अभिषेक शर्मा : नारायण राणे की हार के मायने?

नारायण राणे की फाइल तस्वीर

मुंबई:

मुंबई की बांद्रा ईस्ट सीट पर हुए उपचुनाव के नतीजे चौंकाने वाले बिल्कुल नहीं थे। शिवसेना अपनी सीट बचाने में कामयाब रही। कांग्रेस के नारायण राणे हार गए। इन चुनावों में उनका खड़ा होना ही सबसे बड़ी ख़बर थी।

हार के बाद वो अब ऐसे नेता बन गए हैं, जिनके परिवार ने एक के बाद एक लगातार तीन हार देखी है। पहले नारायण राणे के बेटे लोकसभा चुनाव हारे, बाद में खुद राणे कोंकण में अपनी विधानसभा सीट न बचा पाए और अब एक बार फिर उन्हें मुंबई से हार का मुंह देखना पड़ा।

राणे की हार ने तय कर दिया है कि राज्य में कांग्रेस के अंदर और बाहर सब कुछ उतनी जल्दी ठीक नहीं होने वाला, जैसी उम्मीद की जा रही है। हार के बाद पहली प्रतिक्रिया राणे के बेटे की आई, जिन्होंने ठीकरा खुद की पार्टी पर ही फोड़ा।

राणे के चुनाव में खड़े होने के बाद अशोक चव्हाण ने खुशी जताई। उन्हें कांग्रेस के एक क्रांतिकारी की तरह पेश किया गया, जो हार के बावजूद लोहा लेने को तैयार है। लेकिन अंदर खाने चव्हाण भी जानते थे कि जब तक एमआईएम जैसी पार्टी मैदान में है, कांग्रेस की जीत मुश्किल है। अशोक चव्हाण के राज्य में पार्टी अध्यक्ष बनने के बाद सबसे ज्यादा नाराज राणे हुए।

राज्य में विपक्ष के नेता राधाकृष्ण विखे पाटिल भी यही मना रहे थे कि राणे चुनाव जीत कर ना आ जाएं। अगर आते तो पहली गाज़ उन पर गिरती। राणे कोशिश करते कि विपक्ष के नेता का पद उन्हें मिले। शहर में नए- नए अध्यक्ष संजय निरुपम बने हैं। वो कहते तो रहे कि राणे को जीतना चाहिए, लेकिन मुंबई में किसी पूर्व मुख्यमंत्री के कद का आक्रामक मराठा नेता का मतलब होता निरुपम के लिए हर दम चुनौती। तो कुल मिलाकर, विपक्ष से ज्यादा कांग्रेस के कई धड़े राणे को ताकतवर नहीं देखना चाहते थे। यानी कांग्रेस जैसी 2014 में थी वैसी ही अब है।

बात बाहरी समीकरणों की। औवेसी बंधुओं की पार्टी एमआईएम, कांग्रेस के लिए वही है, जो कभी शिवसेना के लिए एमएनएस हुआ करती थी। यानी वोट काटने वाली पार्टी। राणे की हार बता रही है कि अब कांग्रेस को हर स्थानीय सीट पर किसी एमआईएम प्रत्याशी का मुकाबला करना है। पिछले विधानसभा चुनावों में बांद्रा ईस्ट से एमआईएम को करीब 24 हज़ार वोट मिले थे। अब की बार वो घटकर 15 हज़ार हुए हैं। लेकिन ये बताता है कि ताकत बरकरार है, अगर राणे जैसे कद्दावर मैदान में ना होते तो एमआईएम का आंकड़ा थोड़ा ज्यादा रहता।

तो क्या कांग्रेस का महाराष्ट्र में वही हाल होने जा रहा है, जो उत्तरप्रदेश में हुआ? यानी चौथे नंबर की पार्टी? पार्टी को कई स्थानीय चुनावों के लिए फिलहाल अच्छे उम्मीदवार मिलने बंद हो गए हैं। पुराने कांग्रेसियों के लिए निष्ठा बदलने के लिए एनसीपी जैसे विकल्प मौजूद हैं। बीजेपी को कांग्रेसी चेहरों को शामिल करने से अब परहेज नहीं है और वोट काटने वाली पार्टियां कांग्रेस के खिलाफ मैदान में हैं। इन सबसे भी बड़ी बात ये कि राज्य के नेताओं को नहीं मालूम कि दिल्ली में किसके दरबार में जाना है।


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