पौराणिक कथाओं में दिलचस्पी रखने वाले जानते हैं कि भगवान कृष्ण का एक नाम रणछोड़ (युद्ध से भागने वाला) भी है, क्योंकि जब जरासंध ने मथुरा पर हमला किया था तो उन्होंने अपनी प्रजा के हित में युद्ध करने के स्थान पर मथुरा से भागने का फैसला किया था, जिससे कृष्ण का नाम रणछोड़ पड़ गया. बाद में इस कदम से नाराज़ बड़े भाई बलराम को समझाते हुए कृष्ण ने कहा, "दाऊ, अगर मुझे रणछोड़ कहा जाता है, और इससे मेरा अपमान होता है, तो भी कोई बात नहीं, क्योंकि इस वक्त युद्ध न करना मथुरावासियों के हित में है... शांति हमेशा युद्ध से अच्छी होती है..."
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यह कहानी देश के भीतर जंग के लिए शोर मचा रहे अतिराष्ट्रवादियों के लिए है, क्योंकि भारत और पाकिस्तान के बीच किसी भी वक्त जंग की संभावना कोई अच्छी खबर नहीं हो सकती. इसीलिए उरी में हुए आतंकवादी हमले के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की संयमित प्रतिक्रिया सुकून देने वाली है. भले ही गुजरात के मुख्यमंत्री रहते या फिर लोकसभा चुनाव में प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार की हैसियत से उन्होंने पाकिस्तान को 'सबक' सिखाने की बात कही थी और पूर्ववर्ती कांग्रेस सरकार पर 'कमज़ोर सरकार' कहते हुए निशाना भी साधा था, लेकिन अभी सरकार को किसी भी तरह के बड़बोलेपन या जंगबहादुरी से बचने की ज़रूरत है.
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पाकिस्तान की तुलना में भारत बहुत बड़ा देश है और अंतरराष्ट्रीय मंच पर उसकी एक खास जगह है. भारत के पास विश्व बाज़ार और आर्थिक महाशक्ति बनने की अपार संभावनाएं हैं और पाकिस्तान की छवि आतंकवाद को पनाह और बढ़ावा देने वाले एक देश की है. पाकिस्तान का पिछले 40 साल का इतिहास बताता है कि वह आतंकवाद के खेल में शामिल रहा है और उसकी सेना और खुफिया एजेंसियां इस खेल का हिस्सा रही हैं.
इसलिए भारत सिर्फ पाकिस्तान को 'सबक' सिखाने के लिए जंग के जाल में नहीं फंस सकता. भारत ने पाकिस्तान के साथ तीन युद्ध और फिर करगिल की जंग लड़ी है. करगिल युद्ध के दौरान सरकार ने जो किया, वह ज़रूरी था, लेकिन संसद पर हमले के बाद 'ऑपरेशन पराक्रम' के नाम पर सीमा पर जिस तरह से फौज का जमावड़ा रहा, वह सबसे बड़ी सैन्य भूल थी. इस बारे में सामरिक मामले के जानकारों ने कई जगह लिखा-बोला भी है. पूर्व एडमिरल सुशील कुमार ने तो 'ऑपरेशन पराक्रम' के नाम पर सरहद पर सेना के जमावड़े को बिना 'सैन्य उद्देश्य के एक राजनीतिक उद्देश्य' बताया था.
'ऑपरेशन पराक्रम' के वक्त सीमा से हुआ पलायन, किसानों का नुकसान, कृषिभूमि का बारूदी सुरंगों से पट जाना जंग की ऐसी त्रासदियां हैं, जो जंगबहादुरों को नहीं दिखतीं. उन्हें वह सच्चाई भी नहीं दिखती, जो महाशक्ति होने के तमाम दावों के बावजूद भारत को घेरे हुए हैं. मानवीय सूचकांकों में भारत आज भी कई बार श्रीलंका और बांग्लादेश जैसे देशों तक से पिछड़ जाता है. वह नेपाल या कई गरीब अफ्रीकी देशों के आसपास दिखता है. भारत को पाकिस्तान जैसे बीमारू और आतंकवादी देश से निबटने के लिए वैश्विक मंच पर अपनी साख मजबूत करनी होगी. यह सब करने के लिए भुखमरी, कुपोषण, अशिक्षा और सामाजिक असमानता और शिशु मृत्युदर से लड़ने के साथ बेरोज़गारी और जनसंख्या की समस्या उसके सामने खड़ी है. पाकिस्तान के साथ जंग के जाल में फंसने के लिए वही लोग उकसा रहे हैं, जो इस कड़वी सच्चाई से अनजान हैं या इसे देखना नहीं चाहते या खोखले राष्ट्रवाद से उन्हें सुकून मिलता है.
कश्मीर समस्या के लिए जिस तरह जवाहरलाल नेहरू को ज़िम्मेदार ठहराया जाता है, उसी तरह पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने भी परमाणु बम (पोखरण) प्रयोग कर एक सामरिक भूल की. भारत परंपरागत युद्धशैली में पाकिस्तान से कई गुना आगे था, लेकिन उसे परमाणु बम प्रयोग के लिए उकसाकर भारत ने उस बढ़त को खो दिया. लेकिन भारत अंतरराष्ट्रीय मंचों में अब भी अपने पक्ष में समर्थन जुटा सकता है और पाकिस्तान को अलग-थलग कर सकता है. लंबी रणनीति के तहत भारत की यही सोच होगी.
अमेरिका पाकिस्तान को जैसे छद्म समर्थन देता है और आतंकवाद के खेल में उसकी शिरकत को अनदेखा करता है, उसके खिलाफ भारत को एक कूटनीतिक रणनीति बनानी होगी. अमेरिका भले ही दुनियाभर में आतंक के खिलाफ जंग की बात करता हो, लेकिन युद्ध के सामान को बेचने का कारोबार उसकी अर्थव्यवस्था के लिए ज़रूरी रहा है. भारत को इस सच को भी समझना है कि लाखों-करोड़ का जंगी साजोसामान उसकी वास्तविक ज़रूरतों से उसे कितना पीछे धकेल रहा है.
सोशल मीडिया में जंगप्रेमी उफान पर सर्फिंग कर रहे राष्ट्रवादियों को पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की ही एक कविता की कुछ पंक्तियां याद दिलाता हूं...
भारत-पाकिस्तान पड़ोसी, साथ-साथ रहना है,
प्यार करें या वार करें, दोनों को ही सहना है,
तीन बार लड़ चुके लड़ाई कितना महंगा सौदा,
रूसी बम हो या अमरीकी, ख़ून एक बहना है...
पाकिस्तान भले ही अच्छा पड़ोसी न बन सका, लेकिन हमें उसके आक्रमण और छद्मयुद्ध की धार कम करने के तरीके ढूंढने होंगे. कश्मीर में अलगाववादियों से बात करना, युवाओं तक पहुंचना और उन्हें रोज़गार में लगाना और राज्य को अधिक से अधिक स्वायत्तता देना कुछ कदम हो सकते हैं. जैसे कट्टर अलगाववादियों की एक आज़ाद कश्मीर बनाने की कोशिश हमेशा कल्पना ही रहेगी, वैसे ही कश्मीर का भारत में पूर्ण विलय (जैसा अंधराष्ट्रवादी चाहते हैं) असंभव बात है. समस्या का हल सिर्फ कश्मीर को अधिक से अधिक ऑटोनोमी और वहां राजनीतिक दखल ही है.
आखिर में एक निजी अनुभव. मैं उत्तराखंड का रहने वाला हूं. इस छोटे-से राज्य से देश की सेना में दो रेजिमेंट हैं - कुमाऊं और गढ़वाल. हमने बचपन से युवाओं को फौज में जाते देखा और हमारे गांवों में ताबूत आते रहे. हमारी बहनें, माताएं और बेटियां विधवा होती रहीं. यहां से युवा सिर्फ देशप्रेम से अभिभूत होकर फौज में नहीं गए, बल्कि इसलिए भी, क्योंकि वे बहुत गरीब थे. इसलिए सोशल मीडिया में जंगबहादुरों को समझना चाहिए कि उरी में मारे गए लोगों के परिजनों का कुछ दर्द हम भी समझ सकते हैं.
मैं अक्सर कहता रहा हूं कि सिपाही जंग में शहीद नहीं होते, वे शासकों के अहंकार की बलि चढ़ाए जाते हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जितने संयम से काम लेंगे, वह हमारे देश की गरीब जनता और जवानों के उतने ही हित में होगा. आखिर में जनकवि बल्ली सिंह चीमा की ये पंक्तियां आपको बताएंगी कि जंग कितनी फिजूल है.
अपना मरे शहीद है, उनका मरे तो ढेर,
दिल को सुकून दे गया, शब्दों का हेर-फेर...
दो रंग एक मौत के, ये चमत्कार है,
बल्ली रात तो रात है, कहते रहो सवेर...
हृदयेश जोशी NDTV इंडिया में सीनियर एडिटर हैं...
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This Article is From Sep 23, 2016
#युद्धकेविरुद्ध : 'जंगबहादुरों' की ललकार और हकीकत की अनदेखी...
Hridayesh Joshi
- ब्लॉग,
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Updated:सितंबर 25, 2016 14:35 pm IST
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Published On सितंबर 23, 2016 16:02 pm IST
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Last Updated On सितंबर 25, 2016 14:35 pm IST
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