विज्ञापन
This Article is From Aug 31, 2016

गाय अब 'कविता' नहीं है.. गाय अब राजनीति है

Rakesh Kumar Malviya
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    अगस्त 31, 2016 10:51 am IST
    • Published On अगस्त 31, 2016 10:51 am IST
    • Last Updated On अगस्त 31, 2016 10:51 am IST
''यहां अगर हम आज के हिंदुस्तान में गाय को वही जगह देना चाहते है तो पहली जरूरत यह है कि पूजा के घुटन भरे दायरे से निकालकर उसे सौंदर्य और उपयोगिता के स्तर पर पहचान दिलाएं. जिस देश की खेती गिरी हुई हो, जहां मिलावटी दूध हो और घी गायब होता जा रहा हो, जहां दुनिया की सबसे अधिक गाय सबसे कम दूध देती हों, वहां गाय-पूजा बेमतलब, बेजान चीज है. गाय-पूजा दरअसल गाय उपेक्षा का दूसरा नाम है और उसका बहाना है. भारत में जब हमें किसी की उपेक्षा करनी होती है तो हम उसकी पूजा करना शुरू कर देते हैं. गाय को भी हम माता मानेंगे, लेकिन उपेक्षा से उसके कंकाल बन देंगे.''

यह आज से 50 साल पहले 'गाय तुम कविता थीं, आज धर्म हो गईं' शीर्षक से लिखे गए एक आलेख का एक हिस्सा है. 1967 में देश के वरिष्ठ पत्रकार स्वर्गीय राजेन्द्र माथुर ने इसे लिखा था. इस आलेख का एक महत्वपूर्ण हिस्सा इसके काल को लेकर भी है. यह आलेख समाज में गाय की मान्यता को यायावर युग और खेती के संधिकाल और दूसरा हिस्सा खेती और औद्योगिकीकरण के संधिकाल में गाय की स्थितियों को सामने लाता है.

आज जब हम इस आलेख और गायों की दशा को वर्तमान कालखंड में देखते हैं तो यह तीसरा संधिकाल लगता है. जबकि एक ओर गाय-बैलों की उपयोगिता कम से बहुत कम होती दिख रही है, लेकिन गौ भक्ति सर्वाधिक नजर आ रही है... हम देख रहे हैं कि बहुत तेजी से खेती में गौवंश की उपयोगिता कम हो रही है और उतनी ही तेजी से मशीनों का उपयोग बढ़ रहा है.

तो इस वक्त माथुर साहब का सवाल और बड़ा बनकर सामने आता है कि आखिर गाय को हमने पूजा की सुपारी की तरह ही माना है अथवा उससे आगे गाय एक जीवन शैली है जो खेती-किसानी में श्रम से लेकर उसमें लगने वाले खाद और दवाई तक के साधन उपलब्ध कराती है. यदि हम इसे एक जीवन शैली मानकर भक्ति की बात करते हैं तब तो समझ आता है, लेकिन बिना इस जीवन पद्धति को स्वीकार किए बिना जब गाय को बचाने के लिए मनुष्य का जीवन संकट में डाल देने की कोशिशें हो जाती हों तब यह जरुर सोचना चाहिए कि क्या यह केवल एक राजनीति है अथवा इससे आगे भी हम कुछ सोचते हैं? यह केवल गाय के सवाल हैं या जीवन शैली के सवाल हैं? यह केवल गाय के सवाल हैं या गांव के खेती-किसानी के सवाल हैं. यह केवल सोसेबाजी से तो नहीं होगा, इसके लिए कुछ नीतियां चाहिए होंगी. वे कहां हैं?

धार्मिक नजरिये से ना भी देखें तो दरअसल गाय के आसपास का समाज एक स्वावलंबी समाज नजर आता है। वह कृष्ण के गोकुल से होकर बाद में देश के कोने-कोने में आकार लेता है. उसका एक खुशहाल जीवन है. उसका कारण यह है कि वहां भरपूर मात्रा में दूध-दही-माखन उपलब्ध है. वहां कोई भूखा नहीं है. इसलिए गाय कृष्ण को भी प्रिय है.

और इधर जब हम देखते हैं कि इसी कृष्ण के देश में भुखमरी-अकाल से लोग मारे जाते हैं. यूं तो दूध के उत्पादन में हम विश्व में सिरमौर होते हैं, प्रति व्यक्ति दूध की उपलब्धता भी आजादी के बाद 124 ग्राम प्रति व्यक्ति प्रति दिन से बढ़कर 60 सालों में 300 ग्राम प्रति व्यक्ति प्रति दिन उपलब्ध हो जाती है, लेकिन उसके बावजूद देश का तकरीबन आधा बचपन कुपोषण का शिकार होता है. महिलाएं एनिमिक यानी खून की कमी का शिकार होती हैं. हमारे देश के लोगों के शारीरिक श्रम करने की क्षमताएं कम होती हैं. हम ओलिंपिक में पदकों पर निशाना नहीं लगा पाते.

यह किसका दोष है. आखिर विश्व के दूसरे देशों से ज्यादा उत्पादन होने के बावजूद ऐसी परिस्थितियां क्यों हैं! क्या यह उपलब्धता औसत के रूप में हमें कागजों पर तो दिख जाती है पर क्या वास्तव में वह है! इसका जवाब देखना है तो आपको हिंदुस्तान के कुछ गांवों का रुख करना होगा, जहां आप पाएंगे कि गांवों में सुबह आठ-नौ बजे के बाद यदि आप पूजा के लिए भी दूध खोजने जाएंगे तो आपको नहीं मिलेगा. आश्चर्य यह कि वही गांव का दूध शहरों की डेयरीज से पन्नियों में भरकर वापस बिकने आता है. वह भी तकरीबन चालीस रुपए लीटर.

तो जब दूध और इस जैसी चीजें जो व्यक्ति को चुस्त-दुरुस्त बनाए रखने में योगदान देती हैं, लोगों को सहज उपलब्ध नहीं होतीं तो अंडों की मांग आती है. गौभक्त राजनीति अंडों को कैसे स्वीकार कर सकती है?

और अंत में बस एक जानकारी. मध्यप्रदेश के छतरपुर शहर के बीचों-बीच गांधी आश्रम है. दस साल पहले तक यह आश्रम अच्छी स्थिति में नहीं था. गांधीवादी कार्यकर्ता संजय सिंह और उनके साथियों ने इस जगह को फिर से एक आदर्श स्थिति में ला खड़ा किया है. यहां पर उस ग्राम्य व्यवस्था, स्थानीय संसाधनों, जैविक खेती की एक झलक को आप जीवंत रूप में देख सकते हैं. यहां पर 60 एकदम देशी नस्ल की गायें भी मौजूद हैं. पर गौभक्त देश में ऐसी स्थितियां अब आम नहीं हैं. गाय अब कविता नहीं है, गाय अब राजनीति है.

राकेश कुमार मालवीय एनएफआई के फेलो हैं, और सामाजिक मुद्दों पर शोधरत हैं...

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं. इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति NDTV उत्तरदायी नहीं है. इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं. इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार NDTV के नहीं हैं, तथा NDTV उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है.

इस लेख से जुड़े सर्वाधिकार NDTV के पास हैं. इस लेख के किसी भी हिस्से को NDTV की लिखित पूर्वानुमति के बिना प्रकाशित नहीं किया जा सकता. इस लेख या उसके किसी हिस्से को अनधिकृत तरीके से उद्धृत किए जाने पर कड़ी कानूनी कार्रवाई की जाएगी.

NDTV.in पर ताज़ातरीन ख़बरों को ट्रैक करें, व देश के कोने-कोने से और दुनियाभर से न्यूज़ अपडेट पाएं

फॉलो करे:
गाय, भारत, राजनीति, गाय पूजा, दूध उत्‍पादन, Cow, India, Politics, Cow Worship, Milk Production
Listen to the latest songs, only on JioSaavn.com