जब भी ये लगता है कि लोगों को किसी बात से फर्क नहीं पड़ता है तभी कहीं से तस्वीर आ जाती है कि चंद लोग किसी ग़लत के विरोध में धरना प्रदर्शन कर रहे हैं. अफसोस कि उनकी ये लड़ाई उन्हीं की बन कर रह जाती है. वैसे सबसे पहले तो उन्हीं की होनी चाहिए लेकिन सरकार और प्रशासन का बर्ताव ऐसे होता है जैसे किसी दूसरे देश के नागरिक हों. इसके बाद भी लोगों ने प्रदर्शन करना नहीं छोड़ा है. जनता की लड़ाई राजनीतिक दल नहीं लड़ते हैं, जनता ही लड़ती है.
मुज़फ्फरपुर से आई एक तस्वीर उम्मीद जगा देती है कि सब कुछ एक समान नहीं है. 22 जनवरी को साढ़े बारह बजे छात्रों का समूह पटना के लिए पैदल चल पड़ा. जहां वे राज्यपाल को बताना चाहते थे कि बसुंधरा टीचर्स ट्रेनिंग कॉलेज ने जो फीस बढ़ाई है वो सही नहीं है. हमारे पास कॉलेज का पक्ष तो नहीं है मगर लगा कि सवाल के प्रति ईमानदारी ने पदयात्रा के इरादे को मज़बूत किया है. 9 घंटे तक लगातार चलने के बाद रात को हाजीपुर रुकते हैं और वहां से सुबह सुबह पटना के लिए रवाना होते है. आपस में चंदा कर लाउडस्पीकर और खाने का इंतज़ाम किया था. गाड़ी वाले ने इनसे किराया नहीं लिया सिर्फ तेल के पैसे लिए. गाड़ी पर तिरंगा लेकर बैठे थे क्योंकि टीवी की बहस में तिरंगा को लेकर काफी गंभीरता होती है. जनता को लगता है कि अगर तिरंगा लेकर प्रदर्शन करेंगे तो राज्यपाल, मुख्यमंत्री दौड़े दौड़े आएंगे और चैनल के एंकर वहीं से लाइव करने लगेंगे. अफसोस पटना पहुंच कर राजभवन तक जाने का मौका तो मिला मगर ये नहीं हैं वो नहीं हैं के नाम पर बिना मिले लौट आना पड़ा. शाम को गांधी मैदान में धरना देना चाहते थे लेकिन 26 जनवरी के नाम पर वापस कर दिए गए. 90 किमी की पदयात्रा से पहले अक्तूबर में धरना अनशन कर चुके हैं. साथियों की तबीयत भी बिगड़ी थी. विरोध में शवयात्रा भी निकाली मगर कुछ नहीं हुआ.
जून 2018 में पटना हाईकोर्ट का आदेश आया कि बीएड कॉलेज की फीस बढ़ सकती है. छात्रों का कहना है कि यूजीसी के नियम के अनुसार बीच सत्र में फीस नहीं बढ़ सकती है. हाईकोर्ट के फैसले में भी अलग-अलग शर्तें थीं मगर उसके नाम पर कई प्राइवेट कॉलेजों में एक ही बार में डेढ़ लाख फीस कर दी गई. छात्रों का कहना है कि बढ़ी हुई फीस देने की आर्थिक क्षमता नहीं है और बढ़ाने का तरीका ग़लत है इसलिए वे प्रदर्शन कर रहे हैं. ये सारे छात्र पटना में हमारे सहयोगी मनीष कुमार के पास गए और अपनी व्यथा बताई.
बिहार में पिछले दिनों बीएड की फीस को लेकर कई प्रदर्शन हुए. पटना में ही नहीं बल्कि गांवों और कस्बों में भी. छात्रों का कहना है कि इन बीएड संस्थानों में शिक्षकों की जो स्थिति है वो भी कोई पता कर ले तो समझ आ जाएगा कि उनका विरोध कितना जायज़ है. यहीं पर एक बात कहना चाहता हूं कि मुझे हर दिन सैकड़ों लोग संपर्क करते हैं. मैंने कई बार कहा है कि मैं सबका धरना प्रदर्शन नहीं दिखा सकता, उतने संसाधन भी नहीं हैं और न संभव है. जो दिखा रहा हूं वो किसी एक के लिए नहीं बल्कि सबके लिए है. उससे पता चलता है कि प्रशासन और सरकार का क्या हाल है. मुज़फ्फरपुर से निकल कर आइये चलते हैं मुज़फ्फरनगर के पास शामली है.
यहां किसानों से वादा किया गया था कि 14 दिनों के भीतर गन्ने का भुगतान शुरू हो जाएगा. मगर शामली मिल को गन्ना देने वाले किसानों का 200 करोड़ से अधिक का बकाया हो गया है. 2017 के नवंबर से मई के सीज़न का 83 करोड़ रुपया बाकी है. 2018 के नवंबर से शुरू हुए सीजन का अभी तक कोई पेमेंट नहीं हुआ है जबकि ढाई महीने से अधिक का समय गुज़रने जा रहा है. इस सीज़न का भी करीब 150 करोड़ का बकाया है. यहां पर 50 से अधिक गांवों के किसान धरना दे रहे हैं. किसानों ने सब कर लिया मगर पेमेंट नहीं हुआ है. संघर्ष के लिए आपस में चंदा हुआ है और खाना पानी यहीं बन रहा है. यहां शामली चीनी मिल के बाहर किसानों का जमघट काफी बड़ा है. हजारों किसान होने के कारण नेता लोग यहीं आकर भाषण दे रहे हैं. इसी ज़िले से सुरेश राणा गन्ना मंत्री हैं मगर गन्ना के भुगतान के लिए किसानों को आंदोलन करना पड़ रहा है. यहां भी किसानों ने चंदा किया हुआ है और भोजन पानी यहीं हो रहा है.
किसानों का कहना है कि पैसा समय पर नहीं मिलता तो वे बच्चों की फीस नहीं भर पाते हैं. फीस नहीं देने के कारण स्कूल में टीचर उन्हें क्लास के बाहर खड़े कर देते हैं. यहीं नहीं सरकार की योजना है कि तय समय तक बिजली बिल देने से सरचार्ज की माफी मिलेगी मगर पैसा नहीं होने के कारण स्कीम का लाभ नहीं ले पा रहे हैं इसलिए उन्हें दोहरा घाटा हो रहा है. ज़िलाधिकारी ने ज़रूर किसानों से बात की है और मिल के खिलाफ एफआईआर की है मगर पैसा नहीं मिल रहा है.
इसके लिए एक दिन हिन्दू और मुस्लिम किसानों ने मिलकर जनाज़े की नमाज भी पढ़ी. सर मुंडाया और मौन रह कर प्रदर्शन किया. किसान अपने पैसे के लिए क्या क्या नहीं कर रहे हैं. नमाज़ पढ़ने से लेकर सर मुंडाने तक. दरअसल जब आप किसी प्रदर्शन की तरफ बढ़ते हैं तो रास्ता लंबा हो जाता है. बहुत कम प्रदर्शन होते हैं जिनका नतीजा निकलता है. आश्वासनों से खत्म भी होते हैं मगर थोड़े समय के बाद शुरू भी हो जाते हैं.
भारत में एक डेमोक्रेसी इंडेक्स होना चाहिए जिससे रोज़ पता चले कि आज किन किन मांगों को लेकर कहां कहां प्रदर्शन हुए. कितने प्रदर्शनों के ऊपर लाठी चली और कितनों के ज्ञापन लिए गए, कितनों में आश्वासन मिला और कितनों के नतीजे आए. इससे पता चलेगा कि हमारी लोकतांत्रिक सरकारें जनता को कितना महत्व देती हैं. आप जानते हैं कि 13 प्वाइंट रोस्टर सिस्टम लागू होने से विश्वविद्यालयों में अनुसूचित जाति, जनजाति और ओबीसी के आरक्षण का लागू होने असंभव सा हो गया है. इस मुद्दे को समझने वाले कह रहे हैं कि कॉलेजों और यूनिवर्सिटी में आरक्षण की व्यवस्था समाप्त हो गई है.
इसे लेकर दिल्ली विश्वविद्यालय के अडहाक शिक्षकों ने आक्रोश प्रदर्शन किया. करीब एक साल से कॉलेजों में नियुक्तियां करीब करीब ठप्प हैं. न जनरल को नौकरी मिली और आरक्षित को. यूजीसी के सर्कुलर और सुप्रीम कोर्ट के आदेश के कारण स्थिति और मुश्किल हो गई है. अनुसूचित जाति और जनजाति, ओबीसी के छात्रों का कहना है कि नए आदेश के कारण आरक्षण कभी लागू ही नहीं होगा क्योंकि किसी एक विभाग में एक साथ कभी भी 10 या 13 पोस्ट नहीं आएंगे. पहले यूनिवर्सिटी में सभी खाली पदों को जोड़ कर उसका 49.5 प्रतिशत आरक्षित किया जाता था. लेकिन अब विभाग को यूनिट मानने से ऐसा नहीं हो सकेगा. इसी को लेकर देश भर के तमाम कॉलेजों और यूनिवर्सिटी में बेचैनी है. दिल्ली विश्वविद्यालय के अडहाक शिक्षकों ने कहा है कि 25 जनवरी को भी प्रदर्शन करेंगे. उसके बाद 28 जनवरी को भी प्रदर्शन करेंगे. अगर सरकार ने अध्यादेश लाकर 200 प्लाइंट रोस्टर यानी पुरानी व्यवस्था लागू नहीं की गई तो प्रदर्शनों का सिलसिला जारी रहेगा. देश के विश्वविद्यालयों में पहले से चली आ रही आरक्षण व्यवस्था ठप्प हो गई है.
भारत में ही हो सकता है कि यूनिवर्सिटी में एक साल से कोई बहाली न हो रही हो और किसी को फर्क न पड़ता हो. लेकिन ऐसा भी नहीं है कि प्रदर्शन नहीं हो रहे हैं. लोग आवाज़ नहीं उठा रहे हैं. बल्कि उल्टा हो रहा है. आवाज़ तो उठ रही है, सुनी नहीं जा रही है.
2 अक्तूबर 2017 के लाइव मिंट और कई मीडिया वेबसाइट पर पीयूष गोयल का बयान छपा था कि वे एक साल के भीतर रेलवे के सिस्टम में 10 लाख रोज़गार पैदा कर देंगे. रेल मंत्री ने दिल्ली में हुए इंडिया इकोनोमिक समिट में कहा था. लाइव मिंट के अनुसार उन्होंने कहा था कि ट्रैक के नवीनीकरण और सुरक्षा के क्षेत्र में ही 2 लाख रोज़गार का सृजन हो सकता है. इस बात के डेढ़ साल से अधिक हो चुके हैं, रेल मंत्री बता दें कि ट्रैक के नवीनीकरण और संरक्षा में 2 लाख लोगों को रोज़गार दिया है या नहीं. 12 महीने में दस लाख रोज़गार पैदा करने की बात करने वाले गोयल अभी तक दो साल में एक लाख बहाली की प्रक्रिया पूरी नहीं कर पाए हैं. आज तक पता नहीं चला कि दस लाख नौकरी देने वाले उस बयान का क्या हुआ. कम से कम रेलवे के कांट्रेक्टरों से मांग कर ही हिसाब दे देते कि किसके यहां कितने और किस स्तर के कर्मचारी काम पर लगे हैं. पांच मिनट का काम था.
हर कुछ महीने पर नौकरियों को लेकर बयान आ जाता है. एक बार तो रेलवे में एनटीपीसी स्नातक की परीक्षा हुई. 18 हज़ार से अधिक पद निकले लेकिन रिज़ल्ट आने के बाद चार हज़ार पद घटा दिए गए. 27 दिसंबर 2017 को लोकसभा में मोहम्मद सलीम के सवाल के जवाब में बताते हैं कि रेलवे में सभी प्रकार के 2 लाख 22 हज़ार 159 पद खाली हैं. इनमें से अनुसूचित जाति और जनजाति के 41,128 पद खाली हैं.
क्या रेलवे ने अप्रैल 2017 के हिसाब से 2 लाख 22 हज़ार वेकेंसी निकाली. नहीं निकाली. रेल मंत्री से पूछिए कि 2014 से 2018 के बीच हर साल रिटायर होने वालों की जगह कितने लोगों को नौकरी दी गई है. सिम्पल सवाल मगर जवाब नहीं मिलेगा. पिछले साल फरवरी में रेलवे ने 1 लाख 27 हज़ार से अधिक की वैकेंसी निकाली. रेल मंत्री खुद ही कह रहे हैं कि प्रक्रिया पूरी होने में ढाई महीने और लगेंगे यनी मार्च अप्रैल तक बीत जाएगा रिजल्ट आने में. एक साल से अधिक समय लगता है एक लाख 20 हज़ार की बहाली की प्रक्रिया पूरी होने में. वो भी चुनाव का दबाव है तब इतनी तेज़ी है. क्या वाकई सारी प्रक्रिया पूरी कर ली जाएगी, मतलब रिजल्ट आ जाएगा, दस्तावेजों की जांच हो जाएगी, मेडिकल हो जाएगा और ज्वाइनिंग हो जाएगी. बहुत दिनों से तो ऐसा नहीं हुआ है, हो जाए तो क्या ही अच्छा हो. अभी रेल मंत्री फिर से 1 लाख 32 हज़ार की वैकेंसी निकालने की बात कर रहे हैं. ज़ाहिर है किसी भी सूरत में 2019 के अंत से पहले इसकी प्रक्रिया पूरी नहीं होगी. 2020 के मार्च तक भी हो जाए तो गनीमत समझिए. चुनाव है तो ऐलान है. बल्कि ऐलान है क्योंकि चुनाव है.
पीयूष गोयल कहते हैं कि अगले दो साल में एक लाख और रिटायर होंगे. क्या वे रिटायर होने से पहले ही विज्ञापन निकालने जा रहे हैं और बहाली की प्रक्रिया पूरी करेंगे. रेल मंत्री के हिसाब से अगर हर साल 40 से 50 हज़ार रिटायर होते हैं तो क्या वे बता सकते हैं कि रेलवे ने 2014, 2015, 2016 और 2017 और 2018 में कितने लोगों को उनकी जगह रखा. रेल कर्मचारी संघ के शिव प्रकाश के मुताबीक दो साल बाद जूनियर इंजीनियर की बहाली आई है. 13,487 पदों का विज्ञापन आया है. क्या चुनाव है इसलिए जूनियर इंजीनियर की बहाली आई है. एक एंगल और है. रेलमंत्री यह नहीं बता रहे हैं कि कितने नए रोज़गार पैदा होंगे. रिटायर होने वाले लोगों की जगह भर्ती करेंगे लेकिन यह तो अपने आप होने वाली प्रक्रिया है. इसमें नई बात क्या है. क्या उन्हें नहीं बताना चाहिए कि उनके फैसलों से नए रोज़गार पैदा हुए हैं. अब इस हिसाब को ध्यान से देखिए.
रेलमंत्री ने कहा कि रेलवे 12 लाख लोगों को रोज़गार देती है. 2017 के बजट पेपर का एनेक्स्चर पलट कर देखिएगा. 2015 से 2018 के बीच रेलवे के मैनपावर के लक्ष्य में कोई बदलाव नहीं है. 2015 में 13,26,437 मैनपावर का टारगेट था जो 2018 में 13,31,433 हो गया. यानी तीन साल में रेलवे के मैनपावर में कोई बदलाव नहीं हुआ. ये बजट के एनेक्स्चर में है और 2 मार्च 2017 के टाइम्स ऑफ इंडिया में इस पर प्रदीप ठाकुर ने रिपोर्ट भी की थी. अब आप सातवें वेतन आयोग की रिपोर्ट देखिए, उसमें केंद्र सरकार के मंजूर पदों की संख्या और खाली पदों की संख्या का हिसाब मिलेगा. इसके अनुसार 1 जनवरी 2014 को रेलवे में मंज़ूर पदों की संख्या 15 लाख 57 हज़ार थी. मगर मैनपावर था उस वक्त 13 लाख 61 हज़ार. तब रेलवे के पास दो लाख से अधिक भर्ती का मौका था जो नहीं किया. अब रेल मंत्री के अनुसार 13 लाख से घटकर 12 लाख हो गया है. तो क्या रेलवे ने एक लाख से अधिक नौकरियां फिर घटा दीं.
अगर आप 1 जनवरी 2014 के मंज़ूर पदों की संख्या के हिसाब से देखें तो रेलवे ने तीन लाख से अधिक पद कम कर दिए हैं. रेल मंत्री रिटायर होने वाले की जगह बहाली की बात कर रहे हैं. नए रोज़गार पैदा करने का हिसाब नहीं दे रहे हैं. अभी आपने सुना कि अक्तूबर 2017 में रेल मंत्री कितनी सहजता से बता रहे हैं कि रेलवे में जो निवेश होता है उसका 20 प्रतिशत भी लेबर कास्ट होगा तो आराम से दस लाख लोगों को काम मिल जाता है. क्या आप जानते है या रेल मंत्री ने आपको बताया है कि रेलवे में कांट्रेक्ट पर काम करने वाले लोगों की क्या हालत है, उनके क्या हालात है. हाल ही में सीएजी की इस पर रिपोर्ट आई है. सिएजी ने उन ठेकेदारों के यहां कर्मचारियों की स्थिति का अध्ययन किया है जिन्हें रेलवे ने 2014 से लेकर 2017 के बीच 35,098 करोड़ का भुगतान किया है. ठेके पर काम करने वाली 463 कंपनियों का अध्ययन कर सीएजी ने बताया है कि मज़दूरों के शोषण को रोकने के लिए बने कानून का 50 परसेंट भी लागू नहीं होता है. छुट्टी के पैसे मिलने चाहिए मगर न तो छुट्टी मिलती है न छुट्टी का पैसा. ठेकेदारों ने मज़दूरों के कई सौ करोड़ रुपये पचा लिए. नियम के अनुसार चेक से पैसा देना था मगर कैश देते रहे. 212 कांट्रेक्टर के यहां रिकार्ड ही नहीं मिला कि पैसा कैसे दिया जाता है. यही नहीं भविष्य निधि का भी पैसा नहीं कटता है. रेल, श्रम, भविष्य निधि संगठन किसी का अधिकारी जांच करने नहीं जाता है.
कुलमिलाकर रेलवे जिन कंपनियों को अपना काम कराने के लिए हज़ारों करोड़ रुपये देती है, वहां भी नियमों के हिसाब से न तो पूरा वेतन मिलता है और न ही सुविधा. वहां भी काम करने की बेहतर स्थिति नहीं है. ये सीएजी की रिपोर्ट में लिखा है. आपने नौकरी सीरीज़ में देखा कि किस तरह एक एक परीक्षा का फार्म भरने में ही करोड़ों रुपये आयोगों के पास आ जाते हैं. भले वह परीक्षा पूरी न हो मगर पैसे पूरे आ जाते हैं.
(हेडलाइन के अलावा, इस खबर को एनडीटीवी टीम ने संपादित नहीं किया है, यह सिंडीकेट फीड से सीधे प्रकाशित की गई है।)