प्राइम टाइम इंट्रो : क्या चुनने का अधिकार भी धर्म से जुड़ा है?

प्राइम टाइम इंट्रो : क्या चुनने का अधिकार भी धर्म से जुड़ा है?

प्रतीकात्‍मक तस्‍वीर

शराब सोच रही थी कि वो बच जाएगी क्योंकि सबका ध्यान मांस पर है. जबकि आफ़त उस पर भी आई हुई थी. मांस ने चालाकी की. यूपी में घिर गया तो नॉर्थ ईस्ट पहुंच गया, फिर केरल चला गया. शराब फंस गई. राष्ट्रीय राजमार्ग यानी नेशनल हाइवे और राजकीय राजमार्ग यानी स्टेट हाइवे के 500 मीटर इधर-उधर अब कोई शराब की दुकान नहीं हुआ करेगी. आदेश सुप्रीम कोर्ट का है. आप मीडिया का कवरेज देखिये. मीट के कवरेज में अवैध को वैध बनाने पर ज़ोर है. लाइसेंस लेना होगा वर्ना पुलिस और सरकार के दम पर उछलने वाली भीड़ हमला कर देगी. शराब के समय ऐसा ज़ोर नहीं है कि सुप्रीम कोर्ट ने जैसा कहा है वैसा ही पालन होना चाहिए. शराब से पर्यटन, राजस्व और रोज़गार के सवाल को प्रमुखता से जोड़ा गया. बूचड़खाने और मीट के वक्त वैध और अवैध को ही प्रमुखता मिली. हम कुछ अखबारों की सुर्खियां के नमूने पेश करना चाहते हैं ताकि आप देख सकें कि मीट और बूचड़खानों के समय मीडिया की भाषा और मंशा क्या थी.

- एक्शन में योगी, लोग ख़ुश, अवैध बूचड़खानों पर ताले
- बिना लाइसेंस के चल रही मीट फैक्ट्री प्रशासन ने सील की
- शहर में संचालित तीन अवैध बूचड़खाने सील
- अवैध बूचड़खाना बंद कराने का अभियान शुरू
- ज़िले में पशु कटान पर लगा रहा अघोषित प्रतिबंध
- कार्रवाई के विरोध में हड़ताल पर मीट व्यापारी
- यूपी में बूचड़खानों पर कार्रवाई, जानें वैध अवैध का अंतर
- अंग्रेज़ी अख़बारों की सुर्खियां इस तरह थीं
- 17 rules UP meat sellers must follow
- how UP's meat business was run before Yogi Adityanath cracked the whip
- This Is How The Slaughterhouse Ban In Uttar Pradesh Will Cripple Revenue, Cost Millions Of Jobs

बूचड़खानों और मीट मुर्गा की दुकानों पर छापामारी पुलिस ही नहीं कर रही थी, कुछ लोग भी कर रहे थे जो खुद को सरकार के स्वंयसेवक समझ रहे थे. मीट की दुकानें किसने जलाई आखिर. गौमांस और मांस को एक ही कतार में बिठा दिया गया जबकि यूपी में 1950 के दशक से ही गौमांस या गौ हत्या प्रतिबंधित है. राज्य सरकार चीखती रही कि उसका फैसला किसी समुदाय विशेष के प्रति नहीं है. जिसके पास लाइसेंस है उन्हें चिंता करने की ज़रूरत नहीं है. बूचड़खानों को अवैध बताया गया मगर क्या यह बताया गया कि वहां क्या कट रहा था. बकरा, भैंस या गाय. बजाय इस अंतर के सबको ऐसे पेश किया गया जैसे अवैध बूचड़खाने का मतलब वहां गौमांस का कारोबार हो रहा हो. ये मीडिया की भाषा का टोन था. टोन वह हुआ जो ज़ोर ज़ोर से बोला जा रहा है, अंडरटोन वो हुआ जो बिना बोले बोला जा रहा है. राष्ट्रीय और राजकीय राजमार्गों से सटे 500 के मीटर के दायरे में शराब की दुकानों को हटाने के आदेश में मीडिया ने किस पक्ष को उभारा. राज्य सरकारें राजमार्गों का दर्जा बदलकर राहत दे रही हैं. हाईवे को नगरपालिका के दायरे में लाया जा रहा है. फिर इस फैसले का क्या मतलब रह जाएगा.

मीडिया के कवरेज में शराब की बंद दुकानों को ऐसे दिखाया गया जैसे ग्लोबल अर्थव्यवस्था का घर उजड़ गया हो. रिपोर्टर से लेकर एंकर की भाषा में इन दुकानों के प्रति सहानुभूति दिखी, रोज़गार और कारोबार के नुकसान के पक्ष को ज़्यादा मज़बूती से उभारा गया. दिखाया गया कि किस तरह से फ्रीडम ऑफ च्वाइस पर हमला हुआ है. इसके टोन अंडरटोन में आपको समुदाय का रंग नहीं मिलेगा. इसलिए शराब कारोबारी पूरे आत्मविश्वास के साथ अपनी बात मीडिया के सामने रख सके. पूरे कवरेज में आपको सड़क दुर्घटना का पक्ष या तो ग़ायब दिखेगा या कमज़ोर दिखेगा. मीडिया कितनी जल्दी शराब की दुकानों के प्रति सहानुभूति रखने लगा खासकर अंग्रेज़ी मीडिया. उसके हेडलाइन्स इस तरह रहे...

- HOW MUMBAI COPED WITH LIQUOR BAN ALONG HIGHWAYS
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- Shrinking exchequers is what state governments are most worried about
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मीट दुकानदारों को मीडिया वैध होने का लेक्चर दे रहा था, शराब दुकानों को लेक्चर देना भूल गया कि सुप्रीम कोर्ट का आदेश है पालन कीजिए. वो लोग भी ग़ायब हो गए जो यूपी में घूम घूम कर मीट की दुकानों का लाइसेंस चेक रहे थे, उन्हें वैध बना रहे थे. अब आते हैं शराब कारोबारियों के मसले पर. वे वाकई सुप्रीम कोर्ट के आदेश से फंस गए हैं. अचानक उनके सामने दुकानें बंद होने का ख़तरा पैदा हो गया है जिन्हें सरकार से लाइसेंस लेकर ही खोला था. पर सोचिये इनकी बातों को मीडिया कितनी सहानुभूति से दिखा रहा है, वही मीडिया को सड़क दुर्घटना के खिलाफ अभियान चलाता है. क्या आप मीट दुकानों के कवरेज़ में फुटपाथ पर मीट मुर्गा बेचने वालों की कहानी जान सकें, जिनकी दुकानें हटा दी गईं हैं. उनकी भी तो रोज़ी रोटी छिन गई है.

होटल कोई बोतल नहीं है कि जेब में रखकर कहीं और चलते बने. दस लाख लोगों के इससे जुड़े होने का दावा किया जा रहा है. 2 लाख करोड़ का कारोबार बताया जा रहा है. सुप्रीम कोर्ट के फैसले से हाईवे से सटे हज़ारों बार, पब, दुकानों पर असर तो पड़ेगा ही. नौकरियां जाएंगी. यह अदालत नहीं सोचेगी, सरकार नहीं सोचेगी तो कौन सोचेगा. सुप्रीम कोर्ट ने क्यों ऐसा फैसला दिया. यह भी सोचना होगा. सड़क दुर्घटना से मरने वालों में पचीस प्रतिशत नशे के कारण गाड़ी चलाने के कारण मारे जाते हैं. हर साल शराब के कारण होने वाली दुर्घटना से 6000 से अधिक लोग मारे जाते हैं. क्या कोई अदालत इसे देखती रह सकती है. एक फैसले से एक झटके में जितने लोगों की जानें नहीं बचीं उससे कहीं ज़्यादा के रोज़गार पर संकट आ गया है. क्या सुप्रीम कोर्ट के आदेश से कुछ भी अंकुश नहीं लगेगा. क्यों सरकारों ने हाइवे के किनारे शराब की दुकानें खोलीं. दंड सरकारों को देना चाहिए, मिल गया दुकानदारों को.

एंकर रेड वाइन के फायदे बता रहे हैं, जैसे मीट से प्रोटीन नहीं मिलता है. बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने केंद्र सरकार को चुनौती दी है कि वो शराबबंदी लागू करके दिखाये. बीजेपी शासित राज्यों में शराबबंदी करे. हमारी राजनीति भी शराब के पीछे पड़ी है. दरअसल हमारी आधुनिकता और राजनीति का टायर पंचर हो गया है. उसकी गाड़ी फंस गई है. सड़क और परिवहन मंत्री नितिन गडकरी का लोकसभा में दिया गया बयान है कि 'भारत में हर साल पांच लाख सड़क दुर्घटनाएं होती हैं. इसके कारण हर साल डेढ़ लाख लोग मारे जाते हैं, इससे सालाना 55000 करोड़ का नुकसान होता है. यह राशि जीडीपी का तीन प्रतिशत है.'

18 मार्च 2014 को पंजाब हरियाणा हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस ने फैसला दिया था कि हाईवे के किनारे खुली शराब की दुकानें दिखनी नहीं चाहिए और इन तक पहुंचने का रास्ता बंद हो जाना चाहिए. तो सुप्रीम कोर्ट से पहले हाई कोर्ट ने ऐसा फैसला दिया था. तब पंजाब और हरियाणा की सरकारें सुप्रीम कोर्ट चली गईं. नुकसान सड़क दुर्घटना से भी है, सुप्रीम कोर्ट के फैसले से भी है.


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