राहुल गांधी को राजनीति से संन्यास लेने के लिए क्यों नहीं धकेल रहा सोशल मीडिया ?

राहुल गांधी को राजनीति से संन्यास लेने के लिए क्यों नहीं धकेल रहा सोशल मीडिया ?

फेसबुक आज के युग का बोधि वृक्ष है इस पर तो किसी को आपत्ति हो नहीं सकती है और अगर है भी तो कौन सा फ़र्क पड़ने वाला है. आपत्ति तो इस बात से भी नहीं हो सकती है कि ट्विटर आज के समय का इटैलियन सैलून है, जहां ईंट पर बैठ कर सब 'बिफ़ोर मनमोहन एरा' में बाल छंटाते थे. ख़ैर जब से सुना है कि देवबंद को देववृंद करने और ताज महल को त्याग महल बनाने का आइडिया कंटेम्प्लेट हो रहा है तो मैंने सोचा कि बोधिवृक्ष और इटेलियन सैलून वाले अपने आइडिया का भी पेपर पुट-इन करवा देता हूं. फेसबुक की जगह फेसबोधि अच्छा रहेगा लेकिन मेरे हर ब्लॉग की तरह इस ब्लॉग में भी मुद्दा वो नहीं है. लिखने की प्रेरणा मुझे किसी और वृक्ष से मिली है.

दरअसल हुआ ये है कि फ़ेसबुकिया बोधि वृक्ष के नीचे ज्ञानपिपासु मैं बैठा सोच रहा था कि ज्ञान का एक भी झोंका ऐसा नहीं चला है जिसमें कोई पत्ता झड़ कर गिरा हो, कोई ऐसा भोजपत्र नहीं दिखा जिसपर यह लिखा हो कि राहुल गांधी को संन्यास ले लेना चाहिए. ऐसे मुद्दे पर इस सलाह का न दिखना तो एक खगोलीय घटना है. जब हर खगोलीय घटना के लिए त्वरित ज्ञान डिस्पेंसर लगा हुआ है तो फिर ग्यारह तारीख़ के बाद आख़िर इस ज्ञान के सागर पर किसने ठेपी लगा दी है? क्यों नहीं फ़ेसबुकैत सिग्नेचर कैंपेन शुरू कर रहे हैं, मस्ट मस्ट मस्ट मस्ट शेयर वाले पोस्ट ठोक रहे हैं और जैसा कि मेरा जन्म ऐसे ही निरर्थक प्रश्नों को उठाने के लिए हुआ है तो मुझे लगा कि मुझे एक बार फिर से 'फुलफिल माई डेस्टिनी' करना पड़ेगा.

चिंता और आश्चर्य की बात तो है ही. अपना समाज जो प्रदर्शन और मर्यादा के इतने कड़क पैरामीटर पर जीता है, उठता-बैठता-सोता है, जो धोनी के कैच मिस करने पर क्रिकेट छुड़वा देता है, कोहली की गर्ल फ़्रेंड, ट्वेल्थ मैन का तौलिया, आफरीन का गाना, भंसाली का सिनेमा, गुरमेहर से देशभक्ति, उदय चोपड़ा से सिनेमा, हनी सिंह से गाना, यहां तक कि सीता मैया से महल तक, उन्हीं कड़क मापदंडों से लैस हमारा प्रबुद्ध वर्ग आख़िर राहुल गांधी से राजनीति क्यों नहीं छुड़वा रहा? क्यों नहीं सलाह दे रहा है राहुल गांधी को, कि राजनीति से संन्यास ले लेना चाहिए. क्यों नहीं कह रहा है 'जा राहुल, जी ले अपनी ज़िंदगी.'

क्यों नहीं आह्वान किया जा रहा है कि 'कब तक छुप छुप के वेकेशन करेगा, क्यों नहीं मोदी की तरह सीना ठोक के विदेश घूम लेता है.' 'क्यों नहीं अपने पैसे से, अपने पसंद की जगह पर किसी कूल ज्वाइंट में कांटिनेंटल ब्रेकफ़ास्ट करता है, क्यों परेशान है दलितों के प्लेट से ब्रेकफ़ास्ट करके? डू यू रियली इंजॉय दैट फ़ूड? अब वक्‍त आ गया है कलावती और शशिकला की यादों को तिलांजलि देने का. कब तक फटा पॉकेट लेकर घूमेगा माई ब्वॉय? जाने दे कुर्ता पजामा, बार बार आस्तीन ऊपर नीचे करके ट्राइसेप ऐंठ गया होगा. पहन ले पोलो टीशर्ट या 'पीस ब्रो' लिखा सिंपल टीशर्ट. क्यों नहीं उमर अबदुल्लाह के ट्वीट का हवाला देकर 2024 तक वेकेशन सुझा रहा है? आख़िर क्यों नहीं उमर ही डीएम कर देते हैं उनको ट्विटर पर?' आख़िर क्यों नही हो रहा है ये सब आह्वान फ़ेसबुक पर. क्या ग्यारह मार्च के बाद फ़ेसबुक अब केवल पिछले जन्म में आप कौन से जानवर थे इसी सर्वे को करने के लिए बच गया है क्या?

क्यों नहीं समझाया जा रहा है कि अभी हाल ही में आमिर ख़ान ने भी बोल दिया है हमारी छोरियां छोरों से कम हैं के? बराबरी का ज़माना है, क्यों ये पैट्रिआर्कल बैगेज ढो रहे हो? प्रियंका गांधी की भी तो ज़िम्मेदारी है पार्टी संभालने की? काहे लोड ले रहे हो? दिन रात पसेरी के पसेरी जोक फ़ेसबुक पर ठेलाता रहता है? बुर्के-घूंघट से बेटियों को लिबरेट कराने वाले भी सामाजिक बराबरी के इस ऐंगिल को क्यों नहीं खंगाल रहे हैं. क्यों नहीं राहुल बोलते हैं बहन से कि वाड्रा-वाड्रा तो ऐसे ही चलता रहेगा, कौन सा जेल में डाल देंगे, बढ़े आगे और संभाले पार्टी को, नहीं तो पायलट या सिंधिया आर ओल्सो देयर.. वरुण भी लाभार्थी हो सकता है. एक बार बोलो तो सही, कोशिश तो करो बदलेगा इंडिया.

मोटीवेशनल कोट पर कोट ठोक के फ़ेसबुक की वॉल ढहा देनेवाला भी नहीं बोल रहा कि - यू डिज़र्व बेटर..लर्न टू लेट गो. जब शीला आंटी बोली ही हैं तो फिर टेक योर टाइम, कमबैक करें जब मेच्योर हो जाएं. फिलाडेल्फ़िया में जाकर रॉकी के साथ आई ऑफ़ द टाइगर बैकग्राउंड गाने पर प्रैक्टिस करो और मेक ए कमबैक. कोई क्यों नहीं गाइडेंस दे रहा है? इसलिए तो नहीं कि जब तक फ़ेदरवेट सामने नहीं रहेगा तब तक हेवीवेट की महत्ता कैसे रहेगी? बीस इंची नहीं रहेगा तो छप्पन इंची बड़ा कैसे लगेगा? या फिर ये कि अगर युवराज सीन से आउट हो गए तो फ़ेसबुक पर मेम किसके फ़ोटो के नाम से बनेगा, व्हाट्सऐप पर आख़िर चुटकुला किसके नाम पर बनेगा?

खुद उनकी पार्टी में भी एक से एक मोटीवेटर हैं, दुनिया भर की यूनिवर्सिटी में माइंड ब्लोइंग स्पीच देने वाले हैं. वो भी क्यों बत्तीस दांत में दबे जीभ की तरह चुपके बैठे हैं. वो भी क्यों नहीं बोल देते कि हो गया अब?

तो आज का ब्लॉग दरअसल बोधि वृक्ष नहीं इसी वृक्ष के बारे में सर्च से प्रेरित था जो तमाम आलोचनाओं, चुटकुलों और परिहास की धूप-बारिश-आंधी के बीच खड़ा है और अपनों के साथ साथ विरोधियों को भी छाया दे रहा है. बाक़ी लगता तो यही है कि वृक्ष रहना है कि कॉफ़ी टेबल बन जाना है ये दुविधा लंबी खिंच गई है. ताव में आकर ऑर्डिनेंस फाड़ने वाले राहुल गांधी ख़ुद से भी तो सवाल करते होंगे कि चार स्टेट हारने पर प्रोन्नति की बात करने वाले उन्हें क्या समझते हैं? आउट होने के बाद भी बैटिंग दुधभतिया प्लेयर को ही मिलती है.

(क्रांति संभव NDTV इंडिया में एसोसिएट एडिटर और एंकर हैं...)

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