लोकसभा चुनाव सिर पर है और हर दल अपने-अपने हिसाब से राजनीतिक दांव खेलने में व्यस्त हैं. जहां एक ओर राष्ट्रीय दल भाजपा और कांग्रेस के बीच सहयोगियों को जोड़ने की होड़ लगी है. वहीं, क्षेत्रीय दल भी अपने-अपने हिसाब से यानी कांग्रेस या BJP के साथ अब तालमेल को अंतिम रूप दे रहे हैं. कांग्रेस अगर सहयोगी या क्षेत्रीय दलों से समझौता कर रही है तो उसकी मजबूरी समझ में आती है लेकिन अचानक बीजेपी जिस तरह से महत्वपूर्ण राज्यों में अपने पुराने स्टैंड से 360 डिग्री घुमकर समझौते कर रही है, उससे तो यही लगता है कि भाजपा को अब सहयोगियों का महत्व समझ में आ रहा है. इतना ही नहीं, बीजेपी को शायद उनके बिना चुनाव में जाना आत्मघाती लग रहा है. इसलिए भाजपा एक बार फिर 'सहयोगी शरणम् गच्छामि' के मुद्रा में है.
शायद यही कारण है कि पिछले एक साल के दौरान विपक्षी पार्टियों से भी ज्यादा हमला करने वाले शिवसेना सुप्रीमो उद्धव ठाकरे ने जहां मातोश्री का दरवाज़ा एक बार फिर बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह के लिए खोला. वहीं, अमित शाह ने भी 2014 के अपने राजनीतिक अहंकार, अति आत्मविश्वास को किनारे रखते हुए लोकसभा में मात्र दो अधिक सीटों पर चुनाव लड़ने और विधानसभा में बराबर बराबर सीटों पर लड़ने की घोषणा कर दी.
यह फैसला दोनों दलों के लिए कितना राजनीतिक रूप से लाभदायक होता है ये तो लोकसभा चुनाव के परिणाम बताएंगे. लेकिन बराबर- बराबर का फ़ॉर्मूला जो पिछले साल बिहार से शुरू हुआ वो महाराष्ट्र में भी जारी है, एक बार फिर साबित करता है कि भाजपा को इस बात का अहसास है कि एक बार फिर सत्ता में वापस आने का सपना बिना सहयोगियों के साकार नहीं हो सकता. इसलिए अभी से इस बात के भी कयास लगाए जाने लगे हैं कि विधानसभा चुनाव में अगर परिणाम अनुकूल आए तो केंद्र की सत्ता के लिए राज्य में सत्ता का ताज उद्धव ठाकरे के पुत्र आदित्य ठाकरे को दिया जा सकता है. हालांकि ये सारी अटकलें चुनाव के बाद आने वाले परिणामों पर ही निर्भर करते हैं. फिलहाल तो सहयोगी इस बात से ख़ुश हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह को अपने सहयोगियों का साथ पसंद है. इसलिए उनके साथ मेल मिलाप और तोल मोल का दौर भी जारी है.
हालांकि, जानकार कहते हैं कि 2014 का चुनाव जो एक प्रकार से राष्ट्रपति चुनाव की तरह था, उस चुनाव में भी सहयोगियों की भूमिका अहम रही थी. मगर जब बीजेपी ने बहुमत का आंकड़ा पार कर लिया तब उसने सहयोगियों के सम्मान की परम्परा को दरकिनार कर दिया और केंद्र हो या राज्य हर जगह सत्ता में भागीदारी के सवाल पर बीजेपी हावी रही. क्योंकि उसका मानना था कि जो भी सीटों की संख्या आई है वो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कुशल नेतृत्व और अमित शाह के राजनीतिक प्रबंधन का परिणाम है.
लेकिन पिछले साल 3 राज्यों में सत्ता खोने के बाद शायद बजेपी को इस बात का आभास हो गया है कि जनता पर मोदी का जादू और अमित शाह का प्रबंधन अब फीका पड़ता जा रहा है. साथ ही साथ कांग्रेस छोटे से लेकर बड़े राज्यों तक में गठबंधन पर जोर दे रही है. क्षेत्रीय दलों ने जैसा कि उत्तर प्रदेश में सपा और बसपा ने आपसी तालमेल के अलावा सीटों का समझौता किया, उसके बाद BJP के पास अपने पुराने सहयोगियों के पास जाने और उनकी बात मानने के अलावा दूसरा और कोई विकल्प नहीं रह गया था. यही कारण है कि जहां बिहार में दो सीटें जितने वाली नीतीश कुमार की पार्टी जनता दल यूनाइटेड के साथ बराबरी के समझौते का पहले से ऐलान करने का फैसले बीजेपी ने किया. बीजेपी ने भी बराबर-बराबर सीटों पर लड़ने के फैसले पर मुहर लगाने में देरी नहीं की और इसी फॉर्मूले को आधार बनाकर महाराष्ट्र में भी बीजेपी ने यही ऐलान किया, जहां बीजेपी दो सीटें ज्यादा पर शिवसेना के साथ चुनाव लड़ेगी. हालांकि, महाराष्ट्र में बीजेपी और शिवसेना आगामी विधानसभा चुनाव में बराबर सीटों पर चुनाल लड़ेगी. इसके बाद अब तय माना जा रहा है कि उत्तर प्रदेश में भी जहां सपा-बसपा के तालमेल के बाद वोटों के खेल में भाजपा अब डिफेंसिव है, वहां सहयोगियों की बात मानने के अलावा उनके पास कोई दूसरा विकल्प नहीं है. इसके अलावा भी उत्तर, दक्षिण के राज्य या उत्तर-पूर्व के राज्यों में भारतीय जनता पार्टी की अब हर संभव कोशिश है कि या तो पुराने सहयोगियों को ख़ुश रखा जाए या नए सहयोगियों को जोड़कर चुनाव में चला जाए.
उत्तर-पूर्व में जहां भारतीय जनता पार्टी ने पहले लोकसभा चुनाव में काफी अच्छा प्रदर्शन करने की भविष्यवाणी की थी, मगर वहां सिटीजनशिप बिल के बाद आम लोगों के साथ-साथ सहयोगियों में भी नाराज़गी हुई. उसके बाद भाजपा ने राज्यसभा में बिल को पेश करने की हिम्मत भी नहीं दिखाई और अब बीजेपी के नेता उम्मीद कर रहे हैं कि कम से कम लोकसभा चुनाव तक तमाम सहयोगी उनके नाव से कम से कम छलांग तो नहीं लगाएंगे. भाजपा के नेता भी मानते हैं कि 2014 की तुलना में 2019 का चुनाव उनके लिए काफ़ी कठिन है. यहां पिछले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस का जाना तय माना जा रहा था और कांग्रेस के सहयोगी या तो उससे अपनी दूरी बना रहे थे या अनमने ढंग से उनके साथ समझौता कर चुनाव लड़ रहे थे जिसके कारण पूरा चुनाव एक तरह का अमेरिका के राष्ट्रपति के चुनाव की तरह हो गया था. 2014 में जहां एक ओर नरेंद्र मोदी थे और दूसरी ओर उनको चुनौती देने वाला कोई नहीं था. इसलिए उस चुनाव को तब लैम्प पोस्ट इलेक्शन माना गया. जहां लोगों ने भाजपा के उम्मीदवार के नाम जानने की भी ज़रूरत नहीं समझी और सीधे नरेंद्र मोदी के नाम पर कमल के बटन पर अपनी उंगली दबा दी.
लेकिन इस बार स्थिति भिन्न है. क्योंकि कांग्रेस के साथ या तो कई नए सहयोगी या पुराने सहयोगी एक बार फिर तालमेल कर चुनावी मैदान में हैं. बिहार जैसे राज्य में जहां कांग्रेस की भूमिका नगण्य है, वहां राजद के साथ उपेंद्र कुशवाहा, मुकेश सहनी और जीतन राम मांझी से समझौता कर कांग्रेस ने बीजेपी को एक कड़ी चुनौती पेश की है. ऐसे में भाजपा के पास सहयोगियों का हाथ पकड़ने के अलावा शायद ही कोई विकल्प बचा हो. क्योंकि 2014 के चुनावी आंधी में प्रधानमंत्री पद के तब के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी समेत बीजेपी नेताओं ने लोकसभा क्षेत्रों में वादों और ऐलानों की बौछार कर दी थी. मगर वादों पर अमल करने की बात करें तो 30 प्रतिशत से अधिक काम तक भी शुरू नहीं हो पाया है. ऐसे में सहयोगियों का साथ ही बीजेपी के लिए काफी अहम है और अब बीजेपी को यह बात बार-बार याद दिलाता है कि सहयोगियों के बिना चुनावी नैया पार लगाना इतना आसान नहीं होगा.
मनीष कुमार NDTV इंडिया में एक्ज़ीक्यूटिव एडिटर हैं...
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) :इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं. इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति NDTV उत्तरदायी नहीं है. इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं. इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार NDTV के नहीं हैं, तथा NDTV उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है .