नमस्कार.. मैं रवीश कुमार। मूर्ति और मेमोरियल की राजनीति ने हिन्दुस्तान की तारीख़ को अजब-ग़ज़ब किस्सों से भर दिया है। देश के तमाम चौराहे और तिराहे मूर्तियों से लैस हो चुके हैं। हरियाणा, राजस्थान में लोग अपने पूर्वजों की मूर्तियां घर के बाहर लगाते हैं। कई गांवों और शहरों में शहीद जवानों की भी मूर्तियां लगाई जाती हैं। हर दस किलोमीटर पर आपको पीने के लिए नल न मिले लेकिन कोई न कोई मूर्ति ज़रूर मिलेगी। जिनकी मूर्तियां नहीं हैं, उनकी सुनवाई के लिए मूर्ति−मेमोरियल इंसाफ कमेटी होनी चाहिए।
कुल मिलाकर भारत एक मूर्ति प्रधान देश है, तो फिर 12 तुगलक रोड को पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह मेमोरियल में बदल देने के लिए जो आंदोलन चलाया जा रहा है, वह क्या मूर्तियों के प्रति हमारी इसी सहनशीलता और स्वीकार्यता का विस्तार है या कुछ और है।
राष्ट्रीय लोक दल और भारतीय किसान यूनियन के कार्यकर्ता कभी दिल्ली की सीमा पर तो कभी तुगलक रोड के रास्तों को घेर कर प्रदर्शन करने लगते हैं। कहीं चुनावी हार के बाद जबरन कब्ज़े की यह कोई नयी टैक्नीक तो नहीं है। इससे पहले चौधरी चरण सिंह मेमोरियल के अखिल भारतीय स्तर का पश्चिम उत्तरप्रदेशीय आंदोलन क्यों नहीं हुआ या मीडिया ने कवर नहीं किया।
चौधरी चरण सिंह छह महीने तक प्रधानमंत्री रहे और कभी संसद का सामना नहीं कर सके। कांग्रेस विरोधी राजनीति के अग्रणी नायकों में रहे हैं। मुलायम सिंह उनके उत्तराधिकारी बताये जाते थे, जिनकी पार्टी की यूपी में सरकार है और चरण सिंह के बेटे की पार्टी लोकसभा में एक भी सीट नहीं जीत सकी। अजित सिंह हार गए और मकान खाली कर चले गए, लेकिन उनकी पार्टी इस बंगले को मेमोरियल में बदलने की मांग लेकर वापस आ गई।
गैरकांग्रेसवाद कांग्रेस की राजनीति में मूर्ति संस्कृति के खिलाफ ही पनपा था, मगर इसके नेता भी मूर्तियों के शिकार हो गए। हरियाणा में हर ज़िले में देवीलाल की स्मृति में पार्क बने हैं, जहां उनकी मूर्ति भी है। हरियाणा के मुख्यमंत्री भूपेंद्र हुड्डा ने संविधान सभा के सदस्य और अपने पिता रणवीर हुड्डा की स्मृति में रोहतक में एक भव्य स्मारक का निर्माण कराया है।
चौधरी चरण सिंह के नाम पर भी कुछ कम नहीं है। दिल्ली में यमुना किनारे चौधरी चरण सिंह की समाधि है, जिसका नाम किसान घाट है। लखनऊ में चौधरी चरण सिंह हवाई अड्डा है। मेरठ में चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय है। हिसार में चौधरी चरण सिंह कृषि विश्वविद्यालय है। सैफई में चौधरी चरण सिंह की प्रतिमा लगी है। पिछले साल उप राष्ट्रपति ने अलवर में चौधरी चरण सिंह की प्रतिमा का अनावरण भी किया है।
ज़ाहिर है चौधरी चरण को कोई नहीं भूला है। बस इस बार बागपत की जनता भूल गई और अजित सिंह को वोट नहीं किया। नरेंद्र मोदी को कर दिया। अब मुलायम सिंह यादव, नीतीश कुमार और भूपेंद्र हुड्डा सब इस मेमोरियल आंदोलन का समर्थन करने लगे हैं।
तरीके को लेकर विवाद हो सकता है, लेकिन इसे लेकर लकीर कहां से खींची जाए इस पर विवाद शुरू होगा तो सवाल खत्म ही नहीं होंगे। आंबेडकर के बयान पढ़ेंगे तो आप और कंफ्यूज़ हो जाएंगे क्योंकि इसे समझना इतना भी आसान नहीं है।
'भारत के राजनीतिक जीवन में नायक और नायक पूजा एक कड़वी सच्चाई है। मैं मानता हूं कि नायक पूजा भक्तों के लिए हतोत्साहित करने वाली है और देश के लिए खतरनाक है। मैं ऐसी आलोचनाओं का स्वागत करता हूं, जिनसे यह पता चले कि जिस व्यक्ति को आप महान मानकर पूजना चाहते हैं, उसके बारे में ज़रूर जानना चाहिए। ये कोई आसान काम नहीं है। इन दिनों जब प्रेस हाथ में हो तो उसके ज़रिये महान पुरुष को आसानी से गढ़ा जा सकता है। हम एक ऐसे चरण पर पहुंच गए हैं, जहां पॉकेटमारों से सावधान जैसे नोटिस बोर्ड के साथ−साथ हमें ये बोर्ड भी लगाना होगा, जिस पर लिखा हो महान पुरुषों से सावधान।'
अंबेडकर भी इस मूर्ति पूजा के शिकार हो गए। ऐसा नहीं कि गांधी नेहरू ने मूर्ति पूजा का विरोध नहीं किया। किया, मगर पूजा हुई। नेहरु ने तो कोलकाता के एक अखबार में चाणक्य नाम से लेख भी लिखा, जिसमें व्यक्ति पूजा की आलोचना की लेकिन वही नेहरू
1961 में तमिलनाडू के मुख्यमंत्री के कामराज की प्रतिमा का अनावरण करने पहुंच गए। तब कामराज ज़िंदा थे। लेकिन जब डीएमके ने अपने संस्थापक अन्नादुरई की प्रतिमा बनाने का प्रयास किया तो कांग्रेस विरोध करने लगी।
मूर्ति और मेमोरियल के बारे में 9 नंवबर 2013 के हिन्दू में श्रीवत्सन ने एक रोचक लेख लिखा है कि 1967 में जब डीएमके सत्ता में आई तो पार्टी ने मूर्तियां लगाने का काम ज़ोरशोर से शुरू कर दिया। जहां जहां कामराज की प्रतिमा लगी थी, वहां-वहां अन्नादुरई की भी लगा दी गई।
श्रीवत्सन ने लिखा है कि नेहरू के निधन के बाद मेमोरियल बनाने के लिए एक ट्रस्ट बना। जिसके सचिव कर्ण सिंह ने बताया कि दो साल तक एक करोड़ रुपये ही जमा हुए, जबकि लक्ष्य था 20 करोड़। तब जब नेहरू काफी लोकप्रिय बताये जाते थे।
शायद इसीलिए राजनीतिक दलों ने सरकारी पैसे और संसाधनों के दम पर मेमोरियल बनाने की राजनीति को अंजाम दिया होगा। इक्कीसवीं सदी में मायावती ने इसके स्केल को इतना बड़ा कर दिया कि राजनीतिक दुनिया हैरान हो गई। लगभग 5,000 करोड़ की लागत से लखनऊ और नोएडा में अंबेडकर और दलित नायकों की मूर्तियों के भव्य पार्क बनाने शुरू कर दिए। लेकिन मायावती नहीं रुकी। अपनी और कांशीराम की मूर्ति लगवा दी। दलित नायकों की मूर्तियां बीएसपी के उभार से पहले कहीं नज़र भी नहीं आती थीं।
कांग्रेस ने भी राजीव गांधी की हत्या के बाद श्रीपेरंबुदूर में स्मृति स्थल बनवा दिया। कांग्रेस सरकार ने यहां मंदिर के करीब 12 एकड़ ज़मीन को अधिग्रहीत कर लिया। मंदिर ने इसका काफी विरोध किया, लेकिन कामयाबी नहीं मिली। इस गांव का नाम बदल कर राजीवपुरम भी कर दिया गया। लिहाज़ा गांव अपने नाम से भी वंचित हो गया।
गुजरात में सरदार पटेल की भव्य प्रतिमा का एलान हो चुका है। इसके लिए इस बार के बजट में केंद्र सरकार ने 200 करोड़ और गुजरात सरकार ने अबतक 500 करोड़ रुपये जारी किए हैं।
मूर्तियों को लेकर सवर्दलीय सम्मेलन बुलाएं, तो बिना किसी विरोध के वह सम्मेलन खत्म होगा। यह तय है। सन 2000 में सरकारी बंगलों को मेमोरियल में बदलने पर रोक लग चुकी थी। एनडीए सरकार ने लगाई थी। लेकिन 2013 में यूपीए सरकार ने इसे बदला और 6 कृष्णमेनन मार्ग स्थित बंगले को अगले 25 साल तक के लिए बाबू जगजीवन राम मेमोरियल में बदलने की अनुमति दे दी। करीब दो करोड़ किराया भी माफ कर दिया। मीरा कुमार जब स्पीकर बनीं तो स्पीकर के बंगले में रहने चली गईं मगर इस बंगले को नहीं छोड़ा। दावा था कि इस मकान में बाबू जगजीवन राम रहते रहे इसलिए उनका मेमोरियल बनना चाहिए।
पिछले मई में यूपीए सरकार ने भी एनडीए की तरह नियम बनाया कि यमुना के किनारे अब कोई वीआईपी समाधि नहीं बनेगी। जगह नहीं है। गांधी नेहरू इंदिरा और राजीव की समाधि में 245 एकड़ ज़मीन खप गई है। सरकार ने फैसला किया था कि अब राष्ट्रीय समिति बनेगी। वहीं पर अब राष्ट्रीय नेताओं के अंतिम संस्कार होंगे।
मेमोरियल के अपने तरीके होते हैं। सीबीएसई ने दीनदयाल उपाध्याय पर एक स्पेशल सीरीज शुरू की है, पहली क्लास से 12 वीं क्लास के बच्चों के लिए प्रतियोगिता शुरू की गई है। 25 सितंबर को पंडित दीनदयाल उपाध्याय के जन्मदिन पर 90 विजेताओं को पुरस्कार दिया जाएगा। बीजेपी के नेता दीनदयाल उपाध्याय को प्रतीक पुरुष मानते हैं। चलिये अजित सिंह को समझाते हैं कि वे यह आंदोलन न करें।
(प्राइम टाइम इंट्रो)