अमेरिका में मीडिया हार गया है. एंकरों और संपादकों की ज़मानत ज़ब्त हो गई है. वे चुनाव तो नहीं लड़ रहे थे, लेकिन हिलेरी क्लिंटन के लिए दिन-रात एक किये हुए थे. जनता ने ट्रंप को जिता दिया, जिन्हें वहां की मीडिया ने इडियट तक कहा. ओपिनियन पोल की हार तो ऐसी हुई है कि दिल्ली और बिहार चुनाव की भी याद नहीं आ रही है. 'अबकी बार ट्रंप सरकार' वहां हो गया है. यह चुनाव उन नेताओं में भरोसा पैदा कर सकता है जो यह समझते हैं कि बिना मीडिया के वे चुनाव नहीं जीत सकते. जब भी मीडिया सत्ता से जुड़े किसी नेता का प्रचारक बन जाता है, नेता उस मीडिया को देखती तो है मगर उसकी सुनती नहीं है. आज अमेरिकी चैनलों के स्टूडियो में उदासी छा गई. वाशिंगटन की सड़कों पर सन्नाटा पसर गया. मीडिया हिलेरी के स्वागत में जुटा था, आ गए ट्रंप. जब भी मीडिया किसी नेता के लिए बैटिंग करता है, जनता उसे आउट कर देती है. ट्रंप की जीत पर आलोचक हैरान हैं तो मीडिया की इस हार पर भारत के गांवों में भी जश्न मनना चाहिए. अमेरिकी अखबारों ने खुलकर हिलेरी का समर्थन करना शुरू कर दिया था. उनके कसीदे कसे जाने लगे थे.
कहा जाने लगा कि इस बार उनकी बारी है. अमेरिका को पहली बार महिला अध्यक्ष मिलेगा, इतिहास बनेगा. चुनाव मूंछें बढ़ाकर या घंटों गाकर लिम्का बुक ऑफ रिकार्ड में नाम लिखाने का मौका नहीं होता है. फिर भी हिलेरी को नकारे जाने को लेकर अमेरिका ही नहीं दुनिया भर का तबका सदमे में है. क्या हिलेरी कमज़ोर उम्मीदवार थीं या हालात ने हिलेरी को बेगाना बना दिया. इस वक्त दुनिया की बड़ी आबादी को पहले रोटी चाहिए, पहले नौकरी चाहिए. पहली महिला या पहला इंजीनियर राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री नहीं चाहिए. लेकिन वहां की मीडिया के लिए हिलेरी रामदुलारी बन गईं. तमाम सत्ता प्रतिष्ठान और मीडिया खुलकर हिलेरी का समर्थन करने लगे. अमेरिकी मीडिया ने ट्रंप में बुराई देखी, आगे आकर जनता को आगाह किया, ये अच्छा काम तो किया मगर तब वो मीडिया कहां था जब बर्नी सैंडर्स लोगों के हक का सवाल उठा रहे थे. यही मीडिया बर्नी का मज़ाक उड़ाने में लगा हुआ था. जनता मीडिया को समझ गई है. भारत में भी किसानों की बात कीजिये तो मीडिया मजाक उड़ाता है. हार्वर्ड के नकारे छात्रों के दम पर यहां भी चुनाव जीतने का सपना देखने वाले नेता समझ लें. ये लोग व्हाट्स अप मटीरियल बनाने से ज्यादा कुछ नहीं हैं. हार्वर्ड की योग्यता लेकर जनता को मूर्ख बनाकर, गलत सलत और बदमाश उम्मीदवारों को जिताने के लिए भारत आ जाते हैं. पहले गांव के लोग बाहुबलियों को जिताते थे, अब हार्वर्ड के काबिल लोग उनके जिताने की योजना बनाते हुए आपको हर चुनाव में मिल जायेंगे.
उस अमेरिका के दर्द को कोई नहीं देख रहा था जो बेरोज़गार है, जिसे काम चाहिए. जो स्टूडेंट लोन के बोझ तले दबा है. जहां बगैर बीमा के अस्पताल जाना, पहाड़ से कूद कर आत्महत्या करने जैसा है. क्या उदारीकरण का यह दौर दम तोड़ रहा है. दुनिया भर में नेता की अपनी हैसियत तो बढ़ रही है, आम आदमी की हैसियत घट रही है. मीडिया ने हिलेरी पर लगे आरोपों को अनदेखा किया, मगर ट्रंप के आरोपों के प्रति इतना देखा कि लोग तंग आ गए. ट्रंप बुरे थे तो क्या हिलेरी बहुत अच्छी थीं. सबक ये है कि दो अयोग्य उम्मीदवार होंगे तो उसमें वो उम्मीदवार हारेगा जो शालीन होने का नाटक करेगा. बहरहाल ट्रंप एक ऐसा नेता हैं, जिनके बयानों को सभ्य महफिलों में दोहराया नहीं जा सकता है। इसका मतलब यह नहीं उन सभ्य महफिलों के अपने काले कारनामे नहीं है. दुनिया पर युद्ध थोप कर, अपनी जनता को भूखे रखकर अमेरिका विश्व शक्ति बन सकता है लेकिन वो दुनिया के सामने एक योग्य उम्मीदवार नहीं रख सका, ये उसके लोकतंत्र की हार है.
ट्रंप की बातों ने अमेरिका को बदल दिया है मगर अमेरिका तो ट्रंप से पहले बदल चुका था. अगर व्हाइट हाउस के नए मेहमान ने अपनी बातों पर अमल की तो दुनिया फिर से बदलेगी. ब्रेक्जिट के बाद ट्रंप की एंट्री धमाकेदार है. ट्रंप का भी इम्तहान अब शुरू होता है. क्या वे युद्ध के मैदानों से अमेरिका को खींच कर दुकानों में बिठा देंगे. क्या वे दुनिया के देशों से अमेरिकी सैनिकों का खर्चा मांगेंगे. बराक ओबामा शांति का नोबेल लेकर भी युद्ध की योजनाएं बनाते रहे. ट्रंप ने मैक्सिको से आए लोगों को बलात्कारी कहा, अपराधी कहा. ऐसी भाषा भारत के चुनावों में महाराष्ट्र और दिल्ली के चुनाव में बोली जा चुकी है. ट्रंप ने यहां तक कह दिया कि वे अमेरिका और मेक्सिको की सीमा पर दीवार बनायेंगे, ताकि मैक्सिको से कोई अवैध तरीके से अमेरिका न आ सके. मुसलानों के बारे में कहा कि वे पूरी तरह से मुसलमानों को निकाल देंगे. कई बार कहा कि अपने इस फैसले को लागू करेंगे. हिलेरी क्लिंटन को कहा कि जेल भेज देंगे. औरतों के बारे में ऐसी-ऐसी बातें बोलीं कि आप दोहरा नहीं सकते.
क्या यह उदारवादी अहंकार नहीं है कि ट्रंप की खराबी में इतना डूबा रहा कि जनता की तकलीफ ही भूल गया. क्या अब के चुनावों में बदनाम होने और बदज़ुबान होने को सफलता का मंत्र मान लिया जाएगा. मुझे लगता है जो इस पर यकीन करेगा वो अगला चुनाव पक्का हारेगा. अमेरिका में ट्रंप इसलिए जीते, क्योंकि अमेरिका की हालत ख़राब है, बहुत ही ख़राब है. 20 सितंबर को ओपिनियन पोल कराने वाली संस्था गैलप के चेयरमैन जिम क्लिफटन ने एक लेख लिखा था। सन् 2000 में 61 फीसदी अमरीकी खुद को अपर-मिडल क्लास का मानता थे, लेकिन 2008 तक आते-आते 51 प्रतिशत लोग ही अपर मिडिल क्लास कहलाने लगे, यानी आर्थिक हालत इतनी खराब होगी कि समाज के ऊपरी तबके की संख्या में 10 फीसदी की कमी आ गई. मतलब ये हुआ कि अमेरिका में 25 करोड़ व्यस्क हैं, इसका 10 फीसदी यानी ढाई करोड़ लोग आर्थिक रूप से तबाह हो चुके हैं. क्लिफटन ने अपने लेख में लिखा है कि मैं नहीं मानता कि अमेरिकी अर्थव्यवस्था सुधार की ओर है, जबकि अमेरिका के तमाम अख़बार अर्थव्यवस्था में सुधार की ख़बरें लिख रहे हैं. ऐसा अमेरिका ही नहीं, दुनिया के तमाम देशों में हो रहा है. क्लिफटन ने कहा कि ये ढाई करोड़ लोग अमेरिका के बेकार लोगों की संख्या में नहीं दिखते क्योंकि इनके पास काम तो है, मगर इनका वेतन आधे से कम हो गया है. भारतीय पैसे में समझें तो पहले उनकी सालाना कमाई 12 लाख थी जो अब घटकर 6 लाख से भी कम हो गई है. ऐसा आदमी बेरोज़गार भले न हो, मगर वो हिलेरी के झूठे सपनों का ख़रीदार नहीं हो सकता है.
अमेरिकी एक्सचेंज में 20 साल के भीतर पब्लिक लिस्टेड कंपनी की संख्या आधी रह गई है. पहले 7300 कंपनियां पब्लिक लिस्टेड थी, जो अब 3700 पर आ गई हैं. इससे अमेरिका में भयानक तरीके से नौकरियां कम हुई हैं. 48 प्रतिशत लोगों के पास ही पक्की और पूरी नौकरी है. नए बिजनेस स्टार्ट अप की संख्या ऐतिहासिक रूप से न्यूनतम स्तर पर है.
अमेरिका की इस हालत पर यकीन नहीं है तो जीतने पर ट्रंप ने जो कहा वो अमेरिका के बारे मे ही कहा है, बुंदेलखंड के बारे में नहीं. उनके बयान से लगा कि अमेरिका में न तो हाईवे हैं, न पुल हैं. एयरपोर्ट और स्कूल भी नहीं हैं. आप सुनिये तो उन्हें. क्या ट्रंप के पास कोई नया आर्थिक मॉडल है. वो आ तो गए हैं, लेकिन क्या वे आउटसोर्सिंग बंद कर देंगे, अमेरिका में बाहरी लोगों का आना बंद कर सकते हैं. दुनिया को ग्लोबल विलेज में बदलने निकला था अमेरिका, अब उसे याद आ रहा है कि उसकी लोकल बस छूट गई है. देखना होगा कि वहां कि जनता ने ट्रंप के बयानों पर दिल लुटाया है, या शालीन भाषा बोलकर उसे ग़रीब बनाने वालों के ख़िलाफ़ बग़ावत की है. 2008 की मंदी के बाद से आज तक दुनिया संभल नहीं सकी है. जनता गुस्से में सरकार तो बदल रही है लेकिन क्या कहीं अर्थव्यवस्था बदल रही है. अमेरिका में ट्रंपागमन के मौके पर सोहर गाने वाले नहीं हैं. वहां तो पांच सौ और हज़ार के नोट रद्दी में नहीं बदले हैं, फिर वहां जश्न क्यों नहीं है, या जो जश्न मना रहे हैं, वो वहां की मीडिया में क्यों नहीं हैं.
This Article is From Nov 09, 2016
प्राइम टाइम इंट्रो : अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में ट्रंप की जीत के मायने
Ravish Kumar
- ब्लॉग,
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Updated:नवंबर 09, 2016 21:28 pm IST
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Published On नवंबर 09, 2016 21:28 pm IST
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Last Updated On नवंबर 09, 2016 21:28 pm IST
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