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This Article is From Aug 02, 2016

प्राइम टाइम इंट्रो : यूपी में कांग्रेस ने फूंका चुनावी बिगुल

Ravish Kumar
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    अगस्त 02, 2016 21:49 pm IST
    • Published On अगस्त 02, 2016 21:49 pm IST
    • Last Updated On अगस्त 02, 2016 21:49 pm IST
2007 में जब मंदी आई थी तब उसी साल शाहरुख़ ख़ान की एक फिल्म आई थी. 'ओम शांति ओम'. इस फिल्म का एक गाना था 'दर्दे डिस्को.' 2016 में उत्तर प्रदेश में मंदी की शिकार कांग्रेस ने बनारस में अपनी एक यात्रा लॉन्‍च की है. इसका नाम है दर्दे बनारस. दर्दे डिस्को के रचयिता था जावेद अख़्तर साहब. दर्दे बनारस के रचयिता बताये जा रहे हैं प्रशांत किशोर. दर्दे बनारस किसका दर्द है. कांग्रेस का या बनारस के लोगों का जिसे कांग्रेस अपने नारों से आवाज़ देना चाहती है. वैसे सोनिया गांधी की तबीयत ख़राब हो गई और वे रोड शो बीच में छोड़ कर दिल्ली लौट आईं.

अभी तक गांधी अंबेडकर युग्म का इस्तमाल होता था, पहली बार अंबेडकर-त्रिपाठी जैसा युग्म बनाने का प्रयास हो रहा है. सोनिया गांधी ने बनारस में डॉक्टर अंबेडकर की प्रतिमा पर फूल चढ़ाकर अपनी यात्रा की शुरुआत की. यह रोड शो छह किमी चल कर इंग्लिशिया लाइन के पास कमलापति त्रिपाठी के नाम पर बने तिराहे के पास समाप्त हुआ. इसी जगह पर कांग्रेस का पुराना दफ्तर है. सोनिया गांधी कहीं कार के भीतर रहीं तो कहीं कहीं कार से बाहर भी निकलीं. रणनीतिकारों के हवाले से कहा गया है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के क्षेत्र से रोड शो की शुरुआत का एक राजनीतिक मैसेज है. कांग्रेसी कार्यकर्ता उत्साह में तो दिखे और शायद स्थानीय राजनीति को समझने वालों के अनुसार एकजुट भी. उनका कहना है कि नतीजा तो पता नहीं लेकिन कांग्रेसी कार्यकर्ताओं की भीड़ देखकर लग रहा है कि 27 साल से हारने वाली पार्टी इतना बता रही है कि वो ज़िंदा है. वो दावेदार है.

कमलापति त्रिपाठी 1971 से 73 के बीच यूपी के मुख्यमंत्री रहे, 1975 से 77 और 1980 में थोड़े वक्त के लिए रेल मंत्री हुए. बनारस में कई लोग कहते हैं कि डीज़ल लोकोमोटिव कारखाना से लेकर कई काम कराने का श्रेय इन्हें जाता है. उनकी मृत्यु के 26 साल बाद उनकी ऐसी कौन सी राजनीतिक पूंजी बची होगी जिसके दम पर कांग्रेस ब्राह्मण मतदाता को रिझाने का प्रयास कर रही है. रोड शो में आए कितने कांग्रेसी कार्यकर्ताओं को अब कमलापति त्रिपाठी की स्मृति भावुक करती होगी. कमलापति त्रिपाठी ने दस से ज्यादा किताबें लिखी हैं. विरले ही होंगे जिन्होंने उनकी कोई किताब पढ़ी होगी.

2008 में कमलापति त्रिपाठी की 103वीं पुण्यतिथि पर दिल्ली में सोनिया गांधी, मनमोहन सिंह ने उनकी एक किताब बापू और मानवता का लोकार्पण किया था. इस मौके को रिपोर्ट करते हुए इंडियन एक्सप्रेस के डी के सिंह ने लिखा था कि कांग्रेस 2009 के लोकसभा चुनावों को देखते हुए यूपी में अपनी सीट बढ़ाने के लिए कमलापति त्रिपाठी को याद कर रही है ताकि ब्राह्मण मतदाता उनके नाम पर पार्टी के पास आ सकें. पत्रकार डी के सिंह ने लिखा था कि ऐसा बहुत कम होता है जब एआईसीसी महात्मा गांधी, जवाहर लाल नेहरू, इंदिरा गांधी और राजीव गांधी को छोड़ कर किसी बड़े नेता की जयंती या पुण्यतिथि मनाती हो.

कमलापति त्रिपाठी मोतिलाल नेहरू के ज़माने से गांधी परिवार के साथ रहे. कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष भी रहे. राजीव गांधी तक आते आते उनकी कुछ अनबन भी हो गई जिसके कारण उन्होंने 1986 में नेतृत्व की कमियों को गिनाते हुए राजीव गांधी को एक लंबा ख़त भी लिखा था. जब कांग्रेस कार्यसमिति नाराज़ हो गई तो कमलापति त्रिपाठी को माफी मांगनी पड़ी. वे आजीवन कांग्रेसी रहे. चार पीढ़ियों से उनका परिवार कांग्रेस में है. कमलापति के बेटे लोकपति त्रिपाठी भी मंत्री बनें. वे कभी मुख्यमंत्री नहीं बन सके. लोकपति त्रिपाठी की पत्नी चंद्रा त्रिपाठी चंदौली लोकसभा से सांसद रही हैं. लोकपति त्रिपाठी के बेटे राजेशपति त्रिपाठी चुनाव लड़े. राजेशपति त्रिपाठी के बेटे ललितेशपति त्रिपाठी इस वक्त मड़ियान से विधायक हैं.

यह सूची भारतीय राजनीति की एक बुनियादी समस्या के प्रति इशारा भी करती है. कमलापति इतने ही बड़े नेता होते तो उनके नाम पर उनके वारिसों की तूती बोल रही होती. कांशीराम की राजनीति ने उत्तर प्रदेश की राजनीति के सारे बुनियाद बदल डाले. ठाकुर ब्राह्मण मुख्यमंत्री की बात तो दूर, पार्टी में कोई बड़ी हैसियत नहीं मिलती थी.

यूपी में राजनीतिक चर्चाओं में ब्राह्मण मतदाताओं की गिनती भी बंद हो गई थी. यूपी की राजनीति में ब्राह्मण मतदाताओं की पुनर्खोज का श्रेय मायावती को जाता है. जून 2005 में लखनऊ में मायावती ने ब्राह्मण सम्मेलन कर सबको चौंका दिया था. 2007 में 86 ब्राह्मणों को टिकट दे दिया जिसमें से 34 जीत गए. 2007 में बसपा ही एकमात्र पार्टी बनी जिसके पास सबसे अधिक ब्राह्मण और ठाकुर विधायक थे. सतीश मिश्रा मायावती के विश्वासपात्र बनकर उभरे. उस साल पहली बार बसपा में मायावती के अलावा दो अन्य नेताओं को हेलिकॉप्टर मिला था. नसीमुद्दीन सिद्दीकी और सतीश मिश्रा. 2012 में भी मायावती ने 74 ब्राह्मण उम्मीदवार उतारे मगर चुनाव ही हार गईं. 2007 में 86 ब्राह्मणों को टिकट देकर मायावती ने भारतीय राजनीति और समाज के ऐतिहासिक चक्र को पलट दिया था. 2007 के यूपी विधानसभा चुनाव की रिपोर्टिंग निकाल कर देखेंगे तो आज से कहीं ज्यादा तब ब्राह्मण मतदाता की चर्चा हुआ करती थी. यूपी का हालिया इतिहास बताता है कि ब्राह्मण मतदाताओं ने त्रिपाठी, मिश्रा और तिवारी देखकर वोट देना छोड़ दिया है. उस पर बीजेपी की भी दावेदारी है और बसपा की भी. कांग्रेस के पास नेता है तो बसपा के पास जीतने की गारंटी.

अब एक सवाल है जो 2014 से भारतीय राजनीति में बना हुआ है. क्या राजनीति प्रबंधन से निर्धारित होती है. क्या अब पार्टी में किसी की हैसियत नहीं रही कि वो अपने दम पर कार्यकर्ताओं और गुटों को जुटा ले. क्या इसके दम पर कांग्रेस अपने भीतर जान भर सकती है. इससे पहले लखनऊ में कांग्रेस के बूथ स्तर के कार्यकर्ताओं का जुटान हुआ. रैंप बनाया गया जिस पर राहुल गांधी ने कार्यकर्ताओं से संवाद किया. कार्यकर्ताओं की भीड़ उस पार्टी के लिए हैरानी पैदा कर रही थी जो 27 साल से यूपी की सत्ता में नहीं है. क्या जनता इस तरह के प्रबंधन से हैरत में आ जाती होगी. बनारस में भी कांग्रेसी कार्यकर्ताओं का उत्साह दिखा. नए नए झंडे बता रहे थे कि वे कम से कम लड़ने के लिए तैयार हैं. 2014 में नरेंद्र मोदी ने उससे पहले अटल बिहारी वाजपेयी और उनसे भी पहले राजीव गांधी ने इस शैली की शुरुआत की थी. बीच में यूपी की राजनीति में अमर सिंह वीडियो रथ ले आए थे.

मगर राजनीतिक प्रबंधन का परिपक्व रूप दिखा 2014 में. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी थ्री डी के ज़रिये लोगों के बीच पहुंचने लगे. नेता एक साथ कई रूपों में लीला करने लगा. कई मूर्तियों पर माल्यार्पण करने लगे. बनारस में नामांकन भरने गए तो प्रस्तावकों के नामों की घोषणा ऐसे हुई जैसे किसी राजा को धरती पर उतारा जा रहा हो. उम्मीद है बनारस में उनके प्रस्तावक काफी प्रसन्न होंगे. चाय पे चर्चा जैसा ब्रांड लांच हुआ. उन्हीं कार्यक्रमों की नकल में पंजाब में एक नकली ब्रांड लांच हुआ है. हल्के विच कैप्टन. मतलब आइडिया वही है 2014 वाला जिसे प्रधानमंत्री मोदी ने छोड़ दिया है. हमारी राजनीति आइडिया की भूखी हो गई है. दिल्ली की सड़कों पर बरसात के कारण गड्ढे बन गए तो कांग्रेसी नेताओं ने मगरमच्छ और शार्क की मूर्ति डालकर उसे रोचक बना दिया और उनका प्रदर्शन कैमरे पर आ गया. कांग्रेसी नेता यह भूल गए कि यह आइडिया कर्नाटक से आया है जहां उन्हीं की सरकार है. वहां पर कलाकार इसी तरह गड्ढों को भरकर अपना विरोध दर्ज करते हैं. बंगलुरु में जो आइडिया कांग्रेसी सरकार के ख़िलाफ है दिल्ली में वही आइडिया कांग्रेसी कार्यकर्ताओं का हथियार है. जो मोदी का आइडिया है वही राहुल का है और वही अरविंद का.

क्या कांग्रेस यह बता रही है कि प्रबंधन और तैयारी पर सिर्फ बीजेपी का एकाअधिकार नहीं है. 27 साल से सत्ता का विस्थापन झेल रही कांग्रेस के पास यूपी में 28 विधायक हैं. अपवाद को छोड़ दें तो इनमें से एक भी नेता ऐसा नहीं हुआ जिसमें ख़ुद को बड़ा करने और कांग्रेस को ज़िंदा करने की भूख कभी दिखी हो. उसकी कोई ताकत नहीं बची है इसलिए दिल्ली की तरफ ताकता है.

इसलिए आप इस भीड़ में कार्यकर्ताओं के उत्साह और जीप ट्रक के ऊपर बैठे नेताओं के उत्साह में अंतर देखेंगे. जितने विश्वास से कार्यकर्ता आया है, नेताओं को देखकर लग रहा है जैसे वे अपने आप से हैरान हों कि क्या क्या करना पड़ रहा है. नहीं जीते तो क्या क्या सुनना पड़ेगा. या आपको इसमें कांग्रेस के भीतर किसी नई इच्छाशक्ति का उदय दिख रहा है. राजनीति में संघर्ष जब आयोजन बन जाता है तब उसका बहुत लाभ नहीं मिलता है. कांग्रेस को जल्दी ही अपने उम्मीदवारों की जाति से आगे निकलकर नीति पर आना होगा. उसके स्थानीय नेताओं और कार्यकर्ताओं में ऐसी धार नहीं बची है कि वो रोहित वेमुला से लेकर ऊना की घटना तक और गौ रक्षकों को लेकर आक्राम प्रहार कर सकें. उसके नेता इसी दुविधा में रहे कि राहुल गांधी ने जेएनयू जाकर ठीक किया या नहीं किया. वे कभी हिन्दुत्व के आगे झुक जाते हैं तो कभी लड़ने की औपचारिकता निभा कर किनारे हो जाते हैं. कांग्रेस का संकट सिर्फ चुनाव का नहीं है. बड़े से लेकर छोटे नेताओं में विचार का घोर संकट है. दो साल में मोदी सरकार की सख्त समीक्षा तो हुई लेकिन विपक्ष के रूप में कांग्रेस की भूमिका की नहीं हुई है.
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