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This Article is From Apr 06, 2016

नूर ही नूर से वाबस्ता अगर रहना है, सर पे सूरज को उठा सिर्फ़ किरन ले के न चल...

Pooja Prasad
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    नवंबर 05, 2016 09:10 am IST
    • Published On अप्रैल 06, 2016 15:30 pm IST
    • Last Updated On नवंबर 05, 2016 09:10 am IST
नूर ही नूर से वाबस्ता अगर रहना है, सर पे सूरज को उठा सिर्फ़ किरन ले के न चल...

आज ही ट्विटर पर अबरार किरतपुरी के हैश टैग के साथ ये पक्तियां पढ़ी थीं, और आज ही मेरी अनामिका (परिवर्तित नाम) से बात हो गई। कभी किसी आपाधापी में और कभी मेरी-उसकी व्यस्तता के चलते तकरीबन दो साल से हमारी बातचीत नहीं हुई थी। होली दीवाली के मैसेज वॉट्सऐप पर शेयर करते लेकिन जिन्दगी कदम-दर-कदम कहां पहुंच रही, इस पर अब न बात हो पाती थी, न ठहाके लग पाते थे।

कुछ साल पहले मैं जिस मैगजीन में काम करती थी, वह वहां मार्केटिंग डिपार्टमेंट में थी। दिन दिन भर नहीं दिखती और कभी-कभी पूरे पूरे दिन ऑफिस में ही होती। सामजिक मसलों पर राय रखती, हमसे कई मुद्दों पर बाल की खाल जानने की कोशिश करती। यह जोशीली और मेहनती लड़की तब 22 साल की रही होगी।

अपने व्यवहार और जिन्दादिली में वह खास तो थी ही, उसके बारे में लगी कुछ और जानकारी ने मुझे हैरान भी किया परेशान भी। अनामिका को टाइप1 डायबिटीज है। इसके चलते उसे समयानुसार नियमित तौर पर इंसुलिन के इंजेक्शन लेने होते हैं। 26 साल हो गए लेकिन रोग नहीं छूटा.. बल्कि वह ऐसा साथी बन गया जिसने अनामिका को बहुत कुछ सिखा दिया। 6 साल की थी अनामिका जब डायबिटीज डाइग्नोज़ हुआ था और आज वह 32 साल की है।

नन्ही सी उम्र से ही खाने पीने में बेहद अनुशासन बरतना पड़ा। दिनचर्या ऐसी रखनी पड़ी जो दवा और भोजन के अनुशासन को न तोड़े। कभी दवा मिस हो जाती तो लेने के देने पड़ जाते। बचपन में आइसक्रीम खाने का मन करता, चॉकलेट को मन ललचाता। स्कूल-कॉलेज में जब जश्न के दौरान मिठाई दोस्त मुंह में डालने लगते.. तब खुद को याद दिलाना होता कि यह सब मेरे लिए नहीं है। अनामिका हमेशा की तरह आज भी चहकती रहती है और कहती है कि इस रोग ने उसे अपने लाइफस्टाइल को सही तरीके से रखना भी सिखा दिया है। परिवार का सपोर्ट तो रहा लेकिन हां, कई बार सहकर्मियों-कथित दोस्तों के रवैये से आहत होती थी। एक नौकरी के दौरान उसके सहकर्मियों ने साथ खाना तक यह कहते हुए बंद कर दिया था क्योंकि उन्हें लगता था कि यह बीमारी उन्हें भी हो जाएगी।

अनामिका अब प्रोफेशन बदल चुकी है। वह एक नामी स्कूल में मास मीडिया सब्जेक्ट की क्लासेस लेती है। कहती है कि अब भी अक्सर लोग मुंह बनाने लगते हैं। हैरानी होती है। बात करना बंद कर देते हैं। जान पहचान खत्म कर देते हैं। आखिर यह कोई ऐसा भी छूत का रोग नहीं है जो साथ उठने-बैठने से फैल जाएगा। वाकई.. अनामिका की बात से इत्तेफाक तो संभवत: हम सभी रखेंगे लेकिन जब इस पर अमल करने की बात आएगी तो कितने संकुचित हो जाएंगे...!

दुनिया में ऐसे लाखों लोग हैं जो डायबिटीज से जूझ रहे हैं। आप सोचिए, यदि हम और आप रोगों के आधार पर लोगों से दूरियां बनाते रहे तो सब कितने अकेले होते जाएंगे। यह भी तो संभव है कि तब एक वक्त ऐसा भी आए जब हमें-आपको सहारे, समझ और संवेदनशीलता की जरूरत हो लेकिन यह हमें-आपको मुहैया न हो...

आज यानी 7 अप्रैल को वर्ल्ड हेल्थ डे है। इस साल की थीम है डायबिटीज यानी मधुमेह, जिसे आम बोलचाल की भाषा में चीनी की बीमारी भी कहा जाता है। वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गनाइजेशन (WHO) की वेबसाइट के मुताबिक,  साल 2008 में दुनियाभर में लगभग 347 मिलियन लोग डायबिटीज से ग्रस्त थे। बीमारी तेजी से फैल रही है और निम्न व मध्यम आय वाले देशों के लोगों को ज्यादा हिट कर रही है। साल 2012 में इस बीमारी की चपेट में आकर 1.5 मिलियन लोगों की मौत हो गई। इनमें से 80 फीसदी से अधिक मौतें निम्न व मध्यम आय वाले देशों में हुई थीं। WHO के मुताबिक, साल 2030 तक डायबिटीज दुनिया में होने वाली मौतों के पीछे का सातवां सबसे बड़ा कारण होगा।

WHO के मुताबिक ही स्वास्थयवर्धक डाइट, नियमित शारीरिक गतिविधि, सामान्य वजन मैंटेन करने और तंबाकू का सेवन न करने से टाइप टू डायबिटीज से बचा जा सकता है या फिर कम से कम इसे 'डिले' किया जा सकता है। यह बीमारी धीरे-धीरे व्यक्ति के ह्रदय, रक्त धमनियों, आंखों, किडनी और नसों को बुरी तरह से डैमेज करने लगती है।

अनामिका कहती है कि डायबिटीज के साथ जीना इतना भी मुश्किल नहीं... हां अपने पैरों पर खड़े हों, अपने खान पान और गतिविधियों को अनुशासन और डॉक्टरी परामर्श के मुताबिक रखें। लोगों के टोकने, कुछ भला बुरा कहने की परवाह न करें। अनामिका ने हंसते हुए मुझसे कहा- आम इंसान और डायबिटिक में फर्क सिर्फ यह है कि डायबिटिक को दवा लेनी होती है।

सही ही बोली मेरी जिन्दादिल दोस्त। वैसे तो हरेक रोग अपने आप में तकलीफ लाता है, वह रोग ही क्या जो एक हद तक बेबस न कर दे! रोग तोड़ते तो हैं, लेकिन सही समझ, आसपास के लोगों के सपोर्ट और दवाओं के नियमित इस्तेमाल से जीवन जीने लायक बनाया जा सकता है। फिर जब रोग बिना किसी वर्ग, लिंग और रंग के भेद झपट्टा मार सकता है तो हम और आप रोगियों के प्रति बिना किसी भेदभाव के संवेदनशीलता क्यों नहीं बरत सकते?

(पूजा प्रसाद Khabar.ndtv.com में डेप्युटी न्यूज एडिटर हैं)

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