जिन बालासाहब ठाकरे ने साठ के दशक में 'मराठी मानुष' का मुद्दा उठाते हुए शिव सेना की स्थापना की थी, आज उन्हीं का परिवार शिव सेना से बाहर है. जून 2022 में एकनाथ शिंदे की ओर से की गयी बगावत के बाद पार्टी दो फाड़ हो गयी. चुनाव आयोग और विधान सभा स्पीकर ने बागी शिंदे गुट को ही असली शिव सेना होने की मान्यता दे दी. ठाकरे की जयंती पर मुझे उनका वो सपना याद आता है जो उन्होंने अपनी पार्टी को लेकर संजोया था और वो अधूरा ही रह गया.
1995 में उनकी पार्टी बीजेपी के साथ मिलकर एक बार सत्ता में आ पायी. 80 के दशक में हिंदुत्व का मुद्दा अपनाने के बाद बालासाहब को उम्मीद थी कि पार्टी महाराष्ट्र के बाहर भी अपने पैर पसारेगी और एक राष्ट्रीय पार्टी की शक्ल ले लेगी, लेकिन इस दिशा में कदम अधूरे मन से उठाये गये नजर आते हैं.
शिवसेना की ओर से हिंदुत्व का मुद्दा अपनाने और बालासाहब की निजी छवि ने महाराष्ट्र के बाहर भी खासकर उत्तर प्रदेश, दिल्ली, राजस्थान और जम्मू-कश्मीर में कई युवाओं को आकर्षित किया. शिवसेना ने भी इस बात को प्रदर्शित किया कि वो गैर मराठियों के लिये खुली है और इसी के मद्देनजर साल 1993 में दोपहर का 'सामना' नामक हिंदी सांध्य दैनिक निकाला और 1996 में मुंबई के अंधेरी स्पोर्ट्स कॉम्प्लैक्स में उत्तर भारतीय महासम्मेलन का आयोजन किया.
अगर महाराष्ट्र के बाहर किसी राज्य में शिवसेना को अधिकतम कामयाबी मिली तो वो राज्य था उत्तर प्रदेश, जहां पार्टी ने 1991 के चुनाव में एक विधानसभा सीट जीती. अकबरपुर सीट से एक स्थानीय बाहुबली नेता पवन पांडे शिवसेना का विधायक चुन लिया गया. शिवसेना ने उस दौरान लखनऊ, मेरठ, वाराणासी, अकबरपुर, बलिया और गोरखपुर के स्थानीय निकाय चुनावों में भी तगड़ी मौजूदगी हासिल की. बहरहाल, ये कामयाबी ज्यादा वक्त तक टिकी नहीं. पवन पांडे जो उत्तर प्रदेश में शिवसेना का सबसे मजबूत चेहरा बनकर उभरे थे, अगला चुनाव हार गए. उत्तर प्रदेश का कुख्यात अपराधी श्रीप्रकाश शुक्ला पहले पवन पांडे के साथ ही काम करता था. जब मायावती मुख्यमंत्री बनीं तो उन्होंने अपने उन सियासी दुश्मनों को निशाना बनाना शुरू किया जिनका आपराधिक रिकॉर्ड था. चूंकि, पवन पांडे खुद एक आपराधिक छवि के शख्स थे इसलिये मायावती की मुहीम से खुद को बचाने के लिये उन्हें उत्तर प्रदेश छोडकर भागना पड़ा. पांडे की गैर मौजूदगी ने यूपी में शिवसेना के विस्तार को प्रभावित किया. यूपी से भागने के बाद पांडे मुंबई में आकर बस गए. वहां, उनकी संजय निरुपम से अनबन हो गई जिन्हें शिवसेना ने राज्यसभा सांसद और अपने उत्तर भारतीय कार्यक्रम का प्रभारी बना दिया था. एक मामले में पांडे की गिरफ्तारी से निरुपम को उन्हें पार्टी से बाहर करने का एक मौका मिल गया. पांडे के जाने से शिवसेना यूपी में बुरी तरह से लड़खड़ा गई.
हालांकि, शिवसेना ने 90 के दशक में यूपी में 3 बार विधानसभा चुनाव लड़ा लेकिन बाल ठाकरे कभी खुद वहां चुनाव प्रचार के लिये नहीं गये. ठाकरे के उत्तर प्रदेश न जाने के पीछे हमेशा ये कारण बताया गया कि खुफिया जानकारी के मुताबिक उनकी जान को खतरा है. ठाकरे एकमात्र एक बार लखनऊ गये थे बाबरी कांड से जुड़ी एक अदालती कार्रवाई में पेश होने के लिये. शिवसेना से निकाले जाने के बाद पवन पांडे बहुजन समाजवादी पार्टी से जुड़ गए. हालांकि, बीजेपी नेताओं ने कभी खुले तौर पर ये बात नहीं कही, लेकिन उन्हें डर था कि अगर शिवसेना महाराष्ट्र के बाहर बढ़ी तो उसके वोटर कट सकते हैं. वाजपेयी के शासन काल में जब भी कभी ठाकरे महाराष्ट्र के बाहर जाने की योजना बनाते, प्रमोद महाजन किसी आई.बी के अलर्ट का हवाला देकर उन्हें रोक देते कि उनकी जान का खतरा है. महाजन बीजेपी में रहते हुए भी ठाकरे के बड़े खास माने जाते थे और ठाकरे को उन पर काफी भरोसा था.
यूपी के विपरीत दिल्ली में शिवसेना आज तक एक भी विधानसभा सीट नहीं जीत पायी है, लेकिन पार्टी की दिल्ली इकाई अक्सर खबरों में रही है. जब बाल ठाकरे ने पाकिस्तानी खिलाड़ियों के खिलाफ अपने बैन का ऐलान किया तो जनवरी 1999 में शिवसैनिकों ने दिल्ली के फिरोज शाह कोटला मैदान की पिच खोद डाली. शिवसैनिकों ने शांति प्रक्रिया के तहत शुरू की गईं भारत-पाकिस्तान के बीच बसों की हवा निकाल दी. साल 2000 में अजय श्रीवास्तव जो कि भारतीय विद्यार्थी सेना (शिवसेना की छात्र इकाई जिसके प्रमुख राज ठाकरे हुआ करते थे.) से जुड़े थे एकाएक मशहूर हो गये जब उन्होंने इनकम टैक्स विभाग की ओर से आयोजित की गई नीलामी में दाऊद इब्राहिम की संपत्ति पर बोली लगाई. पिछले साल शिवसैनिकों ने यासीन मलिक पर हमला कर दिया जब अफजल गुरू को फांसी दिये जाने के बाद वो दिल्ली आये. शिव सैनिकों ने दिल्ली में ही एक पाकिस्तानी सूफी गायिका के कार्यक्रम में भी तोड़फोड़ की. हालांकि, दिल्ली के शिवसैनिकों की इस तरह की गतिविधियों को अखबारों और टीवी चैनलों पर जगह तो मिली लेकिन इसका कोई चुनावी फायदा पार्टी को नहीं मिला. जयभगवान गोयल, अजय श्रीवास्तव और मंगतराम मुंडे शिवसेना की दिल्ली इकाई के संस्थापक सदस्य थे, लेकिन इनकी आपस में अनबन थी.
यूपी की तरह ही ठाकरे कभी भी चुनाव प्रचार के लिये दिल्ली नहीं आये.. मार्च 1999 में उनका सम्मान करने के लिये दिल्ली के ताल कटोरा स्टेडियम में एक रैली आयोजित की गई थी, लेकिन ठाकरे उसमें भी शरीक नहीं हुए और अपने बेटे उद्धव को भेज दिया. उस वक्त तक उद्धव शिवसेना के कार्यकारी अध्यक्ष भी नहीं बने थे. बार-बार गुजारिश के बावजूद बालासाहब ठाकरे के दिल्ली न आने से उनके कार्यकर्ता हतोत्साहित हुए. दिल्ली के शिवसैनिकों की एक बड़ी तादाद भारतीय विद्यार्थी सेना की सदस्य थी, लेकिन जब राज ठाकरे ने शिवसेना छोड़कर अपनी अलग पार्टी बनाना तय किया तो इन शिवसैनिकों को भी पार्टी में अपना कोई भविष्य नजर नहीं आया. हालांकि, दिल्ली के ये शिवसैनिक राज ठाकरे के साथ उनकी नई पार्टी में शामिल नहीं हो पाये क्योंकि राज ठाकरे ने अपनी नई पार्टी एमएनएस को महाराष्ट्र तक सीमित रखा है. अजय श्रीवास्तव अब शिवसेना के सक्रिय सदस्य नहीं हैं और जयभगवान गोयल ने भी पार्टी के वरिष्ठ नेताओं के साथ अनबन के बाद शिवसेना छोड़ दी है.
शिवसेना के लिये गुजरात में उस वक्त एक मौका था जब शंकरसिंह वाघेला ने बीजेपी से बगावत की. बीजेपी से निकलने के बाद वाघेला ने खुद की एक पार्टी बनाई, लेकिन उससे पहले उन्होंने शिवसेना से एक पेशकश की. वाघेला ने ठाकरे को संदेश भिजवाया कि वो अपने समर्थकों के साथ शिवसेना में शामिल होना चाहते हैं, लेकिन ठाकरे ने उनकी ये पेशकश ठुकरा दी क्योंकि वो बीजेपी से अपने रिश्ते नहीं बिगाड़ना चाहते थे. ठाकरे को इस बात की शंका भी थी कि गुजरात में शिवसेना कोई झंडे गाड़ पायेगी क्योंकि शिवसेना के जन्म के बाद शुरुआती सालों तक उसकी इमेज गुजराती विरोधी रही थी.
दिल्ली की तरह ही शिवसेना की राजस्थान विधानसभा में भी कोई मौजूदगी नहीं है. बहरहाल, 2010 के स्थानीय निकाय चुनावों में पार्टी को नागौर नगर निगम में 2 और गंगानगर नगर निगम में 7 सीटें मिलीं. 2013 में उदयपुर विश्वविद्यालय के छात्रसंघ चुनाव में शिवसेना की युवा इकाई युवा सेना का उम्मीदवार अध्यक्ष चुना गया. जयपुर और भरतपुर विश्वविद्यालयों के छात्रसंघ चुनावों में भी युवा सेना ने कुछ सीटें जीतीं. हालांकि, शिवसेना 1998 से राजस्थान में विधान सभा चुनाव लड़ रही है, लेकिन बाल ठाकरे एक बार भी वहां चुनाव प्रचार के लिये नहीं गये. साल 2003 के चुनाव में सिर्फ एक बार उद्धव ठाकरे प्रचार के लिये आये थे. शिवसेना के हिंदुत्ववादी एजेंडे ने कुछ समर्थक जम्मू में भी जुटाये. शिवसेना का एक उम्मीदवार नगर निगम के चुनाव में पार्षद चुना गया.
बहरहाल, बालासाहब ठाकरे का ख्वाब तो अधूरा ही रह गया, लेकिन उनके बेटे उद्धव और पोते आदित्य के सामने अब अपने सियासी भविष्य को लेकर सवाल खड़ा हो गया है. साल 2024 शिव सेना के लिये काफी महत्वपूर्ण है. इस साल तीन बडे चुनाव हैं - लोकसभा, विधान सभा और मुंबई महानगरपालिका. इन तीन चुनावों के नतीजों के आधार पर ही ये पता चल सकेगा कि किस शिव सेना का पलडा भारी है, शिंदे वाली या ठाकरे वाली.
(जीतेंद्र दीक्षित पत्रकार तथा लेखक हैं...)
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.