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हिन्दी में तेज़ी से फैल रहे इस 'वायरस' से बचना ज़रूरी है...!

Amaresh Saurabh
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    अक्टूबर 14, 2024 09:57 am IST
    • Published On सितंबर 07, 2024 12:05 pm IST
    • Last Updated On अक्टूबर 14, 2024 09:57 am IST

हिंदी पखवाड़ा चल रहा है. हिंदी की हालत को लेकर रोने-गाने का सिलसिला भी जारी है. ऐसे में चाहे रस्म-अदायगी के तौर पर ही सही, यह देखा जाना चाहिए कि यह भाषा जा किधर रही है. कहीं ऐसा तो नहीं कि हिंदी के मौलिक ढांचे से ही छेड़छाड़ हो रही हो और हम इसकी नई सूरत देखकर तालियां बजा रहे हों? कहीं इसमें कोई 'वायरस' तो नहीं आ गया, जो इसे तेजी से संक्रमित करने पर आमादा हो!

दिक्कत क्या है भाई?
यहां हिंदी बोलने और लिखने में अंग्रेजी या दूसरी भाषाओं के शब्दों के बढ़ते इस्तेमाल की बात नहीं हो रही है. दूसरी भाषाओं के शब्दों को अपने में अच्छी तरह समा लेना तो अच्छी बात है. इससे तो हिंदी समृद्ध ही हो रही है. लगातार चलने वाली इस प्रक्रिया से देश-दुनिया के कोने-कोने में हिंदी की पैठ बढ़ रही है. यहां बात हो रही है अंग्रेजी भाषा के शब्दों के हिंदी में इस्तेमाल के तौर-तरीके की. वह तरीका, जिसे हिंदी के बुनियादी ढांचे पर चोट कह सकते हैं. यह बीमारी हाल के एकाध दशक में तेजी से बढ़ी है. पहले कुछ उदाहरण देख लीजिए, जो कि हाल में मीडिया में हेडिंग के तौर पर इस्तेमाल की गई है :

रनवे की लंबाई 4000 फीट बढ़ेगी. 700 फीट गहरी खाई में गिरा वाहन. बांग्लादेश सीरीज से पहले टेंशन में सेलेक्टर्स. 5 सवाल, जो बढ़ाएंगे भारतीय सेलेक्टर्स का सिरदर्द. स्किल सब्जेक्ट्स के सैंपल पेपर जारी. पुलिस मुख्यालय के बाहर डॉक्टर्स का धरना खत्म. 2 ओवर्स में पलट गया पूरा गेम.

सतही तौर पर देखने में ये सारी 'लाइंस' शायद नॉर्मल लग रही हों. लेकिन इन सबमें छुपा है हिंदी का 'वायरस'. इस बीमारी की जांच और इलाज से पहले, भाषा के बुनियादी नियम की बात करने से पहले एक किस्सा जान लीजिए.

जब बैकफुट पर आए अंग्रेज...
भाषासेवियों के बीच एक बड़ा नाम है- बाबूराव विष्णु पराड़कर. हिंदी पत्रकारिता के 'भीष्म पितामह' कहे जाते हैं. इन्हीं से जुड़ा किस्सा है. बात है साल 1938 की. वे हिंदी साहित्य सम्मेलन में शिरकत करने शिमला गए हुए थे. इसी शिमला अधिवेशन में अध्यक्ष के तौर पर भाषण दे रहे थे. उन्होंने कहा, "हिंदी बाहर के सभी शब्दों का स्वागत करती है. हमने 'स्टेशन' शब्द लिया, पर इसका बहुवचन 'स्टेशंस' नहीं लिया. हमने 'फुट' शब्द को अंग्रेजी से लिया है, पर इसका बहुवचन 'फीट' वहां से लेने की जरूरत नहीं है. इसलिए आज जब मैं अपने यहां गणित की किताबों में 'फीट' शब्द देखता हूं, तो मुझे तो 'फिट' आता है..."

तब अंग्रेजों का शासन था. बाबूराव विष्णु पराड़कर और उन जैसे साहित्यसेवियों के विरोध और दबाव के आगे अंग्रेजी हुकूमत को झुकना पड़ा था. स्कूल की किताबों से हिंदी में 'फीट' को हटाकर, इसकी जगह 'फुट' को शामिल करना पड़ा था.

क्या कहता है नियम?
यह पूरा झमेला दूसरी भाषाओं के शब्दों के 'बहुवचन' वाले रूप को लेकर है. समझने की बात यह है कि इसको लेकर हर भाषा का नियम एक जैसा ही है. हर भाषा एक-दूसरे से शब्द लेती-देती रहती है, लेकिन उन बाहरी शब्दों के 'बहुवचन' अपनी भाषा के नियम से बनाए जाते हैं. इस बात को ठीक से समझने के लिए कुछ उदाहरण देखिए.

अंग्रेजी में भी हिंदी के कई शब्द घुल-मिल गए हैं. लेकिन उन हिंदी शब्दों के 'बहुवचन' वहां अंग्रेजी के ग्रामर से तय होते हैं, न कि हिंदी से. जैसे- हिंदी के शब्द हैं- जंगल, पंडित, ठग, चटनी आदि. अंग्रेजी में इनका 'बहुवचन' होता है- जंगल्स (Jungles), पंडित्स (Pundits), ठग्स (Thugs), चटनीज (Chutneys)... मतलब, हम देख सकते हैं कि शब्द भले ही हिंदी से लिए गए, पर 'प्लूरल' अंग्रेजी के नियम से बनाए गए. अगर हिंदी के नियम से 'प्लूरल' बनाए जाते, तो अंग्रेजी में शब्द होते- पंडितों (Panditon), जंगलों (Jangalon), ठगों (Thagon), चटनियों (Chataniyon). लेकिन अंग्रेजी में ऐसा नहीं लिखा जाता. ये प्रैक्टिकल भी नहीं है.

संस्कृत तक को छूट नहीं!
ऊपर बताए गए नियम को दूसरी भाषाओं के शब्दों के जरिए भी देखा-परखा जा सकता है. अरबी-फारसी के जो शब्द उर्दू में 'बहुवचन' के रूप में इस्तेमाल होते हैं, हिंदी में उनके 'बहुवचन' हिंदी के नियम से बनाए जाने का चलन है. जैसे- मकान का 'बहुवचन'- मकानों. मकानात नहीं चलता. यहां आप कुछ अपवाद गिना सकते हैं, लेकिन वो एकदम थोड़े से हैं.

औरों को तो छोड़िए, जिस संस्कृत से हिंदी निकली है, वहां से भी हिंदी में केवल 'एकवचन' वाले शब्द ही लिए गए हैं. 'बहुवचन' हिंदी के नियम से तय होते हैं. जैसे- पत्र का 'बहुवचन'- पत्रों, पुष्प का 'बहुवचन'- पुष्पों. देव का 'बहुवचन'- देवों. अगर हिंदी में इन शब्दों के 'बहुवचन' संस्कृत के नियम से बनाए जाते, तो हिंदी में पत्रानि, पुष्पानि और देवा: का इस्तेमाल धड़ल्ले से हो रहा होता. पर ऐसा होता है क्या? हिंदी का यह नियम सारी भाषाओं पर लागू होता है, तो जाहिर-सी बात है कि अंग्रेजी पर भी होता है.

इलाज क्या है?
एक बार बीमारी पकड़ में आ जाने पर इलाज में ज्यादा समस्या नहीं है. बस, इरादा साफ होना चाहिए कि क्या करना है, क्या नहीं. शुरुआत में उदाहरण के तौर पर कुछ लाइनें ('लाइंस' नहीं) दी गई थीं. उन सबमें कई शब्दों के 'बहुवचन' जबरन अंग्रेजी के नियम से बनाए गए हैं. इस तरह की गलती से बचा जाना चाहिए.

रनवे की लंबाई, खाई की गहराई चाहे जितनी भी हो, उन सबके आगे नियमत: 'फुट' लिखा जाना चाहिए, 'फीट' नहीं. टेंशन में 'सेलेक्टर्स' की जगह केवल 'सेलेक्टर' लिख सकते हैं. ज्यादा बेचैनी महसूस हो रही हो, तो 'कई सेलेक्टर' लिखकर बीमारी फैलाने से बच सकते हैं! स्किल 'सब्जेक्ट' के सैंपल पेपर जारी लिखने में क्या हर्ज है? इसी तरह, 'डॉक्टरों' का धरना खत्म करवाने और 2 'ओवरों' या 2 'ओवर' में गेम पलटवाने में कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए. अगर भाषा के सरलीकरण वाले हिसाब से देखें, तो भी पढ़ने, लिखने या बोलने में यह वाला रूप ही ज्यादा सहज-सरल मालूम पड़ रहा है.

'भाषा बहता नीर' का क्या?
अक्सर यह तर्क दिया जाता है कि भाषा तो 'बहता नीर' है. मतलब, भाषा कोई बांधने की चीज तो है नहीं. इसमें रवानगी जरूरी है. यह सही बात है. भाषा में रवानगी और ताजगी बरकरार रहे, इसीलिए तो वक्त-वक्त पर इसमें दूसरी देसी या विदेशी भाषाओं के शब्द, मुहावरे आदि धड़ल्ले से इस्तेमाल होते आए हैं. लेकिन एक चीज होती है, जिसे 'मौलिक ढांचा' कहते हैं. जब इस ढांचे से छेड़छाड़ की जाती है, तो इससे अराजकता पैदा हो जाती है- भाषायी अराजकता! भाषा का 'बुनियादी ढांचा' बरकरार रहे, इसके लिए ही तो व्याकरण के नियम बनाए गए हैं.

जहां तक नियमों में संशोधन की बात है, ये तो संविधान तक में होते आए हैं. संसद एक निश्चित नियम से संशोधन करती रहती है. लेकिन संविधान के मौलिक ढांचे में बदलाव करने की इजाजत किसी को नहीं है. इसी तरह, आज हिंदी के मौलिक ढांचे को जानने-समझने और इसमें तेजी से फैल रहे 'वायरस' से बचने की जरूरत है. सतर्क रहिए, सुरक्षित रहिए! हिंदी पखवाड़े की शुभकामनाएं!

अमरेश सौरभ वरिष्ठ पत्रकार हैं... 'अमर उजाला', 'आज तक', 'क्विंट हिन्दी' और 'द लल्लनटॉप' में कार्यरत रहे हैं...

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.

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