नृशंस तरीके से गोलियों से भून दिए जाने से पहले ट्विटर पर पोस्ट किए अपने संदेशों में से एक में शुजात बुखारी ने लिखा, "कश्मीर में, हमने फख्र के साथ पत्रकारिता की है, और हम ज़मीनी हकीकत को सामने लाना जारी रखेंगे..." यह थे शुजात, जो देश में लगातार बढ़ते उस ध्रुवीकृत प्रलाप से खीझे हुए थे, जो हम सभी पर, खासतौर से कश्मीर के पत्रकारों पर, ठप्पा लगा देना चाहता है. शुजात पर कोई ठप्पा लगाना आसान नहीं था. क्योंकि वह घाटी की संयत आवाज़ थे. आज के बदलते माहौल में इसका अर्थ यह हुआ कि वह कट्टर दक्षिणपंथियों के लिए 'जेहादी' थे, जो आज किसी भी ऐसे शख्स के लिए 'तारीफ' की बात है, जो अमन और बातचीत की वकालत करता है. और ऐन यही वजह है कि दूसरी ओर बैठे लोग उन्हें भारत के हाथों 'बिका हुआ' मानते रहे.
सच्चाई यही है कि शुजात ने हमेशा बातचीत और अमन का पक्ष लिया. वह भारत और पाकिस्तान के बीच 'ट्रैक 2' सर्किट को लेकर काफी सक्रिय थे. भारत में भी वह नियमित रूप से ऐसे सेमिनारों तथा कॉन्फ्रेंसों का आयोजन और उनमें शिरकत करते रहे, जिनमें कश्मीरी पंडितों और मुसलमानों के बीच मौजूद खाई को पाटने के मुद्दे पर भी चर्चा होती थी. पिछले कुछ वर्षों में वह TV पर भी नियमित रूप से नज़र आते रहे. हम भले ही हमेशा एक दूसरे से सहमत नहीं हुए, लेकिन वह शिष्ट थे और अपनी बात हमेशा ही पूरे सम्मान के साथ, लेकिन मज़बूती से रखते रहे.
वह मुझे कभी यह बताना नहीं भूलते थे कि किस तरह कुछ अन्य TV चैनलों ने अपने नफरत से भरे एजेंडा के तहत कश्मीर में लगातार ज़हर घोला है. मीडिया के ऐसे हिस्से ने बहुत नुकसान पहुंचाया है, और सभी कश्मीरियों की छवि पत्थरबाज़ों और आतंकवादी की बना देने में इन्हीं चैनलों की खास भूमिका रही है. यही चैनल शांति और अमन की बात करने वाले हर शख्स को गुटबाज़, यानी 'लॉबीस्ट' (lobbyist) और 'पाकिस्तान-परस्त' या 'पाकिस्तान का पिट्ठू' कहकर पुकारते हैं. इन चैनलों ने मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती को भी इस तरह के ठप्पे लगा देने से नहीं बख्शा, जो लोकतांत्रिक तरीके से चुनी गई मुख्यमंत्री हैं.
इसी वजह से कल रात (गुरुवार रात) मैंने ट्वीट किया था कि 'आराम से सोफे पर बैठने वाले देशभक्त' कतई नहीं समझते कि कश्मीर में पत्रकार किन हालात से गुज़रते हैं, रिपोर्टिंग के दौरान रोज़ ही किस तरह का दबाव झेलते हैं. मेरे सहकर्मी ज़फ़र इक़बाल को आतंकवादियों ने गोली मार दी थी, लेकिन वह चामत्कारिक रूप से बच गए. मैं जानती हूं कि उनके लिए घाटी से रिपोर्ट करते रहना कितनी हिम्मत का काम है; क्योंकि गोली मारे जाने के बाद कई साल तक वह कश्मीर में बसे रहने की हिम्मत भी नहीं जुटा पाए थे. वह और NDTV के नज़ीर मसूदी - दोनों ही हमेशा निष्पक्ष, विषय से नहीं भटकने वाले और हिम्मती रहे हैं, जिस तरह घाटी के कई अन्य पत्रकार भी हैं. आज, मैं उन सभी को उनके काम के लिए शुक्रिया कहना चाहती हूं.
शुजात ने घाटी में केंद्र सरकार द्वारा हाल ही में घोषित उस संघर्षविराम का स्वागत किया था, जिसे आतंकवादी गुट और उनके समर्थक उसी पल से तोड़ देना चाहते थे, जिस घड़ी वह लागू हुआ था. शुजात का कत्ल मुझे 2002 में हुई अलगाववादी नेता अब्दुल गनी लोन की हत्या की याद दिलाता है, जिन्हें अमन की बात करने के लिए मौत के घाट उतार दिया गया था. मुझे कतई शक नहीं है कि शुजात को मार डालने वाली ताकतें भी वही हैं. अब यह हमारी ज़िम्मेदारी है कि आखिरकार इन ताकतों की हार सुनिश्चित करें. आपकी आत्मा को शांति मिले, शुजात...
VIDEO: शुजात बुखारी की हत्या, सुपुर्द-ए-खाक में उमड़ी भीड़
निधि राज़दान NDTV की पूर्व एक्ज़ीक्यूटिव एडिटर हैं...
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