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This Article is From Nov 08, 2016

जेएनयू से गायब नजीब मामले में अपराधशास्त्र की याद

Sudhir Jain
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    नवंबर 08, 2016 19:18 pm IST
    • Published On नवंबर 08, 2016 19:18 pm IST
    • Last Updated On नवंबर 08, 2016 19:18 pm IST
जेएनयू के छात्र नजीब का मामला देश में उपलब्ध अपराधशास्त्री भी जान समझ रहे होंगे. यह अलग बात है कि अपराध शास्त्रियों की भूमिका अपने देश में अभी तक तय नहीं हो पाई है. वैसे यह अपराधशास्त्री प्रशिक्षण लेते समय पढ़ते पुलिस विज्ञान भी हैं. लेकिन भारतीय पुलिस सेवा या राज्यों की पुलिस में प्रशिक्षित अपराधशास्त्रियों की अलग से कोई खास जगह अब तक बन नहीं पाई. जो थोड़ी बहुत बनी थी वह भी जुनूनी और पारंपरिक ज्ञान के नए उठान के माहौल में हाशिए पर चली जा रही है. हालांकि पुलिस प्रशिक्षण स्कूलों में अपराधशास्त्रियों की नियुक्ति का नियम पिछली सदी के आठवें दशक में बन गया था. लेकिन पुलिस विज्ञान के विदेशी ज्ञान विज्ञान को पढ़कर निकलने वाले इन अपराधशास्त्रियों को भारतीय पुलिस के लिए बहुत काम का समझा नहीं गया. चाहे कंधार विमान अपहरण का मामला हो या आरुषि हत्याकांड, हर बार पुलिस अपनी पारंपरिक प्रणाली से ही काम चलाती रही और आखिर तक अपनी फजीहत करवाती रही. हो सकता है कि नजीब के इस मामले में आगे पीछे अपराधशास्त्रियों की याद आए. एक प्रशिक्षित अपराधशास्त्री होने के नाते इस आलेख में कुछ बातें दर्ज कराने की इच्छा है.

है क्या अपराधशास्त्र
यह विज्ञान की एक शाखा है. इसमें अपराध के लगभग हर पहलू की पढ़ाई होती है. अपने देश में इस विषय की औपचारिक पढ़ाई मप्र के सागर विश्वविद्यालय में 1960 के दशक में शुरू हुई थी. लेकिन अपराधशास्त्र व न्यायिक विज्ञान नाम से शुरू इस विभाग की तरफ प्रदेश की सरकारों का ज्यादा ध्यान कभी नहीं गया. यहां से निकले प्रशिक्षित अपराधशास्त्रियों को ब्यूरो ऑफ पुलिस रिसर्च एंड डेवलपमेंट और नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल डिफेंस जैसे संगठनों और संस्थानों की शोध परियोजनाओं में काम करने का मौका जरूर मिला लेकिन यह देखने में नहीं आया कि पुलिस विज्ञान में उनके हुनर का इस्तेमाल करने की कोशिश हुई हो. झूठ पकड़ने की मशीन चलाने के छोटे मोटे काम पर लगाने के इक्का दुक्का उदाहरण जरूर हैं लेकिन डिटेक्टिव ट्रेनिंग स्कूल या भारतीय पुलिस सेवा के लिए तैयार किए जाने वाले प्रशिक्षुओं को प्रशिक्षण देने का काम आमतौर पर पुराने आईपीएस के हवाले ही रहा. कारण क्या रहे? यह एक अलग से शोध का विषय है. आज इस पर सोचने विचारने का काम देश के गृह मंत्रालय या मानव संसाधन विकास मंत्रालय का है.

अगर करते तो अपराधशास्त्री क्या करते
जांच पड़ताल की शुरुआत बेशक पारंपरिक तरीके से ही होती. मसलन अनुसंधान अधिकारी सबसे पहले नजीब के संभावित दुश्मनों, नजीब के मित्रों, रिश्ते-नातेदारों और स्कूली दौर के साथियों की लिस्ट बनाता. यह लिस्ट मौजूदा पुलिस ने भी जरूर बनाई होगी. लेकिन पारंपरिक तरीके में एक कमी यह होती है कि जैसे ही चार नाम पता चलते हैं पुलिस वहां चल पड़ती है. पारंपरिक तरीका थर्ड डिग्री मैथड वाला होता था. आमतौर पर पारंपरिक पुलिस को आज भी यकीन है कि लाठी बजाकर सब कुछ पता कर लेगी. जबकि दुनियाभर में सभ्य समाज की पुलिस को यह प्रशिक्षण दिया जाने लगा है कि वह वैज्ञानिक तरीके से पड़ताल करे. इसीलिए अपराधशास्त्र में समाज मनोविज्ञान खासतौर  पढ़ाया जाता है. उसे सामाजिक शोध पद्धति बड़ी शिद्दत से पढ़ाई जाती है. तथ्य एकत्रित करने के वैज्ञानिक तरीके उसे विस्तार से पढ़ाए जाते हैं. इसके लिए उसे प्रश्नावली, प्रश्न अनुसूची और साक्षात्कार मार्गदर्शिका बनाने की ट्रेनिंग दी जाती है. इस पद्धति के चलन में न आ पाने का कारण यह समझ में आता है कि समय, मेहनत और खर्चे के लिहाज से यह तरीका महंगा पड़ता है. खैर यह तरीका अपनाया जाता तो नजीब मामले में संबधित व्यक्तियों से जानकारी जुटाने के लिए कम से कम चार सौ लोगों की लिस्ट बनानी पड़ती. खोई हुई चीज़ को ढूंढने की वैज्ञानिक पद्धतियां भी विकसित हैं. खोजी कुत्ते ऐसे काम में अच्छा खासा प्रशिक्षण पा रहे हैं.

अब तो विक्टिमोलॉजी भी है हमारे पास
यह अपराधशास्त्र की नई शाखा है. इसमें अपराधी से ज्यादा अपराध के पीड़ित यानी विक्टिम का अध्ययन किया जाता है. कानून का पालन करवाने की जिम्मेदार एजेंसियों और कानून व्यवस्था बनाए रखने के लिए जवाबदेह सरकारों को यह शाखा  बड़ी अच्छी लगती है. इधर इसका चलन बढ़ रहा है. वैसे यह पारंपरिक तरीका भी रहा है. मसलन अपनी जेब कटने की शिकायत करने पर आमतौर पर पुलिस यह पूछती थी कि अबे तू भीड़ में क्या कर रहा था. या तू अपने घर वापस इतनी रात गए क्यों जा रहा था. खैर यहां नजीब के मामले में विक्टिमोलॉजी यह लगाई जा सकती थी कि उसके पीड़ित होने या शिकार हो जाने की संभाव्यताएं क्या-क्या हो सकती हैं. यह हिसाब लगाते ही मामले की जांच पड़ताल बहुत ही आसान हो जाती है. लेकिन नए माहौल में ऐसे वैज्ञानिक तरीके लगाने से कई सामाजिक और राजनीतिक लफड़े भी खड़े होने का अंदेशा है. हो सकता है कि इसी कारण पुलिस इस चक्कर में न पड़ती हो.

अपराधशास्त्र की जरूरत बढ़ते जाने के आसार
अपराधशास्त्र का विद्यार्थी जब अपराध के कारणों का अध्ययन करता है तो उसे सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, और वैधानिक सभी कारण पढ़ा दिए जाते हैं. देश में जिस तरह की आर्थिक स्थितियां हैं, जिस तरह बेरोजगारी की समस्या बढ़ रही है, सामाजिक वैमनस्य बढ़ रहा है, उस लिहाज से एक सामान्य अनुमान यह है कि आने वाले समय में अपराधों की संख्या में भारी बढ़ोतरी होगी. यह विकट स्थिति दरपेश न आए इस काम के लिए भी अपराधशास्त्रियों की जरूरत पड़ सकती है. अपराधों के विरुद्ध प्रतिरोध के लिए पुलिस की क्षमता और दक्षता का प्रबंध अभी से करने में ही समझदारी है. आग लगे पर कुआं खोद नहीं पाएंगे.

सुधीर जैन वरिष्ठ पत्रकार और अपराधशास्‍त्री हैं...

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