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मदर्स डे स्पेशल: मातृत्व सुख में आड़े आती एक अनजान बीमारी

Himanshu Joshi
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    मई 12, 2025 14:12 pm IST
    • Published On मई 12, 2025 09:06 am IST
    • Last Updated On मई 12, 2025 14:12 pm IST
मदर्स डे स्पेशल: मातृत्व सुख में आड़े आती एक अनजान बीमारी

न्यू मदर्स के लिए 'पोस्टपार्टम डिप्रेशन' किसी बुरे सपने की तरह होता है, इससे वे मातृत्व के सुख को पूरी तरह महसूस नहीं कर पातीं. 'मदर्स डे' पर हम इस बीमारी के अनुभव से गुजरने वाली कुछ मदर्स से बात करते हुए आपको अब तक लगभग अनजान रही बीमारी 'पोस्टपार्टम डिप्रेशन' से परिचित कराएंगे.

क्या है मदर्स को डिप्रेशन में भेजने वाला पोस्टपार्टम डिप्रेशन

पोस्टपार्टम डिप्रेशन एक गंभीर मानसिक स्वास्थ्य होता है, जो प्रसव के बाद कई महिलाओं को प्रभावित करती है. बेबी ब्लूज (प्रसव के बाद होने वाली अस्थायी उदासी या मूड स्विंग) से पोस्टपार्टम डिप्रेशन अलग होता है. पोस्टपार्टम डिप्रेशन में माँ को गहरी उदासी, पति पर अविश्वास, निराशा, थकान, बच्चे के प्रति लगाव न महसूस करना, नींद न आना, या आत्महत्या के विचार जैसे लक्षण हफ्तों या महीनों तक बने रहते हैं. यह समस्या शारीरिक हार्मोनल बदलाव, तनाव, नींद की कमी, या पारिवारिक सहयोग के अभाव में भी बढ़ती जाती है.

विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के अनुसार, दुनिया भर में 10-15% महिलाएं पोस्टपार्टम डिप्रेशन से प्रभावित होती हैं, लेकिन भारत में यह आंकड़ा और भी ज्यादा हो सकता है क्योंकि यहां मानसिक स्वास्थ्य को लेकर जागरूकता की कमी है. इसका इलाज काउंसलिंग, दवाओं और परिवार के सहयोग से संभव है. अगर समय पर इलाज नहीं मिले, तो यह माँ और बच्चे दोनों के स्वास्थ्य पर दीर्घकालिक प्रभाव डाल सकता है, इसलिए लक्षण दिखने पर तुरंत किसी मनोचिकित्सक या स्त्री रोग विशेषज्ञ से संपर्क करना चाहिए.

भारत में पोस्टपार्टम डिप्रेशन और डाउन केम द रेन: माय जर्नी थ्रू पोस्टपार्टम डिप्रेशन

भारत में मानसिक स्वास्थ्य को एक नाटक समझा जाता है. महिलाओं से यह उम्मीद की जाती है कि वे हमेशा सहनशीलता दिखाएं और खुश रहें. उत्तराखंड के अल्मोड़ा में रहने वाले कैलाश नाथ अपनी भाभी का उदाहरण देते हुए बताते हैं कि उन्हें जब पोस्टपार्टम डिप्रेशन हुआ तो भाई द्वारा मनोचिकित्सक से इलाज करवाने के बावजूद उनकी भाभी के माता पिता, उन्हें अपने साथ ले गए और दवाई छुड़वाकर वह लोग जादू टोने में लग गए. कैलाश ने कहा कि इससे उनकी भाभी और भी डिप्रेशन में जाती रहीं और आज उनके भाई- भाभी अलग रहते हैं. वह आसपास के गांवों में ऐसी महिलाओं को भी जानते हैं जिन्होंने इस बीमारी के कारण आत्महत्या तक कर ली.

विश्व के बाकी देशों में भी हमेशा से इस बीमारी को लेकर जागरूकता नही थी. अमेरिकी अभिनेत्री, मॉडल और लेखिका ब्रुक शील्ड्स ने साल 2005 में अपनी किताब 'Down Came the Rain: My Journey Through Postpartum Depression' में खुलकर बताया कि कैसे उन्हें अपनी पहली बेटी के जन्म के बाद पोस्टपार्टम डिप्रेशन का सामना करना पड़ा था. उनकी इस किताब ने पोस्टपार्टम डिप्रेशन को चर्चा में लाने में सहायता की थी और दुनिया भर की अनेक महिलाओं को इस बीमारी से जूझने के लिए प्रेरित किया.

पोस्टपार्टम डिप्रेशन से जूझने वाली मदर्स की आपबीती

मुंबई में रहने वाली प्रज्ञा मिश्रा, जो 'शतदल रेडियो' चलाती हैं और एक आईटी इंजीनियर भी हैं, ने बताया कि उनके पहले बच्चे का जन्म साल 2012 में और दूसरे का जन्म 2017 में हुआ. पोस्टपार्टम डिप्रेशन जैसी फीलिंग उन्हें दोनों बच्चों के जन्म के बाद हुई.

वह कहती हैं कि अपने पहले बच्चे को तो मैंने शुरुआती तीन महीनों तक बिल्कुल प्यार नहीं किया और मुझे बात बात पर गुस्सा भी आने लगा था. मुझे दो या तीन महीने स्तनपान का तरीका सीखने में लग गए, फिर एक बार सीख गई तब चीज़ें सामान्य हो गई. प्रज्ञा आगे बताती हैं कि साल 2013 से मुझे कार्यालय में अच्छा पदभार मिला और 2014 में ऑफिस के ट्रेनिंग प्रोग्राम के माध्यम से 'mind energy training' और 'श्री श्री योगा' का जीवन में प्रवेश हुआ, इससे मेरा गुस्सा आने वाला व्यवहार ठीक हुआ.

इस गम्भीर विषय पर बात करते हुए प्रज्ञा आगे कहती हैं कि दूसरी बार साल 2017 में मैं फिर से पोस्टपार्टम डिप्रेशन से काफी प्रभावित हुई, जिससे उबरने में कविताओं ने मेरी हेल्प की. योग, मेडिटेशन के साथ मैंने अपनी पहचान के लिए 'Open mics' में भी जाना शुरू किया, ब्लॉग बनाया, पॉडकास्ट किया और साल 2018 के अंत तक मैं मानसिक रूप से स्वस्थ थी.

प्रज्ञा पोस्टपार्टम डिप्रेशन से बाहर आने के लिए सुझाव देते हुए कहती हैं कि मैंने इन दोनों प्रेग्नेंसी के दौरान एक्सपर्ट सजेशन नहीं लिया बल्कि इंटरनेट पर उपलब्ध तरीकों का पालन किया. जैसे सुबह की धूप में टहलना, बच्चों को अधिक cuddle करना इत्यादि. 

पुणे में रहने वाली गरिमा खुरासिया पेशे से फिल्म मेकर और आईटी इंजीनियर हैं, उन्होंने बताया कि वह साल 2015 में माँ बनी थी तो उन्हें अपने व्यवहार में परिवर्तन लगने लगे. उन्हें हमेशा कुछ गलत होने का अहसास होता रहता था, जैसे अपने घर की बालकनी पर जाने में उन्हें लगता था कि कहीं यहां से बच्चा गिर न जाए और नहलाते हुए बच्चे के डूब जाने का डर लगता था. वह कहती हैं तब लोगों में इस बीमारी को लेकर आज की तरह थोड़ी बहुत जागरूकता भी नहीं थी, उनके पति भी यह सोचते थे कि मैं झगड़े करने के बहाने ढूंढती हूं. गरिमा ने आगे बताया कि उन्होंने गूगल की मदद से पोस्टपार्टम डिप्रेशन के बारे में जाना और मेरी मम्मी ने उस वक्त मेरे बदलते व्यवहार पर गौर करते मेरा साथ दिया. 

ऐसे वक्त में परिवार की समझदारी जरूरी, ये कहती हैं एक्सपर्ट

अमेरिका में रहने वाली मनोचिकित्सक वसुधा मिश्रा खुद बेबी ब्लूज से गुजरी हुई हैं. इस समस्या पर उन्होंने बताया कि पतियों को अपनी पत्नी के व्यवहार में होने वाले परिवर्तनों को समझना चाहिए और उनके साथ प्यार से पेश आकर, पोस्टपार्टम डिप्रेशन से बाहर निकालने में मदद करनी चाहिए. वह कहती हैं कि ऐसे मुश्किल वक्त में पति-पत्नी, दोनों के परिवारों को समझदारी दिखाते हुए मरीज (महिला) के साथ संवेदनशीलता से व्यवहार करना चाहिए.

(हिमांशु जोशी उत्तराखंड से हैं और प्रतिष्ठित उमेश डोभाल स्मृति पत्रकारिता पुरस्कार प्राप्त हैं. वह कई समाचार पत्र, पत्रिकाओं और वेब पोर्टलों के लिए लिखते रहे हैं.)

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.

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