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This Article is From Jul 05, 2015

अक्षय, मैं तुम्हें कभी RIP नहीं कहूंगी : स्वाति अर्जुन

Swati Arjun
  • Blogs,
  • Updated:
    जुलाई 05, 2015 20:22 pm IST
    • Published On जुलाई 05, 2015 20:13 pm IST
    • Last Updated On जुलाई 05, 2015 20:22 pm IST
शनिवार रात करीब डेढ़ बजे नींद खुली तो आदतन हाथ मोबाइल की तरफ़ चला गया। फेसबुक देख रही थी तो पत्रकार दीपक शर्मा की लिखी पोस्ट पर नज़र गई, जहां उन्होंने अक्षय सिंह की मौत की ख़बर दी थी। उसके बाद मेरी आंखों के सामने से उसका चेहरा हटा नहीं और सुबह हो गई।

मुझे अभी हेडलाइंस टुडे छोड़े छह महीने भी नहीं हुए थे, इसलिए प्रोड्यूसर्स-बे के पास बैठे अक्षय और दीपक सर की तस्वीरें आंखों के सामने कौंध गईं। जितने दिन वहां रही तक़रीबन हर रोज़ मेरा अक्षय से सामना हुआ, हम दोनों ने एक दूसरे को आंखों से पहचाना भी, एक-दूसरे के प्रति रिगार्ड भी दर्शायी, लेकिन बात नहीं की।

अक्षय से मेरी पहचान शायद साल 2003 से है, जब मैंने सहारा ज्वाइन किया था, मैं यूपी चैनल में थी और वह एमपी में पहले से थे। रात की हमारी ड्रॉपिंग साथ होती थी और इसको लेकर हम दोनों के बीच अक्सर झगड़ा होता था कि कौन पहले घर जाएगा। पता नहीं चला कि हमारे बचपने वाली लड़ाई कब कड़वी हो गई, वह भी बिहारियों के लेकर ताने मारता और मैं हरियाणा को लेकर और धीरे-धीरे हमारी बातचीत बंद हो गई। इतना कि जब हम पांच साल बाद दोबारा टीवी टुडे में मिले तो भी हम में से दोनों ने आगे बढ़कर दोस्ती की हाथ नहीं बढ़ाई। लेकिन तब तक मैंने उसके काम और उसने मेरे काम के प्रति सम्मान करना सीख़ लिया था।

हेडलाइंस टुडे में ही काम करने के दौरान मैंने जाना कि अपने जिस नकचढ़े दोस्त के साथ मैं घंटों लड़ती रहती थी उसने खोजी पत्रकारिता में एक मक़ाम हासिल कर लिया है, काम के प्रति उसकी लगन ही थी जो दीपक शर्मा सर ने उसे अपनी टीम में महत्वपूर्ण ज़िम्मेदारी थी। घर और दफ़्तर की ज़िम्मेदारियों के कारण ही वह वेस्ट दिल्ली के उत्तम नगर से ईस्ट दिल्ली के मयूर विहार शिफ़्ट हो गया था, ताकि रात-बेरात उसे आने-जाने में दिक्कत न हो और वह कभी भी 10 मिनट के भीतर घर पहुंच जाए। घर में बीमार पिता के अलावा मां और छोटी बहन थीं, शायद एक मंगेतर भी...

दूर से ही सही अक्षय से मिलकर मैं बहुत खुश थी, उसकी पर्सनैलिटी में एक सुलझापन था, अपने काम से लेकर अपनी सेहत तक को वह कितना ध्यान देता था ये उसे देखकर ही समझ में आ जाता था। वह शारीरिक रूप से बेहद फिट इंसान था, ऐसा कम ही होता है कि छह फीट के गठीले शरीर वाले किसी नौजवान की मुस्कान 8 साल के बच्चे जितनी नर्म हो। अक्षय की पर्सनैलिटी की ये अद्भुत ख़ासियत थी। यह सब कुछ बग़ैर लगन और ईमानदारी के नहीं आती।

छह फीट की कद-काठी वाला मेरा ये दोस्त इतना फिट था कि उसे हार्ट अटैक हो ही नहीं सकता, ये मेरी गट-फीलिंग है। उसकी होठों पर फैली नर्म मुस्कान किसी को भी पिघला दे, डेस्क से फील्ड और इनवेस्टिगेटिव रिपोर्टिंग में उसका हासिल किया गया मक़ाम किसी को भी इंप्रेस कर दे, अपनी प्रोफेशन के प्रति उसकी डेडिकेशन किसी का भी सिर गर्व से ऊंचा कर दे।

आज जब अक्षय चला गया है तो मुझे सबसे ज्य़ादा दुख इस बात की है कि हम जैसे लोग आख़िर किस ईगो में जीते हैं, आख़िर क्यों मैंने उससे बात नहीं की... क्यों मैं थोड़ा नर्म नहीं हुई। सच तो यह है कि कल रात से लेकर अब तक, एक पल के लिए भी अक्षय का चेहरा मेरी आंखों से ओझल नहीं हुआ, कल से आज तक मैंने जितना उसको याद किया है, उतना तो हमारे बीच इन 12 सालों में कभी बात भी नहीं हुई।

...उसका जाना मुझे अंदर तक मायूस कर गया है।

अक्षय ने मुझे बिना बोले ये सीख़ दी है कि इस छोटी सी ज़िंदगी में हमने अपने झूठे ईगो को इग्नोर कर सकें तो ये रिश्तों के लिये सबसे बड़ी नेमत होगी। अक्षय तुम्हें RIP नहीं कहूंगी, क्योंकि मुझे पता है कि अपनी मां, पिता, बहन और मंगेतर को इस तरह अकेला छोड़कर तुम्हें कभी शांति नहीं मिलेगी।

अक्षय, जीवन की ये महत्वपूर्ण सीख़ देने के लिए कि दुनिया की हर बड़ी लड़ाई से ज्य़ादा महत्वपूर्ण हमारे रिश्ते हैं, तुम्हें इस तरह जाने की ज़रूरत नहीं थी, तुम्हारा मुझे बिहारन कह-कर पुकारना, और यह कहना कि क्यों ज्य़ादा भाव खा रही है ही काफ़ी था।

तुम्हारी नाराज़ दोस्त
स्वाति

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