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This Article is From Dec 29, 2023

2024 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सामने कोई चुनौती है क्‍या?

Vasindra Mishra
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    दिसंबर 29, 2023 00:28 am IST
    • Published On दिसंबर 29, 2023 00:27 am IST
    • Last Updated On दिसंबर 29, 2023 00:28 am IST

देश में 5 राज्‍यों के चुनाव परिणामों ने 2024 के आम चुनाव की पटकथा लिख दी है. इंडिया गठबंधन के अस्तित्व में आने और बिहार में जातीय सर्वे कराकर सरकारी नौकरियों में रिजर्वेशन का कोटा बढ़ाने के लिए बिहार विधानसभा से प्रस्ताव पारित करवाकर बीजेपी विरोधियों ने कड़ी चुनौती पेश करने की कोशिश की थी. राहुल गांधी ने भी जातीय सर्वे के मुद्दे को देशव्यापी बनाने की कोशिश की. कांग्रेस ने अपने शासित राज्यों में भी सर्वे कराकर बिहार की तरह इसे लागू करने का ऐलान किया. संसद के अंदर और बाहर इस मुद्दे को पूरे ज़ोर शोर से उठाया. बावजूद इसके कांग्रेस को बुरी तरह हार का सामना करना पड़ा.  

इन राज्यों के चुनाव प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चेहरे पर हुए. भाजपा की तरफ से किसी को भी मुख्यमंत्री प्रोजेक्ट करके चुनाव नहीं लड़े गए. इसके विपरीत कांग्रेस की तरफ से सभी राज्यों में मुख्यमंत्री के लिए नेताओं के चेहरे आगे किए गए थे. इन राज्यों के चुनाव परिणाम 2024 के चुनाव से पूर्व सेमीफाइनल माने जा रहे थे. इसलिए इन राज्यों के परिणामों को मूड ऑफ द नेशन के रूप में देखा जाना चाहिए. पीएम मोदी को 2014 से ज्‍यादा 2019 में समर्थन मिला. चुनाव के परिणाम से यही संकेत मिल रहा है कि उनकी लोकप्रियता सिर चढ़कर बोल रही है.  

भारतीय राजनीति में पीएम मोदी की स्थिति वही है, जो एक दौर में पंडित नेहरू और इंदिरा गांधी की हुआ करती थी. इस समय देश की राजनीति विकल्पहीनता के दौर से गुजर रही है. करप्शन, परिवारवाद के आरोप के चलते मोदी विरोधी दल उनके सामने चुनौती पेश नहीं कर पा रहे हैं. जाति आधारित राजनीति का शिगूफा भी नहीं चल पा रहा है.

पीएम मोदी ने ऐलान कर दिया है कि उनकी नजर में गरीबी ही एकमात्र जाति है. वे पंडित दीनदयाल उपाध्‍याय के जीवन दर्शन को लेकर आगे बढ़ रहे हैं. साथ ही विकास और विरासत साथ लेकर चल रहे हैं. उनका पूरा फोकस गुड गवर्नेंस पर है. वे कोऑपरेटिव फेडरलिज्म के सिद्धांत को आगे ले जाने की कोशिश में लगे हैं. दूसरी तरफ जातीय और क्षेत्रीयता पर आधारित पार्टियां वही घिसे-पिटे फॉर्मूले पर चलकर पीएम मोदी का मुकाबला करना चाहती है. इंडिया गठबंधन विभाजित दिखता है और क्षेत्रीय पार्टियों के नेताओं का एजेंडा कांग्रेस पर भारी पड़ता दिखाई दे रहा है.

गठबंधन के अंदर राहुल को कोई नेता स्‍वीकार करने को तैयार नहीं है. कांग्रेस के अंदर भी वरिष्‍ठ नेताओं को राहुल गांधी के कामकाज से नाराजगी है. उनके मुताबिक, पार्टी पर वामपंथी हावी है. कांग्रेस हमेशा से सेंट्रिस्ट पार्टी रही है, लेकिन लगता है कि राहुल गांधी ने पार्टी को उसके कोर वोटर्स से अलग कर दिया है.
उनका आरोप है कि राहुल जिस वर्ग की राजनीति कर रहे हैं, वह कांग्रेस का कभी वोटर नहीं रहा. इसीलिए चुनावों में पार्टी की शर्मनाक हार हो रही है. उनके मुताबिक, राहुल और उनकी कार्य शैली पार्टी के भविष्‍य के लिए घातक साबित हो रही है.

राहुल गांधी के अलावा हिंदी पट्टी के ज्‍यादातर गैर भाजपा दलों के नेताओं की प्राथमिकता अलग दिखती है. इनमें से कई नेता आर्थिक घोटालों के आरोपी भी रहे हैं. उनके खिलाफ जांच लंबित है. सपा-बसपा पर परिवारवाद का आरोप चिपक सा गया है. अब उनका वोटर भी इस राजनीति से ऊबता दिख रहा है.  

मोदी विरोधी भी उनकी मेहनत के कायल हैं. हम सब जानते है कि दक्षिण भारत में भाजपा की स्थिति अच्छी नहीं है. अपनी राजनीतिक स्थिति बेहतर बनाने के लिए पीएम मोदी की पहल पर काशी तमिल संगमम का कई बार आयोजन हो चुका है. इन आयोजनों के जरिए पीएम मोदी की कोशिश दक्षिण भारत में भी भाजपा के जनाधार को मजबूत करने की है. 

चुनावी तैयारी और प्रबंधन के मामले में भी भाजपा अपने विरोधियों के मुकाबले बहुत आगे है. उनकी सरकार अलग-अलग योजनाओं के जरिए देश के करीब 110 करोड़ लोगों से सीधे रूप से जुड़ी है. लाभार्थियों की यह जमात मोदी का कमिटेड वोट बैंक बनता दिख रहा है और ऐसे में इस बड़ी जमात का मुकाबला किसी भी जातिवादी या क्षेत्रीयता के मुद्दों को उछाल कर करना मुश्किल होता दिख रहा है.

वासींद्र मिश्रा वरिष्‍ठ पत्रकार हैं...

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.

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