अण्णा हजारे के आंदोलन ने जंतर-मंतर की जमीन को एक नई पहचान दी है। इस आंदोलन ने लोगों में एक भरोसा कायम किया है। हो सकता है अण्णा हजारे जिस मुद्दे को लेकर आंदोलन कर रहे थे उसमें पूरी तरह सफल न हुए हों, लेकिन उनके साथ जुड़े लोगों को इस आंदोलन ने एक नई राह दिखाई है। हम अरविंद केजरीवाल का उदाहरण ले सकते हैं। अरविंद ने अपना आंदोलन जंतर-मंतर पर शुरू किया था और इस आंदोलन के सहारे वह दिल्ली के मुख्यमंत्री बने।
ऐसा ही एक बड़ा आंदोलन जंतर-मंतर पर सोमवार को देखने को मिला। पुणे से आए करीब 100 से भी ज्यादा छात्र जंतर-मंतर पर धरना देते हुए नजर आए। FTII (फिल्म एवं टेलीविजन इंस्टीट्यूट, पुणे) के यह छात्र अपने चेयरमैन गजेन्द्र चौहान की नियुक्ति को लेकर कुछ दिन से नाराज चल रहे हैं। यह छात्र अपने FTII के कैंपस पुणे प्रदर्शन कर रहे थे, लेकिन जब सरकार ने उनकी बात नहीं सुनी तो यह छात्र जंतर-मंतर पर धरने पर बैठ गए। हाथों में बैनर और झंडे लेकर आंदोलनकारी छात्र गजेन्द्र चौहान और सरकार के खिलाफ नारेबाजी करते हुए नजर आए।
इस धरने को राजनीतिक रंग भी दिया गया। जद (यू) से लेकर कांग्रेस तक कई बड़ी पार्टियों के नेता इस धरने में पहुंचे और अपना समर्थन जाहिर किया। इसमें कोई बुराई नहीं कि राजनेता धरने पर पहुंचें। बहुत बार राजनीतिक दबाव ही सरकार को अपने निर्णय बदलने पर मजबूर कर देता है... लेकिन कभी-कभी सरकार के लिए भी ऐसा मौका मिल जाता है, जब वह ऐसे आंदोलन को राजनीति से प्रेरित बताकर पतली गली से निकल जाती है. हालांकि मीडिया ने इस आंदोलन को गंभीरता से लिया। छात्रों से पहले मीडिया वाले ही जंतर-मंतर पहुंच गए थे।
जंतर-मंतर पर सोमवार को यह एक आंदोलन नहीं बल्कि कई प्रदर्शन चल रहे थे। एफटीटीआई के छात्र धरने पर बैठे थे वहीं उनके आसपास ही कुछ लोग हाथों में झंडे लेकर खड़े थे, जिनमें लिखा था "न्याय ,अधिकार, आज़ादी की लड़ाई में उठो, जागो और टूट पड़ो ... पीड़ितों को न्याय दिलाने हेतु संसद चलो।" यह विरोध था हिसार के भगणा गांव से आए कुछ दलितों का। उनका आरोप था कि भगणा गांव में खाप पंचायत द्वारा 250 दलित परिवारों को बहिष्कृत कर दिया गया है, जो कि गलत है। यह लोग चार साल से न्याय के लिए दर-दर भटक रहे हैं, लेकिन कोई असर नहीं। आजादी और अधिकार की इस लड़ाई में सिर्फ इन लोगों की आवाज सुनाई दे रही थी। यह लड़ाई न मीडिया को जगाने में कामयाब हुई थी न ही कोई नेता इस आंदोलन में कूदा।
सिर्फ इतना ही नहीं आसपास और भी कई धरने नजर आ रहे थे। आल इंडिया रेडियो के कुछ कर्मचारियों से लेकर के एलआईसी फाइनेंसियल सर्विसेज इक्जीक्यूटिव भी जंतर मंतर पर अपनी स्थाई नौकरी और कुछ मांगों को लेकर धरने पर बैठे हुए थे। एक रैंक और एक पेंशन को लेकर 51 दिन से कुछ पूर्व सैनिक भी जंतर-मंतर पर बैठे हुए हैं। कैमरा देखते ही लोग जोर-जोर से चिल्ला रहे थे और मीडिया का ध्यान अपनी तरफ खींचने की कोशिश कर रहे थे। कहीं न कहीं इन लोगों को अहसास था कि मीडिया की मदद से उनकी बात सरकार तक पहुंच सकती है, लेकिन मीडिया के कैमरे सिर्फ FTII के छात्रों के पीछे ही भाग रहे थे।
क्या सच में ऐसे आंदोलनों का कोई भविष्य है... जहां लोगों की बात सरकार के पास पहुंचने के लिए कई साल लग जाते हैं ? यह लोग तो जंतर-मंतर की जमीन पर अपनी जंग जारी रखे हैं, लेकिन यह जंग न तो मीडिया के जमीर को जगा रही है न ही नेताओं की नियत को।