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This Article is From Nov 25, 2015

प्राइम टाइम इंट्रो : क्या स्वच्छ भारत काम कर रहा है?

Written by Ravish Kumar
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    दिसंबर 23, 2015 14:29 pm IST
    • Published On नवंबर 25, 2015 21:22 pm IST
    • Last Updated On दिसंबर 23, 2015 14:29 pm IST
भीड़ ने हां कहा या ना कहा इसका कांग्रेसी विश्लेषण अलग है और भाजपाई विश्लेषण अलग। कांग्रेस को लगता है कि लोगों ने हां भी कहा और ना भी, बीजेपी को लगता है कि लोगों ने हां कहकर राहुल गांधी के मोदी विरोधी अभियान को पंचर कर दिया है। आपको राजेश खन्ना का वो गाना तो याद है न। बागों में बहार है। जिसके जवाब में नायिका पहले हां कहती है फिर ना ना करने लगती है। जवाब आप दर्शक भी दे सकते हैं, राहुल के तीनों सवाल आपके स्क्रीन पर निम्नलिखित हैं। सवाल अगर निम्नलिखित न हों तो लगता ही नहीं कि लिखित योग्य हैं।

- क्या स्वच्छ भारत काम कर रहा है?
- क्या मेक इन इंडिया काम कर रहा है?
- क्या लोगों को नौकरियां मिल रही हैं?


क्या स्वच्छ भारत अभियान काम कर रहा है। इसकी जांच करनी हो तो आपको वाराणसी के जयापुर गांव जाना चाहिए। जिसे प्रधानमंत्री ने नवंबर 2014 में आदर्श गांव बनाया है। जुलाई महीने में हमारे सहयोगी अजय सिंह जयापुर गए तो वहां आदर्श ग्राम योजना के तहत बने कुछ शौचालयों में उपले रखे मिले। अजय का कहना था कि कुछ शौचालय टूट चुके हैं और कुछ का लोग इस्तमाल भी कर रहे हैं। लेकिन इस तस्वीर को देखिये। फाइबर टिन के करीब 400 शौचालय बने हैं। देखने में सुंदर लगते हैं मगर पानी की इस टंकी तक पानी कैसे पहुंचे कोई पाइप नज़र नहीं आती। बल्कि हवा में लटक रही आधी पाइप का ज़मीन पर मौजूद किसी जल स्त्रोत से मिलन नहीं हुआ है। वैसे टंकी के दूसरे सिरे पाइप शौचालय में जा मिलती है। लोग बाल्टी लेकर शौच करने जा रहे हैं। आज उन्होंने वहां के सरपंच श्री नारायण से भी बात की। 100 से अधिक शौचालय ईंट के बने हैं मगर शिकायत है कि गड्ढा पांच फीट ही गहरा है इसलिए जल्दी ही शौच सामग्री से भर जाएगा।

स्वच्छ भारत अभियान का प्रचार प्रसार अच्छा हुआ है और अलग-अलग जगहों पर कई लोग व्यक्तिगत स्तर पर भी प्रेरित हो गए हैं। कई जगहों पर अभियान से अच्छे नतीजे भी आ रहे हैं लेकिन क्या वैसा है जैसा दावा किया जा रहा है। स्वच्छ भारत अभियान के तहत शौचालय के साथ हर घर में पीने का साफ पानी भी पहुंचाने का लक्ष्य है। वेस्ट मैनेजमेंट भी करना है। क्या ये सब भी हुआ है। इस अभियान की सफलता पैसे पर निर्भर करती है। अगस्त महीने के इकोनोमिक एंड पोलिटिकल वीकली में मंजूर अली का एक लंबा लेख है। इसके अनुसार इस अभियान की कामयाबी के लिए केंद्रीय बजट का एक बटा छह हिस्सा पैसा चाहिए। पांच साल में इसके लिए 1 लाख 96 हज़ार करोड़ रुपये और हर साल 39,000 करोड़ की ज़रूरत होगी। 2014-15 में निर्मल भारत अभियान, राष्ट्रीय ग्रामीण पेयजल कार्यक्रम के लिए 15,260 करोड़ दिया गया। 2015-16 में पेयजल एवं सफाई मंत्रालय को 6244 करोड़ मिला है और स्वच्छ भारत मिशन को 3625 करोड़ मिला है। यानी एक साल में जितना पैसा चाहिए उसका आधा भी केंद्र सरकार ने नहीं दिया है।

इसका एक हिस्सा राज्यों को देना है और कॉरपोरेट सोशल रिस्पांसिबिलिटि‍ के तहत निजी कंपनियों को। कंपनी की हर छमाही रिपोर्ट बताती है कि उनका मुनाफा गिरता जा रहा है। इसी मुनाफे का दो प्रतिशत पैसा वो सीएसआर में लगाती हैं जब मुनाफा कम होगा तो सीएसआर का फंड भी कम ही होगा। 23 नवंबर को इंडियन एक्सप्रेस में संदीप सिंह और श्रुति श्रीवास्तव की रिपोर्ट छपी है कि 2014-15 में चोटी की 50 कंपनियों ने 4,600 करोड़ सीएसआर के तहत खर्च किये। इनमें से बड़ा पैसा स्कूल, स्वास्थ्य, खेती, सफाई, ट्रेनिंग, पर्यावरण पर खर्च हुआ है। यानी सीएसआर का फंड बहुत कम है और इसमें से भी स्वच्छ भारत के लिए समर्पित नहीं है।

हाल ही में भारत सरकार ने सर्विस टैक्स पर 0.50 प्रतिशत का उपकर यानी सेस लगाया है। आप अखबारों में यह भी पढ़ते हैं कि सरकार ने मनरेगा, बैकवर्ड एरिया ग्रांट कम किया है। जब पैसा पर्याप्त नहीं है तो यह अभियान चल कैसे रहा है। प्रधानमंत्री ने कहा था कि एक साल में करीब एक करोड़ शौचालय बने हैं लेकिन क्या शौचालयों का बन जाना ही स्वच्छता है। 23 नवंबर के ईकोनोमिक टाइम्स में निधि शर्मा की रिपोर्ट से पता चलता है कि
राष्ट्रीय सैंपल सर्वे ने अप्रैल से जुलाई के बीच शौचालयों को लेकर एक सर्वे किया है। इसके अनुसार गांवों में 46 प्रतिशत शौचालयों का ही इस्तमाल हो रहा है। शहरों में बहुत से बहुत 50 फीसदी शौचालय इस्तमाल किये जा रहे हैं। पूर्वोत्तर के राज्यों में 100 फीसदी इस्तमाल हो रहा है। यह रिपोर्ट एक अक्टूबर को जारी होनी थी लेकिन निधि शर्मा ने लिखा है कि सरकार ने जारी नहीं किया क्योंकि विपक्ष को हंगामा करने की खुराक मिल जाती है। मैं निधि शर्मा की रिपोर्ट का ज़िक्र भर कर रहा हूं। 21 अक्टूबर के हिन्दुस्तान टाइम्स की रिपोर्ट के अनुसार केंद्र सरकार के मंत्रालय के अनुसार मध्य प्रदेश सरकार शौचालय बनाने के मामले में अपने लक्ष्य से पीछे है। इस साल 18 लाख शौचालय बनाने थे लेकिन सितंबर तक 3,40,263 शौचालय ही बनाए हैं, यानी 16 लाख शौचालय नहीं बने।

अब आते हैं निवेश पर। यूपीए के दस साल में सकल घरेलू उत्पाद का 39 प्रतिशत हिस्सा निवेश हुआ था जो इस वक्त 39 फीसदी से घटकर 30 फीसदी पर आ गया है। 2 नवंबर के बिजनेस लाइन में खबर छपी है भारत के मैन्यूफैक्चरिंग सेक्टर का ग्रोथ गिर कर पिछले 22 महीने के न्यूनतम स्तर पर पहुंच गया है। जब मैन्यूफैक्चरिंग सेक्टर का भला नहीं हो रहा है तो क्या मेक इन इंडिया काम कर रहा है। कंपनियों की छमाही तिमाही की रिपोर्ट उठाकर देख लीजिए। उनके मुनाफे में या तो गिरावट है या स्थिरता है। बुधवार के इंडियन एक्सप्रेस के पहले पन्ने पर जॉर्ज मैथ्यू की खबर छपी है कि सरकारी बैंकों के बैड लौन यानी वो कर्ज जो डूबने के कगार पर हो, उसकी मात्रा में इस साल 27 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। 37 बैंकों ने रिपोर्ट किया है कि 12 महीने में नॉन परफॉर्मिंग एसेट में 26.8 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। यानी बैंकों का 3 लाख 36 हज़ार करोड़ रुपया नॉन परफॉर्मिंग एसेट में तब्दील हो चुका है।

क्रेडिट सुइस ने 21 अक्टूबर को अपनी रिपोर्ट में कहा है कि इंफ्रा सेक्टर से लेकर खनन के क्षेत्र से जुड़े 10 बड़े समूहों का कर्जा काफी बढ़ गया है। इन कंपनी समूहों को भविष्य में जिस मुनाफे की उम्मीद है उसका छह गुना ज्यादा कर्जा अभी ही है। आपने प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री को बार-बार कहते सुना होगा कि प्राइवेट सेक्टर को जोखिम लेना चाहिए। उन्हें निवेश करना चाहिए। ऐसे जटिल विषयों के जवाब हां या ना में नहीं लिये जाने चाहिए। देने वाले को भी कम से कम ठीक से रिसर्च कर लेना चाहिए।

भीड़ से नरेंद्र मोदी का पूछना कि नौकरी मिली कि नहीं मिली गलत है तो राहुल गांधी का पूछना भी उसी गलती की नकल है। भीड़ हां में जवाब देती है तो भी किसी को उत्साहित होने की ज़रूरत नहीं है। भीड़ की हां से उत्साहित होने की ज़रूरत नहीं है और न ही न से क्योंकि वो सत्य नहीं है और न ही तथ्य है। क्या आपको मालूम है कि पिछले एक साल में आपके शहर में कितने सार्वजनिक शौचालय बने। कुछ को मालूम होगी यह बात लेकिन जब भीड़ धारणा के आधार पर या किसी बात के उत्साह में कहे तो एक बार रुक कर सोचना चाहिए। अगर ऐसे विमर्श बनेगा, इस आधार पर जनमत तैयार होगा तो वो कभी वास्तविक हो ही नहीं सकता है। आप रियालिटी सेक्टर में किसी से बात कीजिए। बताएगा कि मकान नहीं बिक रहे हैं। उनकी तनख्वाह आधी हो गई है। ठेकेदारों, वेंडरों के पेमेंट रुके पड़े हैं। क्या ये बात कोई सरकार अपनी तरफ से बताती है। क्या आपने ऐसा कोई विज्ञापन देखा है।

प्राइम टाइम में हम बात करेंगे कि क्या स्वच्छ भारत अभियान काम कर रहा है। क्या नौकरियां मिल रही हैं। क्या मेक इन इंडिया काम कर रहा है।

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं। इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति एनडीटीवी उत्तरदायी नहीं है। इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं। इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार एनडीटीवी के नहीं हैं, तथा एनडीटीवी उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है।

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