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This Article is From Feb 21, 2019

नामवर सिंह : मरेंगे हम किताबों पर, वरक होगा कफ़न अपना...

Prabhat Upadhyay
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    फ़रवरी 21, 2019 13:38 pm IST
    • Published On फ़रवरी 21, 2019 13:32 pm IST
    • Last Updated On फ़रवरी 21, 2019 13:38 pm IST

करीबन 6 फीट का डील-डौल... झक सफेद धोती-कुर्ता और ऊपर खादी की सदरी...मुंह में पान गुलगुलाते हुए...नामवर सिंह जी (Namwar Singh) को जब भी देखा ऐसे ही देखा...दिल्ली में बनारस को जीते हुए. कल वे दुनिया को अलविदा कह गए और उनके साथ ही दिल्ली में बनारस की एक पहचान भी रुख़सत हो गई. मैं हिंदी साहित्य का छात्र नहीं रहा हूं, लेकिन हिंदी से साबका साहित्य के जरिये ही हुआ. कहानी, उपन्यास, व्यंग्य, कविता और बहुत बाद में आलोचना तक पहुंचा (सिर्फ पहुंच ही पाया). और इसी पड़ाव पर नामवर सिंह के नाम से रूबरू हुआ. हिंदी की दुनिया में आपसी टांग खिंचाई के बीच दिल्ली की तमाम सभा और गोष्ठियों में मैंने नामवर सिंह के लिए बेपनाह इज्ज़त देखी. समकालीन हिंदी साहित्यकारों में शायद ही इतनी इज्ज़त और अदब किसी को अता हुई हो. नामवर सिंह को और करीब से जानने का मौका उनके छोटे भाई और ख्यात साहित्यकार काशीनाथ सिंह के संस्मरण 'घर का जोगी जोगड़ा' से मिला. 

बनारस की 'ऊसर भूमि' जीयनपुर से निकल नामवर सिंह (Namwar Singh) ने बीएचयू, सागर और जेएनयू में हिंदी साहित्य की जो पौध रोपी, उनमें से तमाम अब ख़ुद बरगद बन गए हैं. 93 साल...एक सदी में सिर्फ 7 बरस कम. पिछले दो ढाई महीनों को छोड़कर नामवर सिंह लगातार सक्रिय रहे और हिंदी की थाती संजोते-संवारते रहे. आखिरी घड़ी तक लगे रहे. कई मौकों पर उनका विवादों से भी नाता जुड़ा. लेकिन उन्हीं के शब्दों में, 'सलूक जिससे किया मैंने आशिकाना किया'. और जब मौका आया तो अपनी भूल-चूक स्वीकार भी की. मसलन उन्होंने माना कि "रेणु" को समझने में उनसे देरी हुई. एक इंटरव्यू में जब उनसे पूछा गया कि 'आपको कैसे लोगों से ईर्ष्या होती है?' उन्होंने कहा - "जो वही चीज कह या लिख देते हैं जिसे सटीक ढंग और सलीके से कहने के लिए मैं सालों-साल बेचैन रहा". 

नामवर सिंह (Namwar Singh) कहते थे कि किताब और कलम के बिना मैं जीवन की 'कल्पना' भी नहीं कर सकता हूं. कुछ महीनों पहले उन्होंने 'प्राइम टाइम' के लिए इंटरव्यू दिया था. यह शायद उनका आखरी इंटरव्यू था. हर कोने में किताबों का कब्ज़ा...पुरस्कार...ट्रॉफी...सर्टिफिकेट. इंटरव्यू के दौरान जब उनसे पूछा गया कि 'हिंदी समाज़ अपने बुजुर्गों को अकेला क्यों छोड़ देता है?' तो नामवर जी ने तपाक से कहा- 'मेरे पास काम की कमी नहीं है'. उन्होंने आगे कहा- "मरेंगे हम किताबों पर, वरक होगा कफ़न अपना". नामवर सिंह का यह उत्तर उनकी जीवटता का उदाहरण तो था ही, साथ ही हिंदी समाज पर गंभीर टिप्पणी भी थी. नामवर सिंह (Namwar Singh) कहते थे कि दिल्ली तो सिर्फ उनके दिमाग में है, दिल तो बनारस में ही है. अब भले ही वे भौतिक रूप से हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनके रचे और कहे गए शब्दों की ख़ुशबू आपको जरूर मिल जाएगी. लोलारक कुंड के रास्तों पर, जहां से उन्होंने यह यात्रा शुरू की थी और जहां वापस लौटना चाहते थे.


(प्रभात उपाध्याय ndtv.in  में चीफ सब एडिटर हैं...)
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं. इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति NDTV उत्तरदायी नहीं है. इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं. इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार NDTV के नहीं हैं, तथा NDTV उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है.

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