याद नहीं पड़ता, कभी नाडा ऑफिस के सामने इस तरह का माहौल देखा हो. जहां किसी राजनीतिक रैली की तरह नारे लगाए जा रहे हों. उन नारों के बीच नरसिंह यादव किसी ‘बेचारे’ के बजाय हीरो की तरह सुनवाई के लिए जाते थे. कई दिन यह माहौल दिखा. उस समय भी, जब नाडा के महानिदेशक नवीन अग्रवाल फैसला सुना रहे थे. तब भी बैकग्राउंड में नरसिंह यादव जिंदाबाद ज्यादा साफ सुनाई पड़ रहा था. लड्डू बांटे जा रहे थे. पता नहीं कि लड्डू उम्मीद में आए थे या पहले पता चल गया था कि फैसला क्या होने वाला है.
नाडा ऑफिस से फोकस शिफ्ट हुआ अशोक रोड पर. यहां कुश्ती संघ का कार्यालय और संघ के अध्यक्ष बृजभूषण शरण सिंह का घर है. यहां भी लड्डुओं का दौर जारी था, नारों का भी. हर किसी के चेहरे पर मुस्कान थी. बृजभूषण शरण सिंह से लेकर नरसिंह यादव और उनके समर्थकों तक. शायद जब कुछ देर बाद मामला शांत हुआ होगा. नरसिंह अकेले अपने कमरे में बैठे होंगे. तब वे सोच रहे होंगे कि क्या वे इसी तरह की मुस्कान के लिए पिछले चार साल से तैयारी कर रहे थे? वे सोच रहे होंगे कि जब वर्ल्ड चैंपियनशिप का मेडल जीतकर रियो ओलिंपिक के लिए क्वालिफाई किया था, तो क्या वह इसी दिन की मुस्कान के लिए किया था? वे तो पदक के साथ वाली मुस्कान चाहते थे. नरसिंह को नाडा ने बरी कर दिया है. पता नहीं वाडा इसके खिलाफ अब क्या फैसला लेता है. लेकिन क्या वाकई नरसिंह के लिए बरी होना ही पदक है? और अगर नहीं, तो रियो से पदक लेकर आने का सपना क्या बरकरार है?
हर कोई दावा कर रहा था कि अब तो नरसिंह रियो जाएंगे. सवाल यही है कि क्या नरसिंह सिर्फ रियो जाना चाहते थे? क्या उनका सपना महज ओलंपियन बनने का था? या फिर वे ओलिंपिक चैंपियन बनना चाहते थे. रियो जाना, न जाना... अपनी जगह है. लेकिन उस सपने का क्या, जिसे तोड़ने की कोशिश में कोई कसर नहीं बची? पहले काफी समय कोर्ट केस में निकल गया. सुशील कुमार ट्रायल्स कराने की मांग लेकर कोर्ट चले गए थे. वहां नरसिंह के पक्ष में फैसला आया. उसके बाद करीब एक पखवाड़ा नाडा ऑफिस के चक्कर लगाते हुए बीता. यहां भी नरसिंह के पक्ष में फैसला आया. लेकिन पक्ष में आए फैसलों में लगा समय और उस दौरान मानसिक तनाव ने क्या नरसिंह से ओलिंपिक मेडल का सपना नहीं छीन लिया? जिस वक्त नरसिंह को अपने प्रतिद्वंद्वियों के बाउट की वीडियो रिकॉर्डिंग देखकर रणनीति बनानी थी, जिस वक्त उन्हें 81 किलो वजन को साइंटिफिक तरीके से 74 किलो लाने की रणनीति बनानी थी, जिस वक्त उनका एक-एक पल रियो के सपनों को सच करने में बीतना था, उस वक्त वे नाडा और कुश्ती संघ के ऑफिस में चक्कर लगा रहे थे.
रविवार को मेजर ध्यानचंद की प्रतिमा पर पुष्प चढ़ाने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने घोषणा की थी कि आज ही हम प्रण लें कि अगली बार दो सौ से ज्यादा एथलीट ओलिंपिक जाएंगे. लेकिन प्रधानमंत्री जी, अब हमारा सपना सिर्फ ओलिंपिक जाने तक सीमित नहीं है. हमें तो वहां से पदक जीतकर आना है. क्या उसके लिए कोई माहौल बनेगा?
एक अखबार के इंटरव्यू में योगेश्वर दत्त ने कहा था कि मैंने नरसिंह को चेतावनी दी थी. उनका कहना था कि वे साई सेंटर के मेस में बना खाना नहीं खाते. उन्होंने नरसिंह को भी वह खाना न खाने को कहा था. यह जानना जरूरी है कि साई के बेहतरीन सेंटर्स में से एक है सोनीपत. जहां पर खिलाड़ियों के लिए बेहतरीन सुविधाएं हैं. ऐसी सुविधाओं के बीच खिलाड़ी इस शंका के साथ अभ्यास कर रहे हैं कि कहीं उनके खाने में कुछ मिला तो नहीं दिया गया? क्या इसी तरह अच्छी तैयारी हो सकती है? इस माहौल से बाहर निकालने के लिए कुछ कीजिए प्रधानमंत्री जी. पहले अपने लोगों को अपने लोगों पर भरोसा करने का माहौल तो बनाइए. एथलीट भले ही 100 जाएं, लेकिन भरोसा हो. भरोसा होगा, तो बेहतर तैयारियों के साथ जाएंगे.
कई खेलों में सुनते और देखते रहे हैं कि खिलाड़ी बड़े इवेंट के ट्रायल्स से पहले साथियों से अलग रहने की कोशिश करते हैं. खास तौर पर फिजिकल स्पोर्ट में, जहां एक खेमे के खिलाड़ी ने ट्रायल्स में कुछ ऐसा कर दिया कि दूसरे खेमे का दावेदार चोटिल हो जाए. बॉक्सिंग हो, कुश्ती हो... फुटबॉल या हॉकी हो, इन सबमें ऐसी घटनाएं हुई हैं. ऐसा भी होता रहा है कि लोग डोपिंग में फंसाए जाने से बचने के लिए खाने की चीजों पर खास ध्यान रखते थे. लेकिन सरकार के सेंटर पर खाने में कुछ न मिला दिया जाए, क्या यह सोच भी दिमाग में आनी चाहिए?
नवीन अग्रवाल ने फैसला सुनाते हुए कहा था कि नरसिंह के पेय पदार्थ में उनके ‘कंपटीटर’ ने कुछ मिलवा दिया. कौन है कंपटीटर? दरअसल, नरसिंह का कंपटीटर कहते ही जो चेहरा जेहन में घूमता है, वह देश के सबसे बड़े खिलाड़ियों में से एक का है. क्या नाडा महानिदेशक का इशारा उसी तरफ था, या प्रेस कांफ्रेंस में बोलते हुए उन्होंने गलत शब्द का चयन किया? ऐसे हाई प्रोफाइल मामले में गलत शब्द का चयन कतई नहीं किया जाना चाहिए। ...और अगर इशारा वही था, तो आप समझ सकते हैं कि शक किस कदर गहरे उतर चुका हैं. क्या ऐसे शक के माहौल में ही ओलिंपिक की तैयारी होती है?
करीब एक पखवाड़े पहले जो सवाल नरसिंह की मासूमियत और बेगुनाही से शुरू हुआ था, उसने बड़ी शक्ल अख्तियार कर ली है. क्या यह जंग सिर्फ इसलिए थी कि नरसिंह को डोपी न माना जाए? अगर ऐसा है, तो वह जंग अब भी जारी है, क्योंकि हमें अभी नहीं पता कि वाडा 21 दिनों के भीतर कैस (CAS) में अपील का फैसला करता है या नहीं. इन पंक्तियों को लिखने तक यह भी नहीं पता कि यूनाइटेड वर्ल्ड रेसलिंग नरसिंह को रियो में उतरने की इजाजत देता है या नहीं. सवाल यहां वाडा की अपील या यूनाइटेड वर्ल्ड रेसलिंग का नहीं, सवाल नरसिंह यादव के सपनों का है. ..और सिर्फ इस नरसिंह यादव ही नहीं, उनके बाद आने वाले तमाम नरसिंहों के सपनों का है. जो ओलिंपिक जाने वाले भारतीयों में नंबर बढ़ाना नहीं चाहते. वे नंबर वन आना चाहते हैं। वे चाहते हैं पोडियम पर खड़े होना. वे चाहते हैं तिरंगे को सबसे ऊपर ले जाना. वे चाहते हैं राष्ट्रगान सुनना. उस सपने को बचाने के लिए क्या करेंगे? अपने ही साजिश करेंगे, अपनों पर ही संदेह होगा तो सपने बार-बार टूटते रहेंगे. ...और लड्डू खाने के बाद कोई और नरसिंह खाली बैठकर सोचता रहेगा कि वह क्यों मुस्कुरा रहा था... अपने सपने टूटने पर? हो सकता है कि यह नरसिंह जाए और पदक भी जीत लाए. चमत्कार होते ही हैं. लेकिन अगर एक बार ऐसा हो भी जाए, तो हर बार, हर नरसिंह के साथ चमत्कार नहीं होगा. चमत्कार रोज नहीं होते.
(शैलेश चतुर्वेदी वरिष्ठ खेल पत्रकार और स्तंभकार हैं)
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This Article is From Aug 01, 2016
नरसिंह जीते, लेकिन उनका सपना तो नहीं हार गया?
Shailesh Chaturvedi
- ब्लॉग,
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Updated:अगस्त 01, 2016 21:12 pm IST
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Published On अगस्त 01, 2016 21:12 pm IST
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Last Updated On अगस्त 01, 2016 21:12 pm IST
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