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This Article is From Mar 14, 2017

एक मृत बेटे के पिता का समाज को संदेश

Dr Vijay Agrawal
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    मार्च 14, 2017 17:53 pm IST
    • Published On मार्च 14, 2017 17:53 pm IST
    • Last Updated On मार्च 14, 2017 17:53 pm IST
महेश भट्ट की पहली और अद्भुत फिल्म “सारां” की शुरुआत ही इस दृश्य से होती है कि एक पिता विदेश में पढ़ रहे अपने जवान बेटे का अस्थि-कलश लेने के लिए लाइन में लगा हुआ है, और बाद में उसके लिए तंत्र से जूझता है. फिलहाल हमारे सामने ठीक इसके विपरीत यथार्थ दृश्य मौजूद है. इस दृश्य में एक पिता अपने मृत बेटे को बेटा मानने से इनकार करके उसके शव को लेने से मना कर देता है. ऊपरी तौर पर तो देखने से यही लगता है कि फिल्म का पिता एक करुणामय पिता है, तथा सच का पिता कठोर. किन्तु सच्चाई को जानने के बाद यह धारणा एकदम से पलट जाती है. आइए, इसे जानते हैं.

ये पिता हैं - कानपुर के मोहम्मद सरताज तथा बेटा है - सैफुल्ला, जो उत्तरप्रदेश के ठाकुरगंज से एटीएस के साथ हुई एक मुठभेड़ में मारा गया. सरताज को जब उसके जवान बेटे का शव सौंपा गया, तो उसने यह कहकर शव को लेने से इनकार कर दिया कि “देशद्रोही मेरा बेटा नहीं हो सकता. उसे अल्लाह भी माफ नहीं करेगा. वतन से गद्दारी करने वाले का पिता कहलाते हुए मुझे जिल्लत महसूस होती है.“ बाद में गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने लोकसभा में यह कहकर कि, ‘देश को ऐसे पिता पर गर्व है‘, राष्ट्र की ओर से उस पिता के इस दर्दयुक्त दायित्व की सराहना की.

इस अत्यंत संवेदनशील करुण मानवीय घटना को हिन्दू-मुसलमान के चश्मे से न देखकर एक पिता और पुत्र के नजरिए से देखकर ही हम इसके प्रति न्याय कर पाएंगे. यहां एक जवान बेटे को खोने का ही दर्द नहीं है, बल्कि वह राष्ट्रद्रोह के जिस काम में लगा हुआ था, जीवन भर उसकी शर्मिंदगी को झेलते रहने का दंश भी है. ऐसी स्थिति में बेटे के शव को लेने से इनकार करने की स्थिति को बेटे और स्वयं की ओर से किया जाने वाला एक सार्वजनिक प्रायश्चित माना जा सकता है.

लेकिन इसमे भी बड़ी बात यह है कि इस तरह का प्रायश्चित करने की हिम्मत कितने लोग दिखा सकते हैं? यदि ऐसे लोगों की गिनती एक-दो ही है, तो सरताज को न केवल मुस्लिम समुदाय के द्वारा ही सम्मानित किया जाना चाहिए, बल्कि अन्य समुदायों के द्वारा भी. गौरतलब है कि कुछ दिनों पहले इस तरह की राष्ट्र विरोधी गतितिधियों में कुछ हिन्दू युवक भी पकड़े गए थे. जो समाज, धर्म और आस्थाओं के नाम पर फतवे जारी करता है, तोड़फोड़ मचाता है, प्रेमी-जोड़ों को समाज निकाला और मृत्यु दंड तक देने की घोषणा कर देता है, उसे चाहिए कि वह अपनी संगठित शक्ति और ऊर्जा का इस्तेमाल इस तरह के सकारात्मक एवं रचनात्मक कामों के लिए भी करे.

आज पूरी दुनिया में इस्लाम के नाम पर अफरा-तफरी मची हुई है. ऐसा लग रहा है, मानो कि विश्व के अन्य देशों तथा स्वयं मध्य-पूर्व एशिया में इस्लाम अपना संतुलन बनाने में लगा हुआ है. जबकि भारत में पहले से ही यह अपेक्षाकृत काफी संतुलित स्थिति में है. हालांकि मुस्लिम समाज के ही कुछ वर्गों द्वारा समय-समय पर उन्हें भड़काने की कोशिशें होती हैं, जिसके शिकार सैफुल्ला जैसे कच्चे दिमाग के लोग हो जाते हैं. लेकिन अधिकांश भारतीय मुस्लिम इस अतिवादिता के विरुद्ध पूरी मजबूती के साथ खड़े हैं. मोहम्मद सरताज जैसे लोग इसके जीवंत उदाहरण हैं. इस उदाहरण की मशाल को जलाए रखने और आगे ले जाने के लिए जरूरी है कि भारत का शिक्षित एवं सम्भ्रांत मुस्लिम वर्ग सामने आए और अपने समुदाय के पथ से भटके हुए लोगों को या तो सही रास्ता दिखाए या फिर अपनी सामाजिक शक्ति का उपयोग करते हुए उन्हें सैफुल्ला की तरह अलग-थलग कर दे.


डॉ. विजय अग्रवाल वरिष्ठ टिप्पणीकार हैं...

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