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अब चुनावी वादों को चुनाव घोषणा पत्र से जमीन पर उतारना पड़ता है, क्या है नीतीश के 'सात निश्चय-3'

संजीव कुमार मिश्र
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    दिसंबर 16, 2025 19:04 pm IST
    • Published On दिसंबर 16, 2025 19:04 pm IST
    • Last Updated On दिसंबर 16, 2025 19:04 pm IST
अब चुनावी वादों को चुनाव घोषणा पत्र से जमीन पर उतारना पड़ता है, क्या है नीतीश के 'सात निश्चय-3'

लोकतंत्र की आत्मा केवल मतदान में नहीं, बल्कि जनता से किए गए वायदों को पूरा करने में भी बसती है. राजनीतिक प्रतिबद्धता वही नैतिक अनुबंध है, जो चुनावी घोषणा-पत्रों और शासन की वास्तविकताओं के मध्य सेतु का काम करता है. जब यह सेतु कमजोर पड़ता है, तब जनमत और सत्ता के बीच अविश्वास की खाई गहरी होती जाती है. पिछले पांच दशक में भारतीय राजनीति ने एक निर्णायक वैचारिक परिवर्तन देखा है. भावनात्मक अपील और अमूर्त आश्वासनों के युग से आगे बढ़कर अब शासन का मूल्यांकन समयबद्ध और परिणाम-उन्मुख निष्पादन के आधार पर होने लगा है. आधुनिक मतदाता अब यह नहीं पूछता कि क्या कहा गया, बल्कि यह पूछता है कि कितना पूरा किया गया. यही परिवर्तन राजनीतिक वैधता के नए आधार का निर्माण कर रहा है.

चुनावी सफलता और शासन

स्वतंत्र भारत के राजनीतिक इतिहास में एक लंबा कालखंड ऐसा रहा है, जब चुनावी सफलता और शासन की गुणवत्ता के बीच स्पष्ट अंतर दिखाई देता था. जनाकांक्षाओं को संबोधित करने वाले वादे सत्ता तक तो पहुंचाते थे, किंतु उनके क्रियान्वयन के लिए आवश्यक संस्थागत इच्छाशक्ति और प्रशासनिक अनुशासन का अभाव बना रहता था.साल 1971 में दिया गया 'गरीबी हटाओ' का नारा इसका प्रतिनिधि उदाहरण है. यह नारा जनभावनाओं से गहराई से जुड़ा था, परंतु शासन स्तर पर इसे दीर्घकालिक, संरचनात्मक नीति में रूपांतरित नहीं किया जा सका. परिणामस्वरूप, जनता के मन में यह धारणा मजबूत हुई कि चुनावी आश्वासन राजनीतिक साधन हैं न कि शासन की बाध्यता. 21वीं सदी के दूसरे दशक में भारतीय राजनीति में एक स्पष्ट परिवर्तन परिलक्षित हुआ. राजनीतिक प्रतिबद्धता को योजनाओं, समय-सीमाओं और परिणामों से जोड़ने का प्रयास. अब शासन की वैधता भाषणों से नहीं, बल्कि डिलीवरी मैकेनिज्म से निर्धारित हो रही है.

केंद्र सरकार के स्तर पर वित्तीय समावेशन,सामाजिक सुरक्षा और बुनियादी सुविधाओं से जुड़े वादों को संस्थागत स्वरूप दिया गया. जन-धन योजना ने आर्थिक रूप से वंचित वर्ग को औपचारिक बैंकिंग से जोड़ा. उज्ज्वला योजना ने केवल कनेक्शन वितरण तक सीमित न रहकर महिलाओं के स्वास्थ्य और जीवन-स्तर से जुड़ा हस्तक्षेप प्रस्तुत किया. आयुष्मान भारत जैसी योजनाओं ने यह स्थापित किया कि स्वास्थ्य अब कल्याणकारी आश्वासन नहीं, बल्कि राज्य की प्रत्यक्ष जिम्मेदारी है.

इन पहलों का महत्व उनकी संख्या या विस्तार में नहीं,बल्कि इस तथ्य में निहित है कि राजनीतिक नेतृत्व ने स्वयं को इनके परिणामों के प्रति उत्तरदायी माना.यही परिणाम-आधारित प्रतिबद्धता का सार है. हालांकि, यह भी सत्य है कि परिणाम-आधारित शासन केवल योजनाओं के आरंभ या लक्ष्यों की घोषणा तक सीमित नहीं हो सकता. वास्तविक प्रतिबद्धता तब सिद्ध होती है, जब योजनाओं का निरंतर उपयोग, व्यवहार परिवर्तन और दीर्घकालिक सामाजिक प्रभाव सुनिश्चित हो. उदाहरणस्वरूप, उज्ज्वला योजना के अंतर्गत कनेक्शन वितरण एक महत्वपूर्ण उपलब्धि रही, किंतु एलपीजी के नियमित उपयोग से जुड़ी चुनौतियां यह संकेत देती हैं कि राजनीतिक प्रतिबद्धता को अब सतत प्रबंधन और समर्थन तंत्र तक विस्तारित करना होगा. आधुनिक शासन में सफलता केवल उपलब्धि गिनाने से नहीं, बल्कि सामाजिक परिवर्तन की निरंतरता से मापी जाएगी.

नीतीश सरकार के सात निश्चय

राज्य स्तर पर राजनीतिक प्रतिबद्धता का एक महत्वपूर्ण उदाहरण बिहार में 'सात निश्चय' कार्यक्रमों की निरंतरता है. यह मॉडल केवल एक चुनावी घोषणा नहीं, बल्कि एक दीर्घकालिक प्रशासनिक एजेंडा के रूप में विकसित हुआ है.'सात निश्चय-1' और 'सात निश्चय-2' के बाद अब 'सात निश्चय-3' का आगमन इस बात का संकेत है कि शासन ने अपने वादों को चक्रीय और क्रमिक विकास प्रक्रिया में बदला है.

'सात निश्चय-3' का फोकस रोजगार, उद्योग, कृषि, शिक्षा, स्वास्थ्य और आधारभूत संरचना के माध्यम से आर्थिक सशक्तिकरण पर है- दोगुना रोजगार–दोगुनी आय, समृद्ध उद्योग–सशक्त बिहार, कृषि में प्रगति–प्रदेश की समृद्धि, उन्नत शिक्षा–उज्ज्वल भविष्य,सुलभ स्वास्थ्य–सुरक्षित जीवन, मजबूत आधार–आधुनिक विस्तार और सबका सम्मान–जीवन आसान. यह मॉडल दर्शाता है कि घोषणापत्र अब अस्थायी दस्तावेज नहीं, बल्कि स्थायी प्रशासनिक कार्यसूची में परिवर्तित हो रहे हैं. हालांकि, पूर्ववर्ती चरणों में सामने आई कमिया और भ्रष्टाचार के आरोप यह भी याद दिलाते हैं कि प्रतिबद्धता की परीक्षा केवल संकल्प में नहीं,बल्कि पारदर्शी क्रियान्वयन में होती है.

लोग कैसे कर रहे हैं सरकार का मूल्यांकन

परिणाम-आधारित शासन की बढ़ती अपेक्षा ने चुनावी राजनीति को भी प्रभावित किया है. हाल के चुनावी रूझान संकेत देते हैं कि मतदाता अब करिश्माई नेतृत्व से आगे बढ़कर प्रदर्शन-आधारित मूल्यांकन कर रहा है. सत्ता में स्थिरता अब वादों की विश्वसनीय पूर्ति पर निर्भर करती है. यह परिवर्तन लोकतंत्र को अधिक उत्तरदायी बनाता है, क्योंकि अब राजनीतिक नेतृत्व पर निरंतर दबाव है कि वह अपने संकल्पों को समयबद्ध और प्रभावी ढंग से पूरा करे.

भारतीय राजनीति ने भावनात्मक वादों के युग से निकलकर परिणाम-आधारित प्रतिबद्धता की दिशा में निर्णायक कदम बढ़ाए हैं. आज शासन की वैधता घोषणाओं से नहीं, बल्कि मापनीय उपलब्धियों, संस्थागत निरंतरता और जन-जीवन में प्रत्यक्ष सुधार से निर्धारित हो रही है. राजनीतिक विश्वास का नया आधार यही है- कहे गए वचनों को नीति में बदलना, नीति को परिणाम में ढालना और परिणाम को सामाजिक परिवर्तन में रूपांतरित करना. आने वाले समय में वही नेतृत्व टिकाऊ होगा, जो अपने घोषणापत्रों को केवल सैद्धांतिक संकल्प नहीं, बल्कि कार्यान्वयन की बाध्य प्रतिज्ञा मानकर आगे बढ़ेगा.

डिस्क्लेमर: लेखक देश की राजनीति पर पैनी नजर रखते हैं. वो राजनीतिक-सामाजिक मुद्दों पर प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में लिखते रहे हैं. इस लेख में व्यक्त किए गए विचार उनके निजी हैं, उनसे एनडीटीवी का सहमत या असहमत होना जरूरी नहीं है.
 

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