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This Article is From May 28, 2017

प्रणब मुखर्जी के व्याख्यान पर चर्चा न होने के मायने

Sudhir Jain
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    मई 28, 2017 19:46 pm IST
    • Published On मई 28, 2017 19:46 pm IST
    • Last Updated On मई 28, 2017 19:46 pm IST
हैरानी की बात है कि राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी का राममनाथ गोयनका व्याख्यान चर्चा में नहीं आ पाया. हालांकि इस व्याख्यान में उन्होंने कई खास बातें कही हैं. प्रबुद्ध वर्ग के लिए यह और भी खास इसलिए था क्योंकि उनकी कही मुख्य बात अचानक बदलती पत्रकारिता और मौजूदा सामाजिक राजनीतिक परिस्थितियों पर थी. इस व्याख्यान का आयोजक देश का एक प्रतिष्ठित मीडिया प्रतिष्ठान था सो उनके व्याख्यान की जो खबर बनी उसका शीर्षक था सत्ता में बैठे लोगों से सवाल पूछने की जरूरत. ये सवाल आखिर पूछता कौन है? जाहिर है कि प्रणब मुखर्जी का संबोधन मीडिया की तरफ था. और उन्होंने असहमति की आवाज को दबाने की स्थिति पर बेबाकी से कहा. लेकिन इस पर अपेक्षित टिप्पणियां दिखाई नहीं दीं. हो सकता है कि जागरूक लोग सोच विचार कर रहे हों. अगर न कर रहे हों तो उन्हें करना जरूर चाहिए.

डूब रही हैं असहमति की आवाजें
उनके व्याख्यान में सबसे ज्यादा ध्यान दिलाने वाली बात यही लगती है. उन्होंने कहा है कि ऊंची आवाज में बोलने वालों के शोर में असहमति की आवाजें डूब रही हैं. इस बात के कहने के पहले उन्होंने यह भी कहा कि सत्ता में बैठे लोगों से सवाल पूछना लोकतांत्रिक समाज का सार तत्व है. सवाल पूछना अच्छा है. सवाल पूछना स्वास्थ्यप्रद है. यानी हमारे लोकतंत्र की सेहत का यह मूल तत्व है. प्रणब मुखार्जी ने अपने व्याख्यान में सत्ता में बैठे लोगों से सवाल पूछने के महत्त्व पर इतना ज़ोर दिया कि जागरूक लोगों को इस बात को यूं ही जाने नहीं देना चाहिए था. खैर समय अभी भी नहीं गुजरा है क्योंकि इस बात को कहे अभी 48 घंटे भी नहीं गुजरे हैं.

असहमत विचारों को खदेड़ देने पर आमादा
मुखर्जी ने हमारे सोच विचार के लिए अपने व्याख्यान में दूसरी बड़ी बात यह कही है कि आधुनिक तकनीक ने सुविधा संपन्न लोगों के लिए एकतरफा संवाद के दरवाजे खोल दिए हैं. इस तरह वे अपने से कम सुविधाओं वाले लोगों से एक तरफा संवाद कर पाते हैं. उन्होंने कहा है कि सोशल और ब्रॉडकास्ट मीडिया में ऐसी आक्रामक भंगिमाएं दिख रही हैं कि वे अपने से असहमत विचारों को खदेड़ देने पर आमादा हैं. यहां पर उन्होंने सुझाव दिया कि किसी खोजबीन के बिना सूचना के प्रवाह की पृष्ठमूमि में मीडिया को अपनी अहम भूमिका निभानी है.

आखिर मुखर्जी देश के वर्तमान राष्ट्रपति भी हैं
वैसे तो वह व्याख्यान गैर सरकारी मंच पर आयोजित था लेकिन यह भी एक तथ्य है कि वे इस समय देश के राष्ट्रपति भी हैं. लिहाजा उनकी बात की गंभीरता ज्यादा ही बढ़ जाती है. और हो सकता है इसीलिए उनकी कही बात पर वाद विवाद की स्थिति न बनी हो. होने को हो यह भी सकता है कि बात इतनी ज्यादा गंभीर हो कि विवाद करके उसे आगे न बढ़ाए जाने की कोशिश हुई हो. लेकिन यह बात जरूर हैरान करती है कि उनकी कही बात की समुचित व्याख्या या बात का आगा पीछा देखने की कवायद तक होती नहीं दिखी. बहरहाल अपने सामाजिक राजनीतिक अनुभव और अपने बहुत लंबे शासकीय अनुभव के कारण लोकतंत्र की एक महत्तवपूर्ण स्थिति पर प्रणब मुखर्जी के पर्यवेक्षण पर गौर करने की दरकार है. दोनों ही तरह से. चाहे उनसे सहमत होते हुए हो या उनसे असहमत होते हुए. हो सकता है कि हाल फिलहाल उनकी बातों से सहमति का हौसला दिखाने की स्थितियां न हों लेकिन हैरानी की बात यह है कि असहमति की कोशिश होती भी नहीं दिखी. इस स्थिति को भी संवाद का अस्वीकार क्यों नही माना जाना चाहिए?

सुधीर जैन वरिष्ठ पत्रकार और अपराधशास्‍त्री हैं...

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