यह ख़बर 14 नवंबर, 2014 को प्रकाशित हुई थी

खुले मन से करें नेहरू का मूल्यांकन

नई दिल्ली:

नमस्कार... मैं रवीश कुमार। हम एक ऐसे समय में रह रहे हैं जहां दुनिया भर में महानता 24 घंटे लाइव है। हर वक्त किसी ने किसी के महान होने का सीधा प्रसारण हो रहा है। रीयल टाइम में महान बनने या बना देने की ऐसी घटना इतिहास के किसी भग्नावशेषों में नहीं मिलती है।

अगर आप लाइक्स, हैशटैग और सेल्फी नहीं जानते तो तत्काल प्रभाव से खुद को डिजिटल वंचित घोषित कर दीजिए, क्योंकि यही सब वो टटपुंजिया आइटम हैं जिनसे कोई भी महान बन सकता है। डिजिटल फुटपाथ पर बिकने वाली लाइक्स से फोलोआर की संख्या लाखों में पहुंच सकती है और आप ललबबुआ से लीडर हो सकते हैं। प्रेशर कूकर के विज्ञापन का माडल बन सकते हैं।

अब ऐसे दौर में साठ साल पहले नेहरू महान थे या नहीं, यह तौलना एक खतरनाक काम है, क्योंकि उन्हें उस वक्त कितने लाइक्स मिले थे किसी को पता नहीं। फिर भी ऐसे खतरनाक काम करने का सबसे आसान माध्यम है, टीवी और उसका प्राइम टाइम।

125वीं जयंती पर भारत के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का मूल्यांकन कैसे करना चाहेंगे। हैशटैग और सेल्फी काल से पहले नेहरू की सौवीं जयंती पर क्या इस तरह से बहस हुई थी। जो भी हो अपने 125वीं जयंती पर नेहरू सोशल मीडिया पर लौट आए हैं। नेहरू शेयर हो रहे हैं, उनकी तस्वीरों को लाइक्स मिल रहे हैं, कहीं-कहीं ब्लॉक भी हो रहे हैं, ट्वीटर पर नेहरू फेलियर भी ट्रेंड कर रहा है।

कुछ लोग नेहरू की रूमानियत के मोह में नोस्तालिज्या की चादर से लिपटे जा रहे हैं। नेहरू की 125वी जयंती के ख़ास होने में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की मौजूदगी का भी योगदान गिना चाहिए। मोदी विदेश यात्राओं पर हैं, लेकिन देश में प्रकारांतर यानी बैकग्राउंड में नेहरू बनाम नरेंद्र की छवियों के बीच छायायुद्ध जारी है।

अगर मेरी ये बात ग़लत है तो वापस लेने का प्रावधान न होने के बाद भी इसे लिखकर मिटाया हुआ समझ लीजिएगा। क्या मोदी नेहरू की विरासत को कमज़ोर कर रहे हैं, उस पर कब्जा कर रहे हैं, ये सब सवाल आशंकावादियों के हैं। हर नया प्रधानमंत्री पुरानी विरासत का मालिक होता है और नई विरासत कायम करता है।

फिलहाल आप ब्लैक एंड व्हाइट दौर की इन तस्वीरों में जवाहरलाल नेहरू की उन बुलंदियों को देखते चलिये जो हमने नेहरू मेमोरियल एंड म्यूज़ियम लाइब्रेरी की साइट से ली है। आज नेहरू होते तो उनकी शेरवानी सिलने वाले कलाकार भी किसी चैनल के प्राइम टाइम में नेहरू के बॉडी लैंग्वेज का बखान कर रहे होते।

अगर आप इतिहास के विद्यार्थी नहीं हैं तो एक बात लिखकर अपने पर्स में रख लीजिए। दुनिया भर में इतिहास लेखन कब का बदल चुका है। वह नेताओं के व्यक्तिगत गुणों-अवगुणों की छाया से निकल उन गलियों में जा पहुंचा है, जहां हर मकान के बाद इतिहास बदल जाता है। इतिहास का मतलब बायोग्राफी और मूर्ति नहीं है। फिर भी हमारी राजनीति इतिहास के पास इन नेताओं की बायोग्राफी और मूर्ति के सहारे ही लौटती रहती है।
 
एक नज़रिया है कि अंबेडकर, नेहरू, गांधी, पटेल, बोस ये सब अलग-अलग दलों में बंट गए। कई लोगों की मांग है कि इतिहास के इन नायकों को नेताओं के मंच से उतार कर वापस इतिहास की ओर लाया जाए, ताकि इनका मूल्यांकन वोट के लिए नहीं हो। लेकिन आपको इसी राजनीति का शुक्रिया अदा करना चाहिए कि अगर ये नेता इतिहास के नायकों तक नहीं जाते, तो ये क्लास रूम में ही बंद होकर रह जाते।

मौजूदा नेहरू-पटेल विवाद के कारण कई लोगों ने दोनों के अलग−अलग पहलुओं पर लिखा। लोगों तक फिर से कई ज़रूरी बातें पहुंची। राजनीति इतिहास का इस्तमाल करती है, हमारे नज़रिये को संकुचित भी करती है, लेकिन वही राजनीति मौका भी देती है कि हम इतिहास के पन्नों को खुद भी पलटें।

दिक्कत है कि कई लोग टीवी की बहस देखकर खुद को इतिहासकार घोषित कर देते हैं। तो मेरी तरफ से उस घोषित अघोषित राजनीति को बिग थैक्यूं, जिसने मौका दिया नेहरू के बारे में बात करने का।

पटेल के बारे में बात करने का और जिसने कुछ साल पहले मौका दिया था, झलकारी बाई से लेकर फूले, पेरियार और अंबेडकर के बारे में बात करने का। तो इन राजनेताओं और इनकी शह पर ज़ुल्फें झटक कर चलने वाले वक्ताओं को आप बेवजह न गरियाएं। वो एक बड़ा काम कर रहे हैं।

तो रिलैक्स। इतिहास की अलग-अलग व्याख्याएं हो सकती हैं उस पर कोई कब्ज़ा नहीं कर सकता। इतिहास को कोई दुबारा भी नहीं लिख सकता है। हां कोई अलग इतिहास ज़रूर लिख सकता है जो दुनिया भर में रोज़ लिखा जा रहा है। ज्यादा से ज्यादा आपको एक और बुकलांच में जाना पड़ सकता है। तो डरिये मत। खुले मन से नेहरू का मूल्यांकन कीजिए।
 
महानतम कोई नहीं होता, लेकिन इस बात के लिए भी मत रोइये कोई पटेल की सबसे ऊंची मूर्ति बना रहा है, बल्कि ये भी देखिये कि मूर्ति के पीछे एक मकसद पयर्टन को बढ़ावा देना भी है। अगर ये आइडिया कामयाब रहा, तो मूर्तियों के प्रति हमारा नज़रिया बदल जाएगा। हर कोई टूरिज़्म बढ़ाने के लिए अपने नेता की मूर्ति बनाने की मांग करेगा। बल्कि यह भी मांग होगी कि कानपुर के नेता की मूर्ति दिल्ली में न लगे, क्योंकि इससे कानपुर को घाटा हो रहा है। राजगोपालाचारी, राजेंद्र प्रसाद, नेहरू और बोस की भी ऊंची मूर्तियां बन जाएंगी।

नेहरू के पहनावे और नयन नक्श ने भी उनके साथ नाइंसाफी की है। कई बार लगता है कि उनका राजनीतिक जीवन बहुत आसान रहा। वह पालने से लेकर पालकी में ही भारतीय राजनीति के मंचों पर लाए जाते रहे। जबकि उनका जीवन भी संघर्ष और चुनौतियों भरा रहा है।

इन दिनों नेहरू की याद में इलाहाबाद का आनंद भवन रौशन है। इस भवन में शानो शौकत के ऐसे किस्से आज भी भ्रमण करते हैं, जैसे शबे बारात की रात आसमान से उतरे फरिश्ते। लेकिन इस भवन का एक और इतिहास है। रातों रात इसने अपनी विलासिता को उतार फेंका और आजादी की लड़ाई का एक महत्वपूर्ण सेंटर बन गया।

जवाहरलाल नेहरू भारत की आज़ादी की लड़ाई का वह मोड़ है, जहां से आंदोलन फिर से उग्र होने के दबाव से गुज़रने लगता है। एक बेचैन आत्मा की कहानी है, जो आज़ाद हिन्दुस्तान को रियल टाइम में हासिल कर लेना चाहता था। उनके पास गांधी जैसा धीरज नहीं था, मगर उन्होंने अपनी बेचैनी को कभी गांधी पर हावी नहीं होने दिया।

उस दौर में जब हिन्दु्स्तान और पाकिस्तान के लाखों लोग धर्म के नाम पर एक दूसरे के खून के प्यासे हो गए थे, नेहरू ने फैसला कर लिया कि वह धर्मनिरपेक्ष भारत के लिए संघर्ष करेंगे। सांप्रदायिकता के उस प्रचंड ज्वार काल में भी नेहरू ने इसके खिलाफ चुनौती उठा ली और भारत के पहले चुनाव में सेकुलर भारत के सवाल को लेकर कूद गए।

धारा के विपरीत चलने की ऐसी तमाम खूबियां हैं, तो बहुत सारी कमियां भी हैं। चीन पर भरोसा कर धोखा खाए तो कम्युनिस्ट होने का लेबल लेकर कम्युनिस्ट सरकार गिरा गए। उनका नाम परिवारवाद का एक सिंबल है। जबकि इसकी फ्रेंचाइजी आज सिंधियाओं, बादलों, यादवों, ठाकरे, हुड्डाओं से लेकर इतने लोगों के पास हैं कि आप इस आधार पर फैसला करेंगे तो जिस पार्टी के समर्थक हैं, उसी पार्टी में आग लगा देंगे। इसलिए बेटर यू इग्नोर परिवारवाद एंड वाच प्राइम टाइम। क्यों लगता है कि नेहरू के आस−पास कोई पर्दा सा है जिसका उठना बाक़ी है।

Listen to the latest songs, only on JioSaavn.com

हम आज नेहरू पर बातें करेंगे। जानेंगे कि उन्हें देखने के अलग अलग पक्ष क्या हैं। अजीब टाइम है। मौसा, मामा, फूफा, जीजा, साढ़ू और चाचा सब अंकल हो चुके हैं, लेकिन फिर भी एक शख्स आज भी सबका चाचा है।

(प्राइम टाइम इंट्रो)