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This Article is From May 15, 2015

मुझे भी 'पीकू' के साथ लौटना है उस शहर

Ravish Kumar
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  • Updated:
    मई 15, 2015 22:40 pm IST
    • Published On मई 15, 2015 22:04 pm IST
    • Last Updated On मई 15, 2015 22:40 pm IST
इस फ़िल्म में एक शहर वापस अपने शहर लौटता है। 1911 के साल में कोलकाता दिल्ली आ गया था, 2015 के साल में भास्कर घोष दिल्ली के चित्तरंजन पार्क से कोलकाता लौटना चाहते हैं। बहुत कुछ नया देख लेने के बाद वह कोलकाता लौटना चाहते हैं। एक कब्ज़ है जो इन दो शहरों के दरम्यान फंसा हुआ है। एक मैं हूं जो 'पीकू' की कहानी में फंसा हुआ हूं। मैं कोलकाता का नहीं हूं पर कोलकाता मेरा शहर भी है।

साल में एक बार लौटता हूं तो भास्कर बनर्जी की तरह अकेला इसकी इमारतों, रास्तों और गलियों में भटकने लगता हूं। जब दोपहर का खाना खाकर हर कोई सो रहा होता है तो मैं निकल जाता हूं। पता नहीं कहां-कहां। एक पुराने शहर के वजूद में लौटना उस कमी को एक और शहर में पूरी कर देता है। पटना और कोलकाता मेरी ज़िंदगी के अतीत हैं। पटना अतीत है पर कोलकाता अतीत सा। चूंकि इस शहर का अतीत या अतीत की तरह यह शहर अब भी बचा हुआ है, शायद इसलिए कोलकाता आना नोस्टाल्जिया में लौटना हो जाता है।

'पीकू' की कहानी का हर दूसरा सीन मेरी ज़िंदगी से होकर गुज़रता है। इस फिल्म के हर दूसरे फ्रेम से ख़ुद गुज़र चुका हूं। बेलूर मठ के पास की जेटी, यमुना एक्सप्रेस-वे से उतरते ही सड़क के साथ-साथ चलने वाली रेल की लाइन, बनारस और हां चित्तरंजन पार्क भी। 1990 के साल दिल्ली आया था तो चित्तरंजन पार्क के मार्केट वन में जाना शुरू हो गया। तब ख़रीदारी के पैसे नहीं होते थे, पर ताज़ी मछलियों को देखकर दिल भर जाता था। पेट भी। 'पीकू' के पास जो होम्योपथी की दवाइयों का बक्सा है, वह मेरे सिरहाने भी है। मेरे घर में भी कोई 'पीकू' है, जो इन दवाओं की मास्टर है। नीले कैप वाली शीशी एस.बी.एल. की है। ब्रायनिया, आर्निका, आर्सेनिक, मक्सौल। दराज़ में रोज़ इन दवाओं को टटोलना पड़ जाता है।

शूजीत सरकार ने आधी फिल्म यमुना एक्सप्रेस-वे पर ही काट ली है। आगे पीछे शूट करते हुए वे अपनी कहानी का बड़ा हिस्सा पूरा कर लेते हैं। पहले लगा था धनबाद, आसनसोल भी रुकेंगे, लेकिन लगता है कि फिल्म के कलाकारों को दिल्ली से बनारस और कोलकाता की फ्लाइट से ही ले गए। पर यह ज़रूर सोच रहा हूं कि फिल्म की कहानी लिखने वाली मेरे घर तो नहीं आई थी!

फिल्म की कहानी लिखने से बच रहा हूं। हम सबको एक दिन बूढ़ा होना है। हम सबको अपने उस बूढ़े शहर की याद आएगी। बेटियां बहुत दूर तक साथ देती हैं। वैसे फिल्मों से अब बेटे दूर होते जा रहे हैं। बेटी ही नई वारिस है। मेरे पास दो-दो 'पीकू' हैं। ज़ाहिर है यह बदलाव समाज में भी हो गया होगा। एक पिता और बेटी के रिश्ते के लिहाज़ से भी फिल्म को पढ़ा जा सकता है। इस तरह से भी देखा जा सकता है कि अब भी सब समाप्त नहीं हुआ है। लड़ते-झगड़ते मौसी, चाची और चाचा एक मेज़ पर खाना खा सकते हैं। कहीं कुछ बचा हो तो जोड़कर आप भी एक घर बना लीजिए। चंपाकुंज की तरह।

दीपिका इस फिल्म की नायिका नहीं है। वह किरदार में इस कदर ढल गई हैं कि लगता ही नहीं कि वह दीपिका हैं। अमिताभ बच्चन साहब ज़माने बाद किसी फिल्म में बच्चन नहीं लगे हैं। वह भास्कर बनर्जी ही लगते हैं। एक ऐसा किरदार जो बच्चन साहब की हस्ती पर चादर की तरह ओढ़ाया नहीं गया है, बल्कि बच्चन साहब भास्कर बनर्जी में समा गए हैं। हमारे घर के बुज़ुर्ग भी दिल्ली नहीं टिक पाते हैं। दिल्ली छोड़ते वक्त उनके चेहरे पर जो खुशी नज़र आती है शायद वह मेरे भीतर भी बची हुई है। कभी किसी मोड़ पर छलक कर बाहर आ जाने के लिए। एक ग़ैर बंगाली किरदार को इरफ़ान ने ठीक वैसे ही निभाया है, जैसे मैं ‘रोबिश’ बनकर कोलकाता में निभाता हूं।

स्मार्ट सिटी के दौर में जब गांव के गांव उजाड़ दिए जाएंगे तब भी कोई भास्कर बनर्जी बचा रहेगा। उन नए बने शहरों के बीच कहीं किसी वजह से बच गए पेड़ों और कुओं के सहारे अतीत को छू लेने के लिए। बहुत लोगों ने इस नियति को स्वीकार कर लिया है। बहुत लोग स्वीकार नहीं कर पाए हैं। माइग्रेशन एक सच्चाई है। लाखों लोग हिज़रत कर रहे हैं। जड़ें कहीं नहीं बची हैं, बस लगता है कि बची हुई हैं। फिल्म में जड़ों की बात करते हुए इरफ़ान ख़ुद जड़ों से बहुत दूर जा चुके लगते हैं, जबकि उनका परिवार भी माइग्रेशन का मारा हुआ होता है। जब इरफ़ान कहते हैं कि जड़ें नहीं बचेंगी तो क्या बचेगा तो एक बार के लिए मैं सिहर गया। क्या किया जा सकता है, शायद इसीलिए 'पीकू' जैसी फिल्म हम जैसों के लिए एक याद बनकर आया करेगी। फिर से साइकिल पकड़ा देगी। लो चलाओ साइकिल और भटकने लगो। कहीं साइकिल रोककर किसी और के गुज़र रहे बचपन में झांककर अपना बचपन जी लो।

हम सब एक तनावपूर्ण दौर में जी रहे हैं। बंबई और दिल्ली के भीतर भी पुराने लोग उजड़ चुके हैं। वह पुरानी दिल्ली से लक्ष्मीनगर जाकर पुरानी दिल्ली को मिस करते हैं, तो मयूर विहार आकर आर.के. पुरम को। नोस्टाल्जिया मिडिल क्लास शौक है। हमें पता भी नहीं कि हमारी ही तरह माइग्रेशन करने वाले लाखों मज़दूरों की नोस्टाल्जिया क्या हैं। उनके पास उन यादों को पर्दे पर उभारने के लिए कोई दीपिका या इरफान है भी या नहीं। जैसे इस फिल्म में रघुवीर यादव का चेहरा कई बार मिसफिट लगने लगता है। जिस किसी के पास 'पीकू' है, वह अपने जीवन में इस यात्रा को जी लेगा। बिना 'पीकू' के नहीं लौटा जा सकेगा। जो अपना कैरियर छोड़ पिता के साथ चल देती है।

अच्छी फिल्म वह होती है जो आपको कुछ देर के लिए अच्छा बना दे। थोड़ा हंसा दे थोड़ा रुला दे। 'पीकू' वैसी ही फिल्म है। ज़िंदगी को ज़िंदगी की तरह बयान करती है। हम सब अपने अपने भीतर उस शहर और गांव को बचाए रखें। 'पीकू' हमारी ही कहानी है। शूजीत सरकार की नहीं। शूजीत दा आपनी भालो सिनेमा बानिये छेन। बेश भालो।

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