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This Article is From Jan 16, 2024

पहाड़ की आंखों देखी : खंडहर हो चुके मकान, बंजर खेत, नेपाली मजदूर

Himanshu Joshi
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    जनवरी 16, 2024 16:08 pm IST
    • Published On जनवरी 16, 2024 09:23 am IST
    • Last Updated On जनवरी 16, 2024 16:08 pm IST

पहाड़ खाली हो रहे हैं ये तो हम हमेशा से सुनते आए हैं. पर पहाड़ों में बंजर हो चुके खेतों को देखना और खंडहर बन चुके छोड़े हुए मकानों को देखना वाकई में दर्द भरा है. उत्तराखंड (Uttarakhand Migration) के अधिकतर गांव अब कुछ दिनों के लिए होने वाली सामूहिक पूजा में ही आबाद होते हैं, सालों पहले पलायन कर गए लोग देवताओं को पूजने अपने गांव वापस आते हैं. पहाड़ में बीते यह कुछ दिन भी 'बाहर' से आए इन लोगों के लिए मुश्किल होते हैं, वहां के मुश्किल जीवन का सामना करने के लिए वह नेपाली मजदूरों पर निर्भर रहते हैं. इन नेपाली मजदूरों की भी अपनी अलग कहानी है. पिछले दिनों उत्तराखंड के दो गांवों में जाना हुआ, जहां के लोग पूजा करने अपने गांव वापस लौटे थे. 

 बॉर्डर का गांव खाली होना चिंताजनक

चम्पावत जिला मुख्यालय से 51 किलोमीटर दूर नगरुघाट गांव में स्थित नागार्जुन मंदिर में हर साल लगने वाले मेले में लगभग पांच- छह सौ लोग पहुंचे हुए थे. गांव से पांच सौ मीटर पहले ही पक्की सड़क खत्म हो जाती है, हां संचार के लिए गांव में जियो के नेटवर्क पूरी तरह से आ रहे थे.


 नगरुघाट गांव

 महाकाली नदी के तट पर बसे इस गांव की अहमियत इसलिए भी बढ़ जाती है, क्योंकि नदी के उस पार नेपाल है. गांव में 14-15 घर दिखाई देते हैं, जिनमें रहने वाले लोग लगभग ये सभी घर छोड़ कर जा चुके हैं.

सड़क, पानी, कॉलेज, अस्पताल हों तो कोई गांव क्यों छोड़े!

गांव के एक बुजुर्ग मदन बोहरा और युवा ईश्वर बोहरा मेले की शुरुआत से पहले अपने गांव के बारे में बात करने के लिए तैयार हो जाते हैं. मदन बोहरा कहते हैं कि गांव में लगभग सभी जातियों के लोग रहते हैं, गांव के लोग पहले ठंड के दिनों में नगरुघाट और गर्मियों में गांव से थोड़ा ऊपर स्थित पासम गांव में रहते थे. नगरुघाट से ऊपर के गांवों में जब सड़क बनी, जिनमें पासम भी शामिल था, तो नगरुघाट आने वाले सिंचाई गूल में पानी आना बंद हो गया. पहले गांव के खेतों में सभी प्रकार की फसल होती थी, पर पानी न होने की वजह से फसल लगनी बंद हो गई, सड़क और पानी न होने की वजह से गांव के लोग अपने घर छोड़ पूरी तरह से पासम में ही रहने लग गए.


नगरुघाट में खाली पड़े घर

नगरुघाट की खेती अब पूरी तरह से बरसात के पानी पर ही निर्भर है, इस बार गांव के लोगों ने मोटा अनाज झंगोरा लगाया था. झंगोरा को स्वास्थ्य के लिए बहुत अच्छा अनाज माना जाता है. ईश्वर बोहरा कहते हैं कि पासम में सड़क की सुविधा है, जिस वजह से लोग वहां रहते हैं. पासम में सरकारी स्कूल है, जो कक्षा आठ तक है और उसके बाद गांव के बच्चे बारहवीं तक पढ़ने सात-आठ किलोमीटर दूर रौसाल जाते हैं. कॉलेज के लिए चालीस पचास किलोमीटर दूर स्थित चम्पावत या तीस चालीस किलोमीटर दूर लोहाघाट जाना पड़ता है, वह बताते हैं इसी वजह से गांव के लगभग हर परिवार के बच्चे आठवीं या दसवीं तक पढ़ाई पूरी करते ही दिल्ली में होटलों में नौकरी करने चले जाते हैं. अस्पतालों की सही सुविधा भी चम्पावत या लोहाघाट ही मिल पाती है.


नागार्जुन देवता के मंदिर में मेले की रात

मेले के बारे में मदन बोहरा कहते हैं कि यह मेला गुरु नानक जयंती से एक दिन पहले सालों से मनाया जाता रहा है. नागार्जुन देवता को मानने वाले दर्जन भर गांवों से लोग इस मेले में आते हैं. यह नेपाल के कुछ गांवों के देवता भी हैं, इसलिए आज मेले में नेपाल से भी लोग आते हैं, रात भर मेले में भगवान की आराधना के साथ-साथ सांस्कृतिक कार्यक्रम भी होते हैं और सुबह स्नान के बाद यह मेला समाप्त होता है.

खाली पड़े पहाड़ में बस अब नागफनी और धतूरा

पिथौरागढ़ जिला मुख्यालय से 90 किलोमीटर और गंगोलीहाट तहसील से 16 किलोमीटर दूर पोखरी गांव के लिए जाने वाली सड़क कहीं पर बहुत ही खराब तो कहीं पर सही है. पोखरी गांव में भटना मोहल्ले के नौले में वर्षों पहले गांव से पलायन कर गए मदन जोशी नहाते हुए मिलते हैं, वह कहते हैं कि पोखरी गांव के कलखेत, नाकुड़, मालघर, भटना, पालमोल मोहल्लों में लगभग पचास परिवारों के घर हैं और सालों से खाली पड़े इन घरों में अब मात्र दो परिवारों के सदस्य रहते हैं. एक ही घर में दस से बीस परिवारों का हिस्सा होता है, यह लोग गांव में पूजा होने पर ही सालों में कभी- कभी गांव आते हैं और किसी तरह इन घरों में रहते हैं. यह नौला भी इस बीच लोगों द्वारा साफ कर दिया जाता है, सीमेंट लगाए जाने के बाद नौले में पानी का प्रवाह कम हुआ है और अब इसके चारों तरफ गाजरघास, दतुरा भी बढ़ गए हैं.


 नौला 

पोखरी के खेतों में घूमने पर वहां नागफनी, कुरी, दतुरा ही दिखाई देता है.

नेपाली मजदूरों की भी अपनी कहानी

नौले में नेपाल के जिला बाजुरा के रहने वाले दो बच्चों के पिता 54 साल के चन्द्र खटका और बाजुरा के ही 22 वर्षीय प्रेम मिले. नेपाल के सरकारी स्कूल में पच्चीस साल पढ़ाने के बाद रिटायर हुए चन्द्र खटका पिछले तीन साल से भारत में रहकर मजदूरी कर रहे हैं. वह कहते हैं कि गंगोलीहाट में हम लगभग पचास नेपाली मजदूर रहते हैं, आसपास के गांवों में काम मिलने पर वहां चले आते हैं. यहां इन लोगों की पूजा है तो हम नौले से पीने का पानी भर रहे हैं, हमें यहां सामान ढोने का काम मिला हुआ है. चन्द्र खटका कहते हैं कि गंगोलीहाट में वह लोग 600 रुपए के कमरे में चार लोग रहते हैं और खाना होटल में ही खाते हैं.जब उनके बीच का कोई नेपाली साथी बीमार पड़ता है तो सभी नेपाली लोग इलाज में उसकी मदद करते हैं.

नेपाल के रहने वाले प्रेम

प्रेम कहते हैं कि नेपाल में उनके माता पिता किसान हैं और दो भाई स्कूल पढ़ते हैं. वह कहते हैं कि मैं पांच छह महीने में लगभग पचास साठ हजार रुपए घर भेज देता हूं, यह पैसे खुद घर लेकर जाता हूं या साथियों के हाथ भेजता हूं. प्रेम कहते हैं कि कई लोग काम करने के बाद भी उन्हें रुपए नहीं देते और मांगने पर कहते हैं कि कुछ भी कर लो रुपए नही मिलेंगे, हम पुलिस से भी बड़े हैं. प्रेम ने पिथौरागढ़ 15 दिन काम किया था और उन्हें पैसे नही दिए गए, काम करवाने वाले ने कहा कि 8-9 महीने काम और करोगे तब रुपया मिलेगा.

प्रेम रुपए कमाने के बाद वापस नेपाल जाकर अपनी दुकान खोलना चाहते हैं. वह कहते हैं कि मैं रोज होटल में मांसाहारी भोजन लेता हूं, क्योंकि खाऊंगा तभी यह काम कर पाऊंगा. रहने-खाने के साथ प्रेम का मोबाइल रिचार्ज का खर्चा भी है, जिससे वह भारत और नेपाल के समाचार लगातार सुनते रहते हैं.
 

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