कृष्णा सोबती (Krishna Sobti) के जादुई व्यक्तिव से मेरा वास्ता कॉलेज के दिनों में पड़ा. कॉलेज के मस्ती के दिन थे और हंसराज कॉलेज में मैं बीए (ऑनर्स) का छात्र था. अकसर छात्रों से मिलवाने के लिए हिंदी के साहित्यकारों को बुलाया जाता था और एक दिन ऐसे ही जादुई व्यक्तित्व वाली कृष्णा सोबती को देखा. छात्रों से कृष्णा सोबती (Krishna Sobti) को रू-ब-रू कराया गया. कृष्णा सोबती की वेशभूषा, हंसता हुआ चेहरा और वह बिंदासपन वाकई कमाल था. जब वे बोलने लगीं तो मन किया उन्हें घंटों सुनते ही जाओ. कृष्णा सोबती की कहानी 'सिक्का बदल गया' स्कूल के दिनो में पढ़ी थी और उसके कैरेक्टर शाहनी और शेरा जेहन में रचे-बसे थे. विभाजन की पीड़ा कहानी की जान थी. अब कृष्णा सोबती (Krishna Sobti) को पास से देखा और जाना तो उनके साहित्य को पढ़ने का मन किया. फिर 'मित्रों मरजानी' पढ़ी. हिंदी साहित्य में इस तरह का दमदार किरदार न तो रचा गया था और न ही अब तक रचा गया. मित्रो के किरदार को रचने के लिए जो साहस और बेबाकपन चाहिए था, वह कृष्णा सोबती में कूट-कूटकर भरा हुआ था. इस तरह कृष्णा सोबती की किताबों से दोस्ती का सिलसिला बढ़ता ही चला गया. 'हम हशमत', 'यारों के यार तिन पहाड़', 'जिंदगीनामा', 'सूरजमुखी अंधेरे के', 'बादलों के घेरे', 'ऐ लड़की' और 'डार से बिछुड़ी' उनकी अधिकतर किताबें पढ़ डालीं और इस तरह कृष्णा सोबती की एक छवि उनकी किताबों के जरिये बनी.
हिंदी साहित्य (Hindi Literature) में कृष्णा सोबती (Krishna Sobti) एक अलग ही मुकाम रखती थीं और उनका व्यक्तित्व उनकी किताबों जितना ही अनोखा था. ये बात इंडिया टुडे के दिनों की है, और मैं 'फिफ्टी शेड्स ऑफ ग्रे' को लेकर महिला कामसूत्र विषय पर स्टोरी कर रहा था. ऐसे में कृष्णा सोबती से इस तरह की किताबों को लेकर बात करने का मन हुआ और सोचा उनके कोट भी स्टोरी में इस्तेमाल कर लूंगा. मैंने कृष्णा सोबती को फोन लगाया और जैसे ही फोन पर वे आईं तो कॉलेज के दिनों की सारी यादें ताजा हो गईं. उनकी आवाज में वही जिंदादिली कायम थी. मैं डरते-डरते उनसे इस बोल्ड विषय पर बात करना चाह रहा था, लेकिन जैसे ही मैंने उन्हें अपना टॉपिक बताया तो उनकी आवाज में बच्चों जैसी शरारत आ गई. मैंने पूछा कि गंदी कही जाने वाली किताबें आपने अपने बचपन के दिनों में पढ़ी है तो वे बोली हर कोई पढ़ता है. लेकिन हमने कुछ अलग तरह की किताबें पढ़ी. उन्होंने बताया कि 'लेडी चैटर्लीज लवर (Lady Chatterley's Lover)' जैसी किताबें उन्होंने उस दौर में पढ़ी थीं. इस तरह लंबी बातचीत हुई, कृष्णा सोबती ने माना कि हमारे यहां खुलेपन की कमी है और उन्होंने भारतीय माइंडसेट को कॉम्प्लेक्स बताते हुए कहा कि यह जो करना चाहता है वह देखना नहीं चाहता.
कृष्णा सोबती (Krishna Sobti) से इंटरव्यू के लिए मिलने का मौका तो नहीं मिला. लेकिन फोन पर कई बार बात हुई. कृष्णा सोबती से ऐसी ही एक बातचीत उस समय हुई जब 2015 में पुरस्कार वापसी का दौर चला था. सभी भाषाओं के साहित्यकार असहिष्णुता के चलते विरोध की वजह से अपने पुरस्कार वापस कर रहे थे. इस पर भी कृष्णा सोबती की अलग ही और बहुत ही बेबाक राय थी. कृष्णा सोबती ने पुरस्कार वापसी का समर्थन किया और कहा कि लेखक सड़कों पर नहीं उतर सकता, उसका विरोध करने का यही तरीका हो सकता है कि जो सम्मान उसे मिला है, उसे लौटा दे. इस तरह कृष्णा सोबती का बेलौसपन यहां भी दिखा. लेकिन अपने 94वें जन्मदिन से 24 दिन पहले कृष्णाजी हमें छोड़कर चली गईं. 1980 में कृष्णा सोबती को उनकी किताब 'जिंदगीनामा' के लिए साहित्य अकादेमी से नवाजा गया था तो 2017 में हिंदी साहित्य में उनके योगदान के लिए उन्हें ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया. कृष्णा सोबती हमेशा अपने साहित्य से हमारे बीच रहेंगी.
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