नमस्कार... मैं रवीश कुमार। विश्लेषणों की बहार आई हुई है। सलाहों और शिकायतों का पुलिंदा तैयार है। हर चुनाव अपने साथ ऐसे फैसले लेकर आता है कि समाजशास्त्री अपनी ही कॉपी को दोबारा पढ़ने लगते हैं। 16 मई 2014 के ऐतिहासिक दिन के बाद लगा था कि भारत की राजनीति एकमुखी होती चली गई है, लेकिन 10 फरवरी 2015 को लग रहा है कि बहुमुखी बने रहने की अभी तमाम संभावनाएं मौजूद हैं।
चले चलो का नारा इतनी जल्दी चला चली के बेरा में बदल जाएगा किसी ने सोचा नहीं था। दिल्ली की 54.3 फीसदी जनता मोदी को छोड़ अरविंद केजरीवाल के साथ चल दी। इतनी तेज़ चलने लगी कि कांग्रेस उनकी चाल ही नहीं पकड़ पाई और सिर्फ 3 लोग बीजेपी के मोदी के साथ चल पाए। अरविंद केजरीवाल या आम आदमी पार्टी ने भी नहीं सोचा था कि 67 सीटें आएंगी। लोकसभा चुनाव के बाद बीजेपी कांग्रेस पर हंसा करती थी कि नेता विपक्ष के लायक भी उन्हें सीट नहीं मिली।
प्रशांत भूषण ने कहा कि बीजेपी के अहंकार का जवाब दिल्ली में इस तरह से मिला है कि उनके पास नेता विपक्ष के लायक संख्या नहीं बची है। कुमार विश्वास ने एक अच्छी बात यह कही है कि संख्या चाहे जितनी हो हम नेता विपक्ष का पद देंगे।
एक परिपक्व और स्वस्थ्य लोकतंत्र में यही होना चाहिए। सामने एक ही सदस्य विपक्ष का हो तो उसे नेता विपक्ष माना जाना चाहिए। अगर संविधान की कोई धारा ऐसा करने से रोकती भी है तो उसे बदल देना ही उचित है। क्योंकि यह चिन्ता वाजिब है कि विपक्ष के बिना कहीं आप सरकार बेलगाम न हो जाए। इसलिए आज अरविंद केजरीवाल बार-बार उस अहंकार के खतरों का ज़िक्र भी करते रहे।
एक नई पार्टी ने इस वक्त भारत की राजनीति के सबसे ताकतवर नेता और हर तरह के हथियारों से लैस संगठन को हराया है। इतिहास इस घटना को सिर्फ हार जीत के लिए याद नहीं रखेगा। हमारी सहयोगी मनिका राइकवार ने एक बात कही कि यह कम बड़ी बात नहीं है कि दिल्ली शहर ने नाराज़गी के बाद भी केजरीवाल को दोबारा मौका दिया है।
इस जनमत के सम्मान का यही तरीका है कि उम्मीद से ज्यादा काम करके दिखाना होगा। सब दिल्ली की जनता के इस फैसले के आगे नतमस्तक हैं। इस जीत के बहाने आज कई तरह के उद्गार भी सामने आ रहे हैं जो कई ज्ञात अज्ञात भय के कारण दबे पड़े थे। इस जीत में देश के वह लोग भी शामिल हो गए हैं जो आम आदमी पार्टी की तमाम नीतियों से सहमत नहीं है। बीजेपी ने इस हार को बेहद विनम्रता से स्वीकार कर लिया है।
मोदी लहर है या मिट गई इस बहस को तो शंकराचार्य और मंडन मिश्र भी नहीं निपटा सकते हैं। मोदी का नाम नहीं चला, मगर लोगों ने कहा कि यह जनादेश विपक्ष चुनने के लिए था। ओबामा का राजपथ पर चलना काम नहीं आया तो जाति धर्म की राजनीति का विरोध करते करते राम-रहीम से समर्थन मांग लेना लोगों को हैरान कर गया। जो बीजेपी तीन चार महीने तक हर चुनाव सधे तरीके से लड़ रही थी और जीत रही थी वो इतनी गलतियां कैसे करती गई। पर ऐन वक्त पर हर खाते में पंद्रह लाख देने के वादे को जुमला कह देने के अमित शाह के आत्मविश्वास को जनता शायद नहीं पचा पाई।
लंदन के अखबार टेलीग्राफ ने एक लेख लिखा है कि तीस साल के इतिहास में भारत के सबसे ताकतवर प्रधानमंत्री अपने नाम की धारी वाले नीले सूट के कारण तो नहीं हार गए, जिस मोदी लहर के सामने दूर दूर तक कोई नज़र नहीं आ रहा था आज उसके सामने एक नई लहर पैदा हो गई है।
टेलीग्राफ ने लिखा है अपने नाम के इस सूट को पहनने के साथ ही त्यागी और भुक्तभोगी वाली छवि जनता के दिमाग से उतर गई। जैसे ही यह बात पब्लिक हुई कि इस सूट का कपड़ा लंदन से बनकर आया है और दस लाख का है, मोदी समर्थक भी सन्न रह गए। राहुल गांधी ने इसे मुद्दा तो बनाया लेकिन आम आदमी पार्टी इससे बचकर निकल गई कि कहीं चुनाव व्यक्तिवादी न हो जाए। यह और बात है कि राहुल जहां जहां रोड शो करने गए वहां कांग्रेस तीसरे नंबर पर पहुंच गई।
चेतन भगत ने भी ट्वीट किया है कि सूट वाली बात जनता को पसंद नहीं आई। इस हार से यह बात भी उभर कर आई कि संगठन के लिए बेजोड़ और अचूक माने जाने वाले अमित शाह ने छह महीने में राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक भी नहीं बुलाई है। जबकि नियम के अनुसार तीन महीने में एक बैठक होनी ही चाहिए।
फिर भी विदेश नीति से लेकर कई मामलों में बेहतर कर रही मोदी सरकार को अपनी नाक के नीचे ऐसी हार क्यों देखनी पड़ी। इस एक हार से क्या बीजेपी में सिर्फ कमज़ोरियों को ही देखा जाना उचित है? क्या इससे पहले की जीत की खूबियां मिटा दी जाएंगी?
आम आदमी पार्टी की खूबियों पर भी ध्यान देना चाहिए कि आखिर तीस हज़ार वॉलेंटियर्स की पार्टी ने विज्ञापन से लेकर भाषण तक में माहिर प्रधानमंत्री को चुनौती कैसे दे दी। क्या आपको याद है कि इतने कम खर्चे में किसी पार्टी ने इतने अधिक पैसे वाली पार्टी को हरा दिया हो।
आप की जीत भावुकता तो पैदा करती है, मगर जीत के इन्हीं क्षणों में दिल्ली के लोगों की उस तकलीफ को भी याद करना चाहिए, जिसे वह रोज़ भुगत रहे हैं। जिनकी दुनिया में पानी और बिजली नहीं है उन्हें न जाने किस वर्ल्ड क्लास सिटी का सपना दिखाया जा रहा है।
क्या संगम विहार या संजय कॉलोनी की इन गलियों में टोक्यों की बुलेट ट्रेन दौड़ेगी, जहां एक महिला पानी के इस ड्रम को अपने पैरों से धकेल धकेल कर घर तक ले जाती है और दो-दो दिनों तक पानी का इंतज़ार करती है। क्या दिल्ली के किराड़ी के इन मकानों में आप मेलबर्न ठूंस देंगे जिनके घर बिना बाढ़ के डूब गए हैं।
साठ लाख से ज्यादा लोग जिस दिल्ली में रहते हैं, उन्हें देखने के लिए ल्युटियन दिल्ली के मोह से निकलना होगा। ल्युटियन दिल्ली ने देश के सामने एक ऐसी दिल्ली की मार्केटिंग की है, जहां सिर्फ राजपथ दिखाया जाता है जिस पर अमरीका से लाई गई आठ करोड की बीस्ट कार से महाबली बराक उतरते हैं। पांच करोड़ की कार से प्रधानमंत्री मोदी आते हैं।
यही सवाल है कि क्या आम आदमी पार्टी और केंद्र की सरकार मिलकर इस दिल्ली को बुनियादी सुविधाएं दे पाएंगी। जहां लोगों के पास घर और कार तो है मगर शौचालय नहीं है। आपने कहीं ऐसा देखा है कि घर में कूलर है, एसी है, स्मार्ट फोन है मगर शौचालय नहीं है। इसके लिए आपको मैड्रिड या मॉस्को जाने की ज़रूरत नहीं है, मदनपुर खादर चले जाइये।
अगर दिल्ली ने अपने विकास का मॉडल नहीं बदला तो 16 मई और 10 फरवरी की तमाम ऐतिहासिकता बेकार है। ये ऐतिहासिकता भी इतिहास के कूड़ेदान में भुला दी जाएगी। यह और बात है कि शहर में न तो पर्याप्त कूड़ेदान हैं, न उठाने के लिए कर्मचारी। यह भी देख आइये कि जो लोग नालों से कचरा निकालते हैं, वह किन बीमारियों के शिकार होकर मर जाते हैं। चुनाव इतिहास बनाने का कारखाना है तो आज इस कारखाने में इतिहास का कौन सा उत्पाद बनकर तैयार हुआ है, प्राइम टाइम।
This Article is From Feb 10, 2015
दिल्ली की सियासत में आप का डंका
Ravish Kumar, Saad Bin Omer
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Updated:फ़रवरी 10, 2015 22:52 pm IST
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Published On फ़रवरी 10, 2015 21:04 pm IST
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Last Updated On फ़रवरी 10, 2015 22:52 pm IST
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