बीजेपी ने सरकार बना ली है। नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बने छह महीने हो गए हैं। इन दोनों तथ्यों में कोई नई खबर नहीं है, लेकिन एक अलग सी चीज जो चुनाव के वक्त उभरी थी, वह अब जड़ पकड़ चुकी है। लगता है बीजेपी के पास जो है, मोदी का नाम ही है। ब्रैंड मोदी, ब्रैंड बीजेपी पर भारी पड़ रहा है।
चुनाव के पहले हर एक चुनावी भाषण में मोदी कहते थे कि उनको वोट दिया जाए। किसी और उम्मीदवार के लिए भी वोट मांगते, तो अपने नाम पर।
उनके प्रधानमंत्री बनने के बाद भी यह बदला नहीं है। चलिए देखते हैं कैसे। नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद महाराष्ट्र, हरियाणा में चुनाव हुए और फिलहाल जम्मू-कश्मीर और झारखंड में चुनाव चल रहे हैं। हर जगह किसी स्थानीय बीजेपी नेता या बीजेपी के सिद्धांतों की जगह सिर्फ एक शख्स दिखा और उस शख्स के पिछले शासन रिकार्ड और आगे क्या कर सकता है, इस पर भरोसा दिलाने की कोशिश। लोकसभा चुनावों की ही तरह फोकस पूरी तरह से नरेंद्र मोदी पर।
जानकार ये भी कहते हैं कि यूपीए-2 सरकार के दौरान भ्रष्टाचार के जिस तरह के मामले सामने आए, उसने बीजेपी की जीत का एक माहौल बना दिया। लेकिन अगर ये जीत का माहौल था, तो बीजेपी के बाकी नेता इसका फायदा क्यों नहीं उठा पाए। चुनाव जरूर जीते, पर क्या एक 'लार्जर दैन लाइफ' इमेज बना पाए, मोदी की तरह?
शायद इसकी वजह मोदी का राजनीतिक इतिहास और बीजेपी के अंदर की स्थिति भी रही। चाहे हम इसे सही मानें या गलत, 2002 के गुजरात दंगों के बाद मोदी पर उठे सवाल और मोदी के इन सवालों से निबटने के तरीके ने कहीं न कहीं उन्हें मानसिक मजबूती जरूर दी। इसी वक्त वह दौर शुरू हुआ, जिसमें मोदी ने मीडिया से दूरी बनाकर काम करना शुरू किया।
शायद यही वक्त था, जब बिना मीडिया के नजदीक हुए, बिना आमने-सामने हुए उन्होंने मीडिया के इस्तेमाल का तरीका सीखा। इसमें सोशल मीडिया का इस्तेमाल जैसा उन्होंने किया, शायद किसी और नेता ने नहीं। इस ब्रैंड बिल्डिंग के तरीके के इस्तेमाल में बीजेपी कहीं पीछे थी और मोदी सबसे आगे। न तो पार्टी और न पार्टी का कोई और नेता इस तरह की ब्रैंड बिल्डिंग कर सका और न ही लोगों से दूर होते हुए भी लोगों से मुखातिब होने का इंप्रेशन दे पाया। और इस तरह ब्रैंड मोदी मजबूत होता गया।
गुजरात में मोदी का लगातार जीत दर्ज करना एक बेहद अहम फैक्टर रहा, लेकिन फिर शिवराज सिंह चौहान और रमन सिंह भी क्या वैसे ही दावा कर सकते थे, जैसे मोदी ने किया? शायद कर सकते थे, अगर मोदी जैसी रणनीति अपनाते - ब्रैंडिंग की और दिल्ली के हालात का फायदा उठाने की।
दिल्ली के हालात क्या थे? लगातार सत्ता से बाहर रही बीजेपी में अंदरूनी खींचतान मजाक का विषय बन चुका था, 'पार्टी विथ अ डिफरेंस', 'पार्टी विथ डिफरेंसेस' कही जा रही थी। और खींचतान भी किनके बीच थी - बरसों से राजधानी दिल्ली में बैठे वे चेहरे, जो दिल्ली के आगे देख तो पा रहे थे, पर राज्यों के क्षत्रपों को जगह देने को तैयार नहीं थे।
लालकृष्ण आडवाणी के दिन बीत चुके हैं, यह भी साफ था...चुनाव कैसे लड़ा जाएगा, इसकी रणनीति से पहले यह निर्णय करने की कोशिश हो रही थी कि चुनाव जीते, तो प्रधानमंत्री कौन बनेगा। कुल मिलाकर स्थिति ऐसी बनी थी कि पार्टी पीछे चली गई थी और मोदी आगे।
अब जब सरकार बन चुकी है, छह महीने बीत चुके हैं, सरकार के नाम पर भी सिर्फ नरेंद्र मोदी ही दिखते हैं। सब के सब मंत्री बैकग्राउंड में हैं। खासकर अगर विदेश मंत्रालय की बात करें, तो सिर्फ प्रधानमंत्री ही दिखते हैं, विदेश मंत्री बहुत कम। यह इसलिए भी है, क्योंकि छोटी से छोटी चीज को मोदी एक 'मेड फॉर टीवी' इवेंट बना देते हैं। तो कांग्रेस तो छोड़ दीजिए, अभी बीजेपी को मोदी से काफी कुछ सीखना बाकी है। फिलहाल ब्रैंड मोदी, ब्रैंड बीजेपी से बहुत आगे है।