अगर 'पद्मावत' पर बहस से फ़ुरसत पा लें तो स्टीवन स्पीलबर्ग की फ़िल्म 'द पोस्ट' भी देख लें. वियतनाम युद्ध के दौरान अमेरिकी सरकार अपनी ही जनता से झूठ बोल रही है. रैंड कारपोरेशन के लिए काम कर रहा एल्सबर्ग नाम का एक शख़्स मायूसी से देखता है कि उसके सच बताने के बावजूद राष्ट्रपति देश को बरगलाने में लगे हैं. अमेरिकी स्वाभिमान के नाम पर सेना के नौजवान लड़के मारे जा रहे हैं. वह पेंटागन के क्लासीफ़ाइड दस्तावेज़ लीक कर देता है. 'न्यूयॉर्क टाइम्स' में ख़बर छपती है तो सरकार एक निचली अदालत से आदेश ले आती है- यह खुलासा देशहित के ख़िलाफ़ है. मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचता है.
लेकिन फिल्म की कहानी वाशिंगटन पोस्ट की है. आर्थिक संसाधनों की किल्लत से जूझ रहा यह अख़बार स्टॉक मार्केट में अपने शेयर ला रहा है. उसकी नयूयॉर्क टाइम्स से ख़बरों के मामले में होड़ भी चल रही है. अखबार के मालिक और संपादकों को यह एहसास है कि पब्लिक ऑफ़रिंग से उस पर दबाव भी पड़ सकते हैं.
इन सबके बीच अख़बार को हजारों पेज के वही दस्तावेज़ मिल जाते हैं जो न्यूयॉर्क टाइम्स ने पहले छापे हैं. ये दस्तावेज़ साबित करते हैं कि कैसे वियतनाम युद्ध में अमेरिका अपने ही लोगों से बार-बार झूठ बोलता रहा है. इतने दस्तावेज़ खंगालने के लिए वक़्त चाहिए. लेकिन संपादकों की टीम तय करती है कि यह ख़बर तत्काल छपनी चाहिए.
असली कहानी इसके बाद शुरू होती है. सरकार को सुराग मिल जाता है कि अख़बार के पास ये दस्तावेज़ हैं. निक्सन प्रशासन पूरी ताकत लगाता है कि ये दस्तावेज़ न छपें. सरकार देशहित का हवाला देती है, मुकदमे की धमकी देती है, संपादकों-मालिक को जेल भिजवाने की चेतावनी तक देती है. जिस रात यह ख़बर छपनी है, उस रात अख़बार की मालकिन विदा हो रहे कर्मचारियों के लिए पार्टी कर रही है. यह टकराव ऐन इस पार्टी में पहुंचता है. अंततः अख़बार की मालिक कैथरीन ग्राहम तय करती है कि अख़बार की नीति के तहत ये दस्तावेज़ छपेंगे.
लेकिन इस फ़ैसले तक पहुंचना आसान नहीं था. निवेशकों का दबाव, वकीलों का दबाव, सरकार का दबाव, जेल जाने के अंदेशे का दबाव- ऐसे कई दबावों को पार करने में कैथरीन ग्राहम को दो चीज़ों से मदद मिली- एक तो अपने अख़बार की नीति और परंपरा की याद से, और दूसरे, अपने संपादकों के रवैये से- ख़बर न छापे जाने की सूरत में कई लोग इस्तीफ़ा देने को तैयार थे.
खबर छपी, निक्सन सरकार सुप्रीम कोर्ट गई. सुप्रीम कोर्ट ने क्या कहा? कहा कि अख़बार जनता के लिए होता है, सरकार के लिए नहीं. दूसरी बात यह सामने आई कि वाइट हाउस अमेरिका नहीं है. सरकार के हित अमेरिका के हित नहीं हैं. सरकार के ख़िलाफ़ लिखना देश के ख़िलाफ़ लिखना नहीं है. फिल्म के अंत में निक्सन भन्नाया हुआ फोन पर किसी से कहता है- आगे से वाशिंगटन पोस्ट का कोई रिपोर्टर वाइट हाउस में नहीं दाख़िल होगा. फिल्म यहीं ख़त्म होती है, लेकिन कहानी नहीं. क्योंकि कहानी असली है. वाशिंगटन पोस्ट के उन संघर्ष भरे दिनों की कहानी बरसों बाद कैथरीन ग्राहम ने लिखी.
दस्तावेज़ लीक करने वाले एल्सबर्ग को एक पुराने क़ानून के तहत 115 साल की सज़ा सुनाई गई, लेकिन उस पर मामला ख़त्म कर दिया गया क्योंकि यह पाया गया कि अमेरिकी सरकार ने गैरकानूनी तौर पर अपने व्हिसिल ब्लोअर की जासूसी की थी. कहने की ज़रूरत नहीं कि 'द पोस्ट' देखते हुए अपने अख़बार याद आते हैं, अपनी सरकार याद आती है. जब आप देशभक्ति को पैमाना बनाने लगते हैं तो देश छोटा होने लगता है, आपके स्वार्थ बड़े होने लगते हैं. यह फिल्म देशभक्तों को भी देखनी चाहिए, मीडिया के संपादकों को भी.
प्रियदर्शन एनडीटीवी इंडिया में सीनियर एडिटर हैं
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This Article is From Jan 29, 2018
'पद्मावत' के ज़माने में 'द पोस्ट' भी देख लें...
Priyadarshan
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Updated:जनवरी 30, 2018 16:32 pm IST
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Published On जनवरी 29, 2018 20:39 pm IST
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Last Updated On जनवरी 30, 2018 16:32 pm IST
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