सीपीएम नेता सीताराम येचुरी ने आधार बिल को मनी बिल के रूप में पेश करने पर सवाल उठाया। कहा कि इस मामले में सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की बेंच विचार कर रही है। बिल लाने की जल्दी क्या थी। मनी बिल का रूप देकर राज्यसभा के अधिकार को चुनौती दी गई है। वित्त मंत्री ने कहा कि तब भी जबकि मामला अदालत में है, संसद के पास कानून बनाने के अधिकार सुरक्षित हैं। अगर पैसा भारत के राजकोष से संबंधित है तो वो मनी बिल हो सकता है। सवाल ज़रूर उठे मगर सवाल को स्वीकार नहीं किया गया। बहस मनी बिल के रूप में ही हुई। मनी बिल के तहत राज्यसभा किसी बिल में संशोधन सुझा सकती है मगर 14 दिन से ज्यादा रोक नहीं सकती। इसे पास मान लिया जाएगा। मगर आज विपक्ष ने अपने एतराज़ों से सरकार को ऐसे घेरा कि कई संशोधनों को स्वीकार करना पड़ गया और बिल को फिर से पास होने के लिए लोकसभा में भेजा गया।
येचुरी के अलावा कांग्रेस के जयराम रमेश ने भी आधार बिल पर कई सवाल खड़े किये। जयराम रमेश भी मनी बिल वाले पहलू पर काफी रिसर्च करके आए थे। उन्होंने जो कहा वो हमें यह भी समझने में मदद करता है कि एक सांसद अपनी जानकारी से सदन को कितना समृद्ध कर सकता है और उस जानकारी के लिए वो कितनी मेहनत करता है।
वित्त मंत्री जेटली ने 5 मार्च को लोकसभा में कांग्रेस पर पलटवार करते हुए कहा था कि उनकी सरकार में भी 1986 का जुवेनाइल जस्टिस बिल और 1983 का अफ्रीकन डेवलपमेंट बैंक बिल मनी बिल के रूप में पेश किया गया था। जयराम रमेश ने बताया कि इसे चेक करने के लिए वे संसद की लाइब्रेरी में गए। 500 पन्नों की रिपोर्ट पढ़ी। दोनों बिल से जुड़े अफसरों के पास भी गए। राज्यसभा सचिवालय से पूछा कि क्या ये मनी बिल है या नहीं। दोनों ही मनी बिल नहीं थे। ये एक नोट मुझे राज्यसभा सचिवालय से मिला है लेकिन मैं चाहता हूं कि सदन के नेता बतायें कि ये जानकारी क्या मैन्युफैक्चर हुई कि दोनों मनी बिल थे। जेटली को जवाब देना पड़ गया कि उन्हें ये जानकारी लोकसभा की वेबसाइट से मिली है। राज्यसभा के उप सभापति पी.जे. कूरियन ने कहा कि ये डाटा एंट्री का मसला हो सकता है। इसे सदन में अलग से निपटाया जाएगा।
जिस डेटा पर हम इतना भरोसा कर रहे हैं उसके एंट्री को लेकर गलती हो सकती है, वो भी उसी सदन की वेबसाइट पर जहां खड़े होकर सरकार आश्वासन दे रही है कि आधार कार्ड के लिए जमा की गई जानकारियां लीक नहीं हो सकतीं। लेकिन लोकसभा के सांसदों ने जयराम रमेश की तरह मेहनत क्यों नहीं की। स्क्रोल न्यूज़ साइट के अनुसार लोकसभा में जब आधार बिल 2016 में पेश किया गया तो उसके पास करने के वक्त 545 में से 73 सांसद ही सदन में मौजूद थे। राज्यसभा में सरकार के पास बहुमत नहीं है लेकिन वहां इस बिल के प्रावधानों को लेकर खूब घेरा घारी हुई।
जयराम ने कई सवाल उठाए जिन्हें संशोधनों के तौर पर उन्होंने राज्यसभा से पास भी करवाया। जैसे बायोमीट्रिक जानकारी, कोर बायोमीट्रिक जानकारी और डेमोग्राफिक जानकारी की बिल में ही बारीकी से व्याख्या की जाए ताकि बाद में उनकी व्याख्या नियमों की शक्ल में मनमाने तरीके से ना की जा सके। आधार स्कीम में शामिल व्यक्ति को उससे बाहर निकलने का विकल्प मिले और इसके बाद उससे जुड़ी सभी जानकारियां नष्ट कर दी जाएं। अथॉरिटी इसका सर्टिफ़िकेट भी दे। आधार को ऐच्छिक ही होना चाहिए, अनिवार्य नहीं किया जाना चाहिए। जो व्यक्ति आधार का हिस्सा नहीं बनना चाहता उसे सरकारी सुविधाएं और सब्सिडी हासिल करने के लिए दूसरे विकल्प दिए जाने चाहिए। राष्ट्रीय सुरक्षा बड़ा ही व्यापक और ढीला ढाला शब्द है, उसकी जगह पब्लिक इमरजेंसी शब्द रखा जाए जैसा कि इंडियन टेलीग्राफ़ एक्ट में है।
लोकसभा में आधार बिल बिना संशोधन के पास हुआ था। राज्यसभा में जयराम रमेश के चार संशोधन सदन में पास हो गए क्योंकि यहां बहुमत विपक्ष के पास है। संसदीय रणनीति के जानकार मानते हैं कि ऐसा होना किसी भी सरकार के लिए शर्मिंदगी से कम नहीं है। वैसे सरकार राज्यसभा में पास हुए संशोधनों को स्वीकार करने के लिए बाध्य नहीं है मगर नियमों के तहत इसे वापस लोकसभा में पास कराना होगा।
वित्त मंत्री ने कहा है कि इस बिल के तहत व्यक्तिगत गोपनीयता के भंग होने की आशंका सही नहीं है। आधार का डेटा राष्ट्रीय सुरक्षा के अलावा किसी भी हाल में साझा नहीं किया जाएगा।
एक छोटी सी कहानी है। मुझे पता नहीं आधार के विवाद को समझने में मदद करती है या नहीं लेकिन साझा कर सकता हूं। इस कहानी का कोई आधार नंबर नहीं है और न ही इसका किसी के पास बायोमेट्रिक है। 1906 में दक्षिण अफ्रीका में एक कानून आया था कि सभी एशियाई पुरुष को रजिस्टर कराना होगा और मांगने पर एक पहचान पत्र दिखाना होगा जिस पर उसके अंगूठे के निशान होंगे। जिसके पास ऐसा नहीं है तो उसे वापस जहाज़ से वहां भेज दिया जाएगा जहां से आया है। इसके खिलाफ गांधी ने जनसभा बुलाकर इस कानून को काला कानून घोषित कर मानने से इंकार कर दिया। गांधी ने पूरे कानून का विरोध करते हुए अंगूठे के निशान को लेकर भी विरोध किया यह अभी बताने की स्थिति में नहीं हूं। लेकिन वित्त मंत्री ने अमेरिका का उदाहरण दिया कि 1935 में ही अमेरिका ने सोशल सिक्योरिटी नंबर बना लिया था। हम 80 साल पीछे हैं। अमेरिका अमेरिका में इसे कई बार चैलेंज किया गया। इनकम टैक्स के लिए ज़रूरी किया, कई नीतियों और आर्थिक गतिविधियों, हथियार रखने के लिए इसे कंपलसरी किया गया। इसने उनकी नेशनल सिक्योरिटी में उन्हें मदद की। इसे लगातार चैलेंज दिया गया और हर मामले में उनकी अदालतों ने कहा कि नेशनल सिक्योरिटी एक सही वजह है।
अमेरिका के सोशल सिक्योरिटी नंबर और भारत के आधार नंबर में एक बुनियादी फर्क ये है कि सोशल सिक्योरिटी नंबर के लिए बायोमेट्रिक पहचान नहीं ली जाती है। अर्थात आपकी उंगलियों के निशान, आंखों की पुतली का स्कैन नहीं किया जाता है। आधार को लेकर विवाद का बड़ा हिस्सा बायोमेट्रिक पहचान को लेकर भी है। अगर अमेरिका में 1935 में सोशल सिक्योरिटी नंबर आ गया था तो उस देश में आधार क्यों नहीं आया या सोशल सिक्योरिटी नंबर में बायोमेट्रिक पहचान क्यों नहीं जोड़ दी गई। जबकि सपनों के उस मुल्क में भी ग़रीब हैं और सरकार उन्हें सब्सिडी देती है।
मैंने एक विधायक जी से बात की जो आधार कार्ड बनवाने की प्रक्रिया से जुड़े रहे हैं। उन्होंने कहा कि कई औरतों के काम करते करते और बर्तन मांजते मांजते उंगलियों के पोर घिस जाते हैं। ऐसी महिलाओं के बायोमेट्रिक निशान लेने में दिक्कत आती है। बायोमेट्रिक बनने के बाद आगे चलकर जब उंगलियों के पोर घिस जाते हैं तब उसके साथ क्या होगा। क्या वो राशन की दुकान से लौटा दी जाएगी। यही दिक्कत पुरुष मज़दूरों के साथ भी आती है। कई बार बुजुर्गों की उंगलियों की पोर के निशान मिलते ही नहीं हैं। मोतियाबिंद के कारण भी पुतलियों के निशान का मिलान मुश्किल होता है। देश के कई राज्यों में मोतियाबिंद के ऑपरेशन के बाद आंखों की रोशनी चली जाती है। अगर हम अनिवार्य रूप से आधार पर निर्भर रहेंगे तो ऐसी परिस्थिति में क्या होगा। कई बार मशीनों की गुणवत्ता में अंतर के कारण भी काफी फर्क आ जाता है।
बीजेडी सांसद ने कहा कि संसद में ही कई बार बायोमेट्रिक ठीक से काम नहीं करता है। वैसे कई जगहों पर बायोमेट्रिक मशीन बीच बीच में काम नहीं करती है। अगर इसकी वजह से किसी गरीब को उसी दिन राशन नहीं मिला तो उसके साथ क्या होगा। एक सवाल है गोपनीयता के भंग होने का। एक सवाल है आधार के तहत जमा जानकारी को सुरक्षित रखने का। ये बिल्कुल आज कल की खबर है कि बांग्लादेश के विदेशी मुद्रा भंडार को हैक कर लिया गया और 10 करोड़ डॉलर उड़ा लिये गए। वहां के केंद्रीय बैंक के गर्वनर को इस्तीफा देना पड़ा है।
जून 2013 में ब्रिटेन के गार्डियन अखबार स्नोडन के हवाले से कई खुलासे छापने लगा कि कैसे अमेरिका की नेशनल सिक्योरिटी एजेंसी अपने और दुनिया के दर्जनों मुल्कों के एक अरब से अधिक नागरिकों की जासूसी करती है। उनकी इंटरनेट और टेलिफोन की गतिविधियों पर नज़र रख रही है। कुछ समय पहले सोनी पिक्चर के कंप्यूटर सिस्टम पर हैकरों ने हमला बोल दिया था। चीन भी साइट हैक कर लेता है। साइबर युद्ध एक हकीकत है। ऐसे में इतना बड़ा डेटा सुरक्षित ही है इसका दावा हम कैसे कर सकते हैं। मार्च 2015 में सरकार ने संसद को बताया था कि 2012 से लेकर मार्च 2015 के बीत 700 से अधिक सरकारी वेबसाइट को हैक किया गया है मगर उनमें कोई संवेदनशील सूचना नहीं थी। सरकार के गाइडलाइन के अनुसार संवेदनशील जानकारी वाले सरकारी कंप्यूटर बाकी सिस्टम से अलग हैं।
न्यूज़ साइट स्क्रोल डाट इन पर उषा रंगनाथन ने लिखा है कि कुछ दिन पहले रेडियो पर एक विज्ञापन सुना। एक कंपनी दावा कर रही है कि वो भारत का पहला आधार पर आधारित मोबाइल ऐप है जो आपके घर में काम करने वाले लोगों जैसे ड्राईवर, टीचर, किरायेदार की पहचान की पुष्टि करता है। उषा रंगनाथन चेतावनी दे रही हैं कि अगर एक प्राइवेट कंपनी ऐसा कर सकती है तो आप यह सोचिये कि कंपनियां आपके आधार की सूचना का अपने हित में किस तरह से इस्तेमाल कर सकती हैं।
तो हम सुरक्षा और गोपनीयता को लेकर आज भी बहस करेंगे। प्राइम टाइम में।