक से रिटायर होगा उसे उसी के हिसाब से पेंशन दिया जाएगा।

सैनिकों की इस बेचैनी को रक्षा मंत्री के बयान ने और बढ़ा दिया। उन्हें लगा कि सरकार टालने के मूड में है। 29 मई को पुणे में सैनिकों के एक समारोह में कुछ रिटायर अफसरों ने रक्षा मंत्री के हाथों सम्मान लेने से मना कर दिया। पर्रिकर ने कहा कि मंत्रालय ने सारी औपचारिकता पूरी कर ली है लेकिन प्रक्रिया समय लेती है। लोगों को वित्तीय जटिलताओं का पता नहीं है। मेरे रक्षा मंत्री बने के बाद से ये स्कीम 22000 करोड़ का आंकड़ा छू गई है। 30 मई को पर्रिकर ने कह दिया कि हम कोई तारीख नहीं बता सकते कि कब लागू करेंगे। उन्होंने कहा कि हमने पांच साल के लिए वादा किया था। एक साल के लिए नहीं।

जबकि 2014 में बजट के बाद पर्रिकर ने कहा था कि अगले बजट में वन रैंक वन पेंशन लागू हो जाएगा। इस बयान से नाराज़गी इतनी बढ़ी कि प्रधानमंत्री को अपने मन की बात में सफाई देनी पड़ी। इसके बाद भी सैनिक 14 जून को अपनी इस मांग को लेकर व्यापक प्रदर्शन की योजना पर कायम हैं।

फरवरी 2014 में यूपीए ने 500 करोड़, वित्त मंत्री अरुण जेटली ने अपने पहले बजट में 1000 करोड़ और अब 8300 करोड़ दिये जाने की बात हो रही है। उन 1500 करोड़ का क्या हुआ पता नहीं है। प्रधानमंत्री ने भी मन की बात में कहा है कि हर बात की रनिंग कमेंट्री नहीं की जा सकती है। वैसे इस लड़ाई को लड़ते हुए 35 साल हो गए। सैनिकों के लिए वन रैंक वन पेंशन लागू करने वाले सुप्रीम कोर्ट को अपने जजों के लिए भी वन रैंक वन पेशन की समस्या से जूझना पड़ा था।

अप्रैल 2014 में तत्कालीन चीफ जस्टिस पी सदाशिवम ने फैसला दिया था कि हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जजों के रिटायर होने के बाद सब को समान सुविधा मिलनी चाहिए। इस आधार पर अंतर नहीं होना चाहिए कि कोई नीचली अदालत से प्रमोट होकर हाईकोर्ट तक पहुंचा है। कौन कहां से चलता हुआ जज बना है इस आधार पर भेदभाव नहीं होना चाहिए। ऐसा करना संविधान की धारा 14 और 16(1) का उल्लंघन होगा। संवैधानिक पदों पर बैठे लोगों में वन रैंक वन पेंशन का नियम होना ही चाहिए।

सेना को वन रैंक वन पेंशन के करीब पहुंचते देख 6 अर्धसैनिक बल भी वन रैंक वन पेंशन की मांग करने लगे हैं। मुझे पता चला कि हाल फिलहाल तक सीआरपीएफ को कोई जवान घायल हो जाता था तो अस्पताल में भर्ती होने पर छुट्टी कट जाती थी। अब जाके इसे ड्यूटी माना गया है। लेकिन अर्धसैनिक बलों की इस मांग से सेना के कुछ हलकों में नारजगी देखी जा रही है।

2 जून के हिन्दुस्तान टाइम्स के चंडीगढ़ संस्करण में रिटायर लेफ्टिनेंट जनरल हरवंत सिंह ने लिखा है कि केंद्रीय पुलिस बल खुद को अर्धसैनिक बल मानकर वन रैंक वन पेंशन की मांग करने लगे हैं। हरवंत सिंह के अनुसार भारत में असम राइफल्स और राष्ट्रीय राइफल्स, बीएसएफ सीआरपीएफ कोई अर्धसैनिक बल नहीं है। एक और अंतर बताया है कि 85 फीसदी सैनिक 35-37 साल की उम्र में रिटायर होते हैं जबकि पुलिस वाले 60 साल की उम्र में।

रिटायर लेफ्टिनेंट हरवंत सिंह ने यह भी लिखा है कि पुलिस बल के जवान इसलिए मारे जाते हैं क्योंकि उनकी ट्रेनिंग ख़राब होती है। उनके पास लड़ने के ठीक उपकरण नहीं है। बीएसएफ को बताना चाहिए कि उनके रहते तीन करोड़ बांग्लादेशी कैसे भारत में घुस आए। हरवंत सिंह ने यह भी कहा कि प्याज़ की तुलना सेब से नहीं की जानी चाहिए। कारण जो भी हो अर्धसैनिक बलों का योगदान इतना भी कम नहीं है कि उन्हें सेब की तुलना में प्याज़ बताया जाए। लेफ्टिनेंट हरवंत सिंह को इस तुलना से बचना चाहिए था।

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एक सवाल तो इसी पर है कि सेना की मांग को पूरा करना सरकार के लिए आसान है या नहीं। क्या हमारे सैनिक सरकार को कुछ वक्त देने के लिए तैयार हैं। अर्ध सैनिक बलों की मांग पर भी बात करेंगे। दो ही मेहमान हैं हम आराम से बात करेंगे।