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This Article is From Dec 21, 2014

प्रदीप कुमार की कलम से : आखिर भारतीय कबड्डी की मुश्किल क्या है?

Pradeep Kumar
  • Blogs,
  • Updated:
    दिसंबर 28, 2014 14:32 pm IST
    • Published On दिसंबर 21, 2014 15:10 pm IST
    • Last Updated On दिसंबर 28, 2014 14:32 pm IST

क्रिकेट के एक औसत मुकाबले में अगर टीम इंडिया बांग्लादेश जैसी टीम को हरा दे, तो इस खबर को मीडिया में जितनी चर्चा मिलती है, उतनी शायद किसी दूसरे खेल में आप वर्ल्ड कप का खिताब भी जीत लें तो नहीं मिलेगी।

यही वजह है कि भारत के ब्लाइंड क्रिकेटर अगर रोमांचक अंदाज में वर्ल्ड कप का खिताब जीत लेते हैं तो उसकी ज़्यादा चर्चा नहीं हुई। अब यही हाल कबड्डी वर्ल्ड कप का खिताब जीतने वाली भारतीय टीम के साथ हुआ है। वो भी तब जब पुरुष और महिला दोनों टीमों ने वर्ल्ड कप पर कब्जा जमाया।

भारत ने लगातार पांचवीं बार वर्ल्ड कप कबड्डी का खिताब जीता है। पंजाब के बादल मुक्तसर स्थित गुरु गोबिंद सिंह स्टेडियम में भारत ने पाकिस्तान को एक रोमांचक मुकाबले में 45-42 से हराकर वर्ल्डकप पर कब्जा जमाया तो वहीं दूसरी ओर महिला टीम ने न्यूज़ीलैंड को 36-27 अंकों से हराकर लगातार चौथी बार वर्ल्ड कप का खिताब जीता है।

भारतीय टीम की इस दोहरी कामयाबी की कोई चर्चा तब देखने को नहीं मिली जब एक लंबे अरसे से कबड्डी की दुनिया में भारत का दबदबा है। 1990 से कबड्डी एशियाई खेलों में शामिल हुई, तब से भारत इसमें चैंपियन बनता आया है। वर्ल्ड कप की शुरुआत के बाद भारतीय टीम ही लगातार चैंपियन बन रही है।

साल दर साल कामयाबी हासिल करने वाले इन सुपरस्टार खिलाड़ियों के बारे में कोई नहीं जानता। न तो बाजार उन्हें अपना बिकाऊ चेहरा मानता है और न हमारा समाज उन्हें रोल मॉडल के तौर पर अपनाता है।

बाजार का बिकाऊ चेहरा और रोल मॉडल में भी अजीब समानता है। रोल मॉडल बनने के लिए या तो आपको बिकाऊ होना पड़ेगा या फिर कोई दूसरा बिकाऊ चेहरा आपको बेचने में लग जाए तो भी बात बन सकती है।

मुश्किल यह है कि कबड्डी के सुपरस्टार इन दोनों पैमानों पर फिट नहीं बैठते और न ही उनको फिट बिठाने की कोशिश हो रही है।

हालांकि पिछले ही दिनों एक निजी टीवी समूह द्वारा प्रायोजित प्रो कबड्डी लीग के दौरान यह साफ नजर आया कि भारत के ग्रामीण इलाकों का खेल कबड्डी अब महानगरों में धूम मचा रहा है।

इस परंपरागत खेल को देखने के लिए अमिताभ बच्चन, आमिर खान, शाहरुख ख़ान और सचिन तेंदुलकर सहित देश के दूसरी मशहूर हस्तियां स्टेडियम में नजर आईं।

तब एक उम्मीद बंधी थी, कबड्डी को लेकर। प्रो कबड्डी लीग के अलावा एक विश्व कबड्डी लीग का भी आयोजन हुआ था। लगा था कि ग्रामीण इलाकों के इस खेल के बहाने कारपोरेट समूह और बाजार की ताकतें देश की 65 फीसदी आबादी को टारगेट करेंगी। उनकी इस कोशिश में खेल का भी भला होगा।

लेकिन, तस्वीर उतनी चमकदार थी नहीं, जितनी बताई जा रही थी। जिस कबड्डी को भारत के गांवों का खेल माना जाता है, अब वो दुनिया के 33 देशों में पहुंच चुका है, लेकिन अपने ही मुल्क में इसकी रफ्तार नहीं बढ़ रही है।

हालांकि ये बात अब साफ हो चुकी है कि कबड्डी को भी प्रायोजक मिल सकते हैं, ये भी टीवी पर दिखाया जा सकता है। ये पापुलर भी हो सकता है। आलोचना करने वाले ये भी कहते हैं कि अगर दूसरे खेल के खिलाड़ी अच्छा नहीं करेंगे तो फिर बाज़ार को ही दोष क्यों दें, ऐसा कबड्डी के साथ नहीं कहा जा सकता है।

यह संकट समाज का भी नहीं है, अगर ये संकट समाज का होता तो कबड्डी का खेल बचता ही नहीं। तो फिर कबड्डी के साथ मुश्किल क्या है, मुझे तो जवाब नहीं मिल रहा, आप भी सोचिएगा। मिले तो बताइएगा, आपके जवाब का इंतज़ार रहेगा।

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