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This Article is From Oct 25, 2020

Mirzapur2: कालीन भैया का कोई जोड़ नहीं... गुड्डू भैया का कोई तोड़ नहीं...मुन्ना भैया में कोई खोट नहीं, लेकिन...

Manish Sharma
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    दिसंबर 28, 2020 16:31 pm IST
    • Published On अक्टूबर 25, 2020 14:46 pm IST
    • Last Updated On दिसंबर 28, 2020 16:31 pm IST

ओरिजनल सीरीज (Original Web/real series) की पहली और अनिवार्य शर्त यह है वह अपनी "आत्मा" अपने "मिजाज व चरित्र" (पटकथा, फिल्मांकन, डायलॉग, अभिनय, वगैरह-वगैरह) के लिहाज से "वास्तविकता" सामने लेकर आए!! पता नहीं मिर्जापुर (#Mirzapur Part-1) भाग-1 कितने प्रतिशत वास्तविक थी और कितनी काल्पनिक, लेकिन पहला भाग वास्तविकता के दर्शन कराने में कामयाब रहा था. पहले भाग में लेखक पूरी तरह यह महसूस कराने में कामयाब रहे कि यह असल ही है!! कई सीन (फिल्मांकन) गैंग्स ऑफ वासेपुर से "प्रेरित" थे, लेकिन यह इतना बड़ा मुद्दा नहीं था!! वास्तव में जो स्तर सेक्रेड गेम्स ने स्थापित किया, उसे मिर्जापुर भाग-1 और आगे लेकर गया था. लोगों को भरपूर मजा आया, भारी सफलता मिली और नए मानक स्थापित हुए. और जब ऐसा होता है, तो ऐसे किसी भी सीक्वल (अगले बनने वाले हिस्से) के सामने एक ही बड़ी चुनौती होती है. इसे अगले स्तर पर लेकर जाना ! फिर चाहे इसे यशराज बैनर बनाए या कोई भी और शख्स. अगर पहले शतक जड़ा है, तो फिर से दोहरे शतक में तब्दील करना ही चुनौती होती है!!

लेकिन पहले से तुलना करने पर मिर्जापुर भाग-2 (Mirzapurseaosn2) इस पैमाने पर विफल रहा! इस बार शतक के आस-पास भी नहीं पहुंचे. कुछ दिन पहले बेहतरीन प्रोमो ने बहुत ही उम्मीदें जगायी जरूर थीं, लेकिन अच्छा प्रोमो और अच्छी फिल्म दो जुदा बाते हैं!!  बात इसके मिजाज और चरित्र की हो रही थी, तो अभिनय, निर्देशन, बैकग्राउंड म्यूजिक आदि इन पर बात करना बेकार है क्योंकि पहले भाग में  इससे जुड़े लोगों ने खुद को न केवल बेहतरीन अंदाज में साबित किया, बल्कि एक स्तर स्थापित करते हुए एक "प्रोडक्ट" में तब्दील कर दिया था. यहां से ओरिजिनालिटी (वास्तविकता) को गढ़ने का काम पूरी तरह (लगभग 80 %) से लेखकों के ऊपर था. और जब स्क्रिप्ट के लिहाज से दृश्य ही नाटकीय हों, तो तो पंकज त्रिपाठी ही नहीं, बल्कि बलराज साहनी/संजीव कुमार/अमरीश पुरी जैसे अभिनेता या किसी बड़े निर्देशक के लिए वास्तविकता पैदा करना असंभव सरीखा होगा!!

मिर्जापुर भाग-2 शुरुआत से ही नाटकीय स्क्रिप्ट के चलते यह ओरिजिनालिटी से दूर होती चली गई! बीच-बीच में इसने ट्रैक पर आने की कोशिश जरूर की, लेकिन भरपायी होते नहीं दिखी!! मसलन मुख्यमंत्री के ऑफिस में ही उन्हीं के सामने कमरे में मर्डर कर देना!! क्या भारत में ऐसा होता है, या पहले कभी हुआ है?? साफ लगा कि दृश्य के संदर्भ में लेखक एक 'फिक्स और "फिल्मी" माइंडसेट' के साथ आगे बढ़े और रचनात्मकता या अगले स्तर तक ले जाने/मानक स्थापित के लिहाज से वैसा काम नहीं हुआ हुआ, जैसा होना चाहिए था! दद्दा त्यागी और उनके बेटों को इस पार्ट का हिस्सा बनाने का क्या मकसद था?? क्या वे सिर्फ गुड्डू पंडित के कमाई के विकल्प को दर्शाने के अलावा और कोई उद्देश्य साबित करते दिखाई पड़े?? ऐसा लगा कि ये कहानी को खींचने का ही उद्देश्य पूरा करता है,  बाकी कुछ नहीं!!

लेखक/निर्देशक की मनोदशा पहले से साफ तय दिखाई पड़ी कि कहानी को कहां किस गली से निकालना है और कहां जाकर छोड़ना है, लेकिन इसमें रचनात्कमता/वास्तविकता नदारद थी!! और यही वजह रही कि मिर्जापुर भाग-2 अगले स्तर पर नहीं जा सका. दूसरा भाग खत्म होते-होते निर्माताओं ने कहानी को भाग-3 के मुहाने पर ला खड़ा किया है!! यहां से इस बड़ी गलती में सुधार होगा?? लेखकों को बड़ी जिम्मेदारी अपने कंधों पर लेनी होगी! अगर नहीं, तो अगर इस बार सत्तर रन बने, तो अगली बार अर्द्धशतक जड़ना भी मुश्किल होगा!!!

....लेकिन

"जो आया है, वो जाएगा भी, बस मर्जी हमारी होगी"

वास्तव में कालीन भैया (पंकज त्रिपाठी) ने वहीं से शुरू किया, जहां छोड़ा था- 'मोर्या जी, हम यहां के बाहुबली है...' कुछ कैरेक्टर (चरित्र) होते हैं, जो खास लोगों के लिए ही होते हैं!! ऐसे कैरेक्टर, जिनसे अमिताभ जैसे महानायक भी उन चरित्रों से न्याय नहीं कर सकते या अपनी जवानी के दिनों में भी नहीं कर सकते थे!! उदाहरण के तौर पर वास्तव का संजय दत्त का कैरेक्टर! और मिर्जापुर के तीन कैरेक्टर भी ऐसे ही हैं, जिनसे बेहतर शायद ही कोई दूसरा कलाकार बेहतर कर पाता.

1. कालीन भैया

2. गुड्डू भैया

3. मुन्ना भैया

यूं तो हर शख्स ने बेहतरीन काम किया है, लेकिन ये तीनों कैरेक्टर, खासकर कालीन भैया, जिन्होंने इस ओरिजिनल सीरीज पर कब्जा करते हुए वो सब सोख लिया, जो उन्हें करियर में स्थापित करने और आगे बढ़ाने में कहीं ज्यादा मदद करेगा. अगर यह कहा जाए कि साल 2011 गैंग्स ऑफ वासेपुर से नजरों में आने वाले पकंज त्रिपाठी "मसान" और "न्यूटन" से होते मिर्जापुर से अंतरराष्ट्रीय स्तर के अभिनेता में तब्दील दिखते हैं, तो एक बार को गलत नहीं होगा!! कालीन भैया ने पंकज त्रिपाठी का कद बहुत ऊंचा कर दिया है. हालांकि, उन्हें अभी खुद को विविधता की कसौटी पर खरा उतरना होगा.

अगर उन्हें अपने करियर में "कालीन भैया' के लाइफटाइम टैग से बचना है, तो नया चैलेंज लेना होगा. लेकिन अगर यह कहा जाए कि मिर्जापुर (दोनों भाग) बहुत हद तक अर्थ कालीन भैया के इर्द-गिर्द हैं, तो गलत नहीं होगा. पंकज त्रिपाठी ने पहले हिस्से में ही इस स्तर के "दर्शन" करा दिए थे कि दूसरे में उन्हें साबित करने के लिए कुछ बचा नहीं था. बस दर्शकों की रुचि इसी में थी ओरिजिनल सीरीज रोमांच/नएपन के हिसाब से कैसे आगे बढ़ती है और कालीन भैया कैसे खेलते हैं!!  

बहुत हद तक यही बात गुड्डू भैया (अली फजल) पर लागू होती है. उनसे अच्छा गुड्डू पंडित नहीं ही हो सकता!! कैरेक्टर/भाषा पर छोटी-छोटी बातों पर बहुत ही बारीकी काम किया गया. मसलन बनारस में भोकाल होता है, यह मिर्जापुर पहुंचते-पहुंचते भौकाल हो जाता है. अली फजल पूरी तरह से गुड्डू पंडित को घोल कर पी गए!!  34 के अली फजल के लिए अभिनय के लिहाज से भाग दो में कुछ साबित नहीं करना था. बस यही देखना था कि वह बदला कैसे लेते हैं!! देखने वाली बात यह भी होगी तमाम विवादों के इस दौर में बॉलीवुड अली फजल के साथ कैसे इंसाफ करता है!

और मुन्ना भइया के क्या कहने !! सबसे ज्यादा चौंकाया है देव्यंदु शर्मा ने. क्रिकेट के लिहाज से कहें, तो एक सरप्राइजिंग बैट्समेन. गजब का असर !! कुछ साल पहले प्यार का पंचनामा देखने वाले बार-बार पूछेंगे कि क्या यह वही शख्स है!! इनके बारे में बात करेंगे और हैरान रह जाएंगे ! यह तय करना मुश्किल है कि गुड्डू भइया बेहतर हैं या मुन्ना भइया!! लेकिन देव्यंदू शर्मा ने अपनी क्षमता दिखायी है और उन्हें यहां से खुद को रिपीट करने से बचना होगा.

हालिया सालों में बॉलीवुड में कास्टिंग का स्तर कई गुना ऊपर चला गया है. खासतौर पर बेव/ओरिजनल सीरीज पर कास्टिंग टीम कई स्तर पर काम करती हैं/ मुंबई में कास्टिंग एजेंसियों की बाढ़ आ गयी है. निर्देशक पर काम का बोझ कम हो गया है.  अब ये डायरेक्टर स्टार नहीं, चरित्र ढूंढते हैं और उन पर बारीकी से काम करते हैं, गढ़ते हैं और एक्टिंग वर्कशाप के जरिए इसे अगले स्तर पर ले जाने के साथ इसे फिनिशिंग टच देते हैं! बड़े से बड़े अभिनेता को स्क्रीन/ऑडियो टेस्ट के लिए कई बार बुलावा भेज दिया जाता है.  वास्तव में यह बहुत ही शानदार कास्टिंग का ही असर था कि मिर्जापुर (पहला भाग) एक अलग ही मुकाम पर पहुंचा था और इसने दूसरे भाग की नींव रख दी थी. लेखक पहले हिस्से में वास्तविकता पैदा करने में कामयाब रहे, लेकिन दूसरे भाग में वे हत्थे से उखड़ गए !!

मनीष शर्मा Khabar.Ndtv.com में बतौर डिप्टी न्यूज एडिटर कार्यरत हैं

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) :इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं. इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति NDTV उत्तरदायी नहीं है. इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं. इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार NDTV के नहीं हैं, तथा NDTV उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है. 

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