आलोक वर्मा को डीजी तिहाड़ बनने के पहले बहुत कम ही लोग जानते थे. उनका किसी विवाद में कोई नाम नहीं आया था. लेकिन 5 अगस्त 2014 को जब वे डीजी तिहाड़ बने तो विवादों ने उनका पीछा करना शुरू कर दिया. यहां पुलिस मुख्यालय में बैठे कुछ आईपीएस उनके लिए एक स्क्रिप्ट लिख रहे थे. दरअसल उस दौर में तिहाड़ जेल में कुछ ऐसा चल रहा था जो उन्हें बार-बार एक डीजी के तौर पर सवालों के घेरे में खड़ा कर रहा था.
वह शायद साल 2016 की एक दोपहर थी जब तिहाड़ जेल में लॉ ऑफीसर रहे सुनील गुप्ता ने तिहाड़ जेल से जुड़े एक मामले में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस रखी. शायद वह मामला कुछ कैदियों के एशिया की सबसे सुरक्षित जेल से भागने का था. उस प्रेस कॉन्फ्रेंस में 1979 बैच के यूटी कैडर के आईपीएस अफसर आलोक वर्मा भी आए जो उस समय डीजी तिहाड़ जेल थे. बताया गया कि पीसी वही करेंगे. वर्मा हॉट सीट पर बैठे. कैमरे तैयार थे और वर्मा बोलने ही वाले थे कि अचानक उन्होंने पीसी करने से मना कर दिया. उन्होंने अपने साथ बैठे एक आईजी रैंक के अधिकारी को प्रेसवार्ता करने की जिम्मेदारी सौंप दी. खैर प्रेसवार्ता हुई. उसके बाद जब मैंने अधिकारियों से पूछा कि वर्मा जी को अचानक क्या हुआ तो उन्होंने बताया कि वे कैमरा फ्रेंडली नहीं हैं. उनको मैंने पहली बार किसी प्रेस कॉन्फ्रेंस में इस तरह देखा था. वह आलोक वर्मा की आखिरी प्रेस कॉन्फ्रेंस थी जो उनके बिना बोले ही खत्म हो गई. उसके बाद वे 11 महीने तक दिल्ली पुलिस कमिश्नर रहे, लेकिन कभी उन्हें मीडिया कर्मियों से मिलते या प्रेस कॉन्फ्रेंस करते नहीं देखा गया. तब पता चला कि वे कैमरा फ्रेंडली न होने के साथ-साथ मीडिया फ्रेंडली और यहां तक कि सबके लिए फ्रेंडली भी नहीं हैं.
जिस समय वे तिहाड़ जेल में थे, सहारा के मालिक सुब्रतो रॉय भी जेल में थे, लेकिन कोर्ट के आदेश पर उन्हें डीजी आफिस के पास ही रखा गया था. उस समय तिहाड़ जेल में तैनात मेरे जानकर कई अफसर दोनों की गहरी दोस्ती की चर्चा करते थे. यह भी कहा जाता था कि कोई व्हाट्सऐप ग्रुप भी था जिसमें बहुत कुछ शेयर होता था. वे यह भी कहते थे कि आलोक वर्मा सुब्रतो रॉय की और सुब्रतो रॉय उनकी मदद करते हैं. यानी तिहाड़ जेल में एक बड़ी लॉबी थी जो आलोक वर्मा को ईमानदार अफसर नहीं मानती थी. हालांकि किसी भी संस्थान में 2 ग्रुप बन जाएं तो एक-दूसरे पर आरोप लगाना आम है. हालांकि वर्मा पर ऐसे ही आरोप एक लॉबी तब लगाती रही जब वे दिल्ली पुलिस कमिश्नर थे.
जब वे डीजी तिहाड़ जेल थे तब तिहाड़ जेल में हर रोज कोई न कोई खबर होती थी. कभी हत्या तो कभी कैदियों का भागना,और कभी कैदियों के बीच गैंगवार. कुछ ही महीनों में 15 से ज्यादा कैदियों की मौत हो चुकी थी. हमारे लिए ये अहम खबरें थीं, लेकिन खबरें तिहाड़ जेल से मिलने की बजाय दिल्ली पुलिस मुख्यालय से मिलतीं थीं. यानी खबरें लीक होने का सेंटर था दिल्ली पुलिस मुख्यालय,जहां 3-4 बड़े आईपीएस अधिकारियों की एक टीम ये काम बखूबी करती थी. शायद ये इसलिए किया जाता रहा कि आलोक वर्मा को मीडिया के जरिए इतना बदनाम कर दिया जाए कि वे दिल्ली पुलिस कमिश्नर न बन पाएं. आईपीएस लॉबी के बीच ये झगड़ा पुराना था.
पुलिस मुख्यालय काफी हद तक अपने मंसूबों में कामयाब हुआ भी, लेकिन किस्मत के धनी आलोक वर्मा उसी पुलिस मुख्यालय में 29 फरवरी 2016 को कमिश्नर बनकर आ गए. उनका आना कई बड़े आईपीएस अधिकारियों के लिए खतरे की घंटी साबित हुआ. उन्होंने आते ही सबसे पहली मीटिंग में स्पेशल कमिश्नर धर्मेन्द्र कुमार की क्लास ले ली क्योंकि मीटिंग में उनके फोन की घंटी बज गई थी. इसके बाद दूसरे खेमे के स्पेशल कमिश्नर धर्मेन्द्र कुमार और स्पेशल कमिश्नर दीपक मिश्रा ने अपना तबादला करा लिया, जो आलोक वर्मा के आने के पहले पुलिस कमिश्नर की लाइन में थे. इसके बाद आलोक वर्मा ने पुलिस मुख्यालय में अपनी लॉबी को खड़ा करना शुरू किया. उनकी गुड बुक में कई आईपीएस अफसर थे, जिन्हें उनके कार्यकाल में तरक्की और सम्मान मिला और जो विरोधी थे एक एक कर दूर होते गए.
इस बीच एसीपी अनिल चटवाल सबसे ज्यादा चर्चा में रहे. कहा जाता है कि चटवाल आलोक वर्मा के सबसे करीबी थे और सिपाही से लेकर ऊपर तक हर किसी का ट्रांसफर और पोस्टिंग का काम चटवाल ही देखते थे. कई लोग कहते थे कि वर्मा चटवाल के साथ मिलकर ट्रांसफर पोस्टिंग इंडस्ट्री चला रहे हैं. आलोक वर्मा के बारे में एक कहावत है कि जो उनकी लॉबी का है उसके सात खून माफ और जो विरोधी है उसकी वे शक्ल भी देखना पसंद नहीं करते.
इसके बाद आलोक वर्मा का अगला हमला हुआ दिल्ली पुलिस के मीडिया सेंटर पर, जिसके मुखिया राजन भगत थे. वर्मा को ऐसा लगता था कि जब वे डीजी तिहाड़ थे तब उनके खिलाफ जो खबरें आ रही थीं उन्हें बड़े अफसर राजन भगत के जरिए ही प्लांट करते रहे हैं. अफसरों के मुताबिक उन्हें राजन भगत के चेहरे से भी नफरत थी इसलिए वे राजन भगत को पुलिस मुख्यालय से बाहर करने का बहाना खोज रहे थे. एक दिन आलोक वर्मा की पत्नी दिल्ली पुलिस के किसी फैमिली वेलफेयर कार्यक्रम में आईं. उस कार्यक्रम का न तो मीडिया में कवरेज मिला और न ही आलोक वर्मा की पत्नी का फोटो किसी अखबार में ठीक से छापा गया. आलोक वर्मा ने इसी बात से नाराजगी का बहाना लेकर राजन भगत को पुलिस मुख्यालय के बाहर कमला मार्केट क्राइम ब्रांच के आफिस में सीआरओ के पद पर भेज दिया.
मीडिया में कई लोग आलोक वर्मा को ट्रांसफर सीपी कहते थे क्योंकि दिल्ली पुलिस के ही कई अफसरों की मानें तो वर्मा ने अपने करीबी अनिल चटवाल के जरिए जो ट्रांसफर पोस्टिंग का खेल खेला, वह अपने आप में एक रिकॉर्ड था. वर्मा ने अपने 11 महीने के कार्यकाल में हजारों ट्रांसफर किए. यही नहीं वर्मा ने सीबीआई निदेशक बनने का ऑर्डर आने के बाद भी पुलिस मुख्यालय चार्ज छोड़ने के पहले अपने आखिरी दिन तक ट्रांसफर की लिस्ट निकाली. सूत्रों की मानें तो इन दिनों में उन्होंने 12 एसएचओ के ट्रांसफर किए, जो आम तौर पर कोई पुलिस कमिश्नर नहीं करता. हां वर्मा के कार्यकाल में एक काम की जरूर सराहना हुई, जो था गृह मंत्रालय से हरी झंडी मिलने के बाद 25000 पुलिस कर्मियों का एक साथ प्रमोशन. इसके लिए उन्हें याद रखा जाएगा.
आईपीएस अफसरों की मानें तो वर्मा का टिकट दिल्ली पुलिस कमिश्नर से जब निदेशक सीबीआई के लिए कटा तो उनके पंख लग गए. कहा जाता है कि उन्होंने जाते-जाते अपनी पसंद का पुलिस कमिश्नर भी लगवा दिया और इस तरह वर्मा का सिक्का दिल्ली पुलिस में भी चलता रहा. उनकी लॉबी के लोग दिल्ली पुलिस में आज भी मलाईदार पोस्टिंग काट रहे हैं. दिल्ली पुलिस में उनकी कितनी पकड़ है इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता कि उनके घर के बाहर आईबी के दो अफसरों से पुलिस कर्मियों ने सरेआम बदसलूकी की. उनकी पहचान मीडिया में दिखा दी गई लेकिन पुलिसकर्मियों का कुछ नहीं हुआ.
आज कई पुलिस अफसर जो खुद को वर्मा का सताया हुआ मानते हैं, नाम न छापने की शर्त पर कह रहे हैं "जो जैसा करता है उसके साथ वैसा ही होता है. वर्मा तिहाड़ जेल के डीजी थे और लगता है अब फिर तिहाड़ जाएंगे." लेकिन दिल्ली पुलिस में दूसरी लॉबी है जो इस समय सबसे ताकतवर है, वह आलोक वर्मा के हटाए जाने से बेहद हताश है. उन्हें लगता है कि अब उनकी ताकत कम होगी.
मुकेश सिंह सेंगर NDTV इंडिया में रिपोर्टर हैं...
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