रोहिंग्या समुदाय की त्रासदी : कैसा लगेगा, यदि आपके पैरों तले से जमीन खींच ली जाए?

रोहिंग्या मुसलमानों का म्यांमार से निर्वासन : आसरे के लिए भटकती बड़ी आबादी को 'शांति के टापू' की तलाश

रोहिंग्या समुदाय की त्रासदी : कैसा लगेगा, यदि आपके पैरों तले से जमीन खींच ली जाए?

कभी आपने कल्पना की है, आपके पैरों के नीचे से कोई जमीन खींच ले..आपके रहने के लिए कोई जगह न हो.. आपको दुनिया से बेदखल कर दिया जाए...आपकी कोई नागरिकता न हो...आपको जीने के मूलभूत अधिकार न हों..आपकी दस्तावेजों से प्रमाणित होने वाली कोई पहचान न हो..आप किसी देश, किसी समाज का हिस्सा न हों.. आपका और आपकी संतान का कोई भविष्य न हो. सिर्फ कल्पना कीजिए...ऐसा हो तो कैसा महसूस करेंगे..आप क्या करेंगे..कहां जाएंगे..कहां रहेंगे, जब दुनिया ने आपके लिए अपने दरवाजे बंद कर दिए हों? क्या कमाएंगे, क्या खाएंगे... फिर कहां वह दो गज जमीन पाएंगे जिसमें दफन हो सकें या जहां जलकर मिट्टी में मिल जाएं? आपकी मन:स्थिति कैसी होगी तब? म्यांमार के रोहिंग्या मुसलमान आज ठीक ऐसी ही मन:स्थिति में हैं...वे ऐसे हालात में हैं जिसमें पहुंचने की कल्पना करके ही आप कांप उठते हैं. वे किसी देश के नागरिक नहीं, म्यांमार ने उनके पैरों के नीचे से जमीन खींच ली है.

जमीन की तलाश में भटकते रोहिंग्या
म्यांमार में कई पीढ़ियों से रह रहे रोहिंग्या मुसलमान समुदाय के लोग अब उस देश के नागरिक नहीं हैं. उन्हें वहां से बेदखल करके खदेड़ा जा रहा है. वे सेना के हमलों में मारे जा रहे हैं, भागते हुए नदी में डूबकर मर रहे हैं. जो भागकर अन्य देशों तक पहुंचने में सफल हो रहे हैं, वहां से भी उनको बाहर का रास्ता दिखाया जा रहा है. वे एक स्थान से दूसरे स्थान पर मारे-मारे फिर रहे हैं. म्यांमार में करीब 10 लाख रोहिंग्या मुसलमान हैं. यह देश उन सबको अब अपनी जमीन पर नहीं बसाए रखना चाहता. इन लाखों लोगों के सामने अपने अस्तित्व को लेकर ऐसा सवाल है जिसका उनके पास कोई जवाब नहीं.                  

सदियों पुराना नाता तोड़कर खदेड़ दिया
म्यांमार से रोहिंग्या मुसलमानों का रिश्ता कुछ सालों या दशकों का नहीं बल्कि सदियों पुराना है. माना जाता है कि इस समुदाय ने 12वीं सदी में बांग्लादेश से पलायन करके म्यांमार में बसना शुरू कर दिया था. ब्रिटिश शासन के दौर में 1824 से 1948 के बीच भारत और बांग्लादेश से बड़ी संख्या में मजदूर म्यांमार ले जाए गए. चूंकि म्यांमार भी ब्रिटेन का उपनिवेश था इसलिए तब यह आवाजाही देश के भीतर होने वाली आवाजाही की तरह ही चलती रही. ब्रिटेन से आजादी मिलने के बाद म्यांमार की सरकार ने इस प्रवास को अवैध घोषित कर दिया. इसी के आधार पर बाद में रोहिंग्या मुसलमानों की नागरिकता समाप्त कर दी गई.

अब न अपनी जमीन, न कोई पहचान
सन 1948 में म्यांमार के आजाद होने पर वहां का नागरिकता कानून बना. इसमें रोहिंग्या मुसलमानों को शामिल नहीं किया गया. जो लोग दो पीढ़ियों से रह रहे थे उनके पहचान पत्र बनाए गए. वर्ष 1962 में म्यांमार में सैन्य विद्रोह होने के बाद रोहिंग्या मुसलमानों के बुरे दिन शुरू हो गए. उनको विदेशी पहचान पत्र ही जारी किए गए. उन्हें रोजगार, शिक्षा सहित अन्य सुविधाओं से वंचित कर दिया गया. सन 1982 में एक और नागरिक कानून आया और इसके जरिए रोहिंग्या मुसलमानों की नागरिकता पूरी तरह छीन ली गई. इस कानून से शिक्षा, रोजगार, यात्रा, विवाह, धार्मिक आजादी और स्वास्थ्य सेवाओं के लाभ से भी उनको महरूम कर दिया गया.

समुदाय के चालीस फीसदी लोगों का पलायन
ताजा संकट तब शुरू हुआ जब म्यांमार में 25 अगस्त को मौंगडोव सीमा पर नौ पुलिस अधिकारियों की हत्या हो गई. इसके बाद वहां के रखाइन प्रांत में म्यांमार के सुरक्षा बलों ने बड़ी कार्रवाई शुरू की. सरकार का दावा है कि पुलिस पर हमला रोहिंग्या मुसलमानों ने किया. सुरक्षा बल अब व्यापक अभियान चला रहे हैं. सुरक्षा बलों की कार्रवाई में सैकड़ों लोग मारे जा चुके हैं. सुरक्षा बलों पर मानवाधिकारों के उल्लंघन के आरोप लग रहे हैं. यह अशांति का आलम उस देश में है जिसका नेतृत्व नोबल शांति पुरस्कार हासिल करने वालीं आंग सान सू की के हाथ में है. दमन की कार्रवाई के चलते म्यांमार से रोहिंग्या मुसलमानों का बड़ी तादाद में पलायन हो रहा है. संयुक्त राष्ट्र का कहना है कि म्यांमार के रखाइन में रहने वाले रोहिंग्या समुदाय की कुल आबादी के करीब 40 फीसदी लोग बांग्लादेश जा चुके हैं. 25 अगस्त से अब तक म्यांमार सीमा पार करके बांग्लादेश सीमा पर पहुंचे रोहिंग्या समुदाय के लोगों की संख्या 389,000 पर पहुंच गई है.

बांग्लादेश में शरणार्थी संकट
बांग्लादेश इन चार लाख रोहिंग्या मुसलमानों के लिए म्यांमार सीमा के निकट कॉक्स बाजार के करीब दो हजार एकड़ क्षेत्र में 14,000 आश्रय स्थल बना रहा है. इतनी बड़ी संख्या में आए शरणार्थियों को बसाना आसान नहीं है. बांग्लादेश पहले गैर आबादी वाले थेनगार छार द्वीप, जो कि अब भासान छार द्वीप कहा जाता है, पर इन शरणार्थियों को बसाने का विचार कर रहा था, लेकिन इस द्वीप पर हर साल आने वाली बाढ़ के कारण फिलहाल यह इरादा बदल दिया गया. कॉक्स बाजार के शरणार्थी शिविर ठसाठस भरे हैं.   

बांग्लादेशियों का पलायन, शरणार्थियों का आगमन
रोहिंग्या समुदाय को शरण देने में पहले बांग्लादेश भी आनाकानी करता रहा है. इस गरीब देश के सामने पहले ही जनसंख्या बड़ा संकट बनी हुई है, ऐसे में और लाखों लोगों को वह कहां बसाए? वर्ल्ड बैंक के सन 2016 के अनुमान के मुताबिक 147570 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल वाले बांग्लादेश की आबादी एक करोड़ 63 लाख है. आबादी के हिसाब से विश्व में आठवें स्थान पर आने वाला यह देश दुनिया के बड़े देशों में सबसे घनी आबादी वाला देश भी है. बड़ी आबादी बेरोजगार होने से पिछले कुछ दशकों से बांग्लादेश से लोगों का पलायन जारी है. वहां के करोड़ों लोग भारत और पाकिस्तान में अवैध रूप से घुसपैठ करके रह रहे हैं. संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के मुताबिक पिछली जनगणना में बांग्लादेश से एक करोड़ लोग गायब हैं. माना जाता है कि भारत में तीन करोड़ अवैध बांग्लादेशी घुसपैठिए हैं. पश्चिम बंगाल के 52 विधानसभा क्षेत्रों में 80 लाख और बिहार के 35 विधानसभा क्षेत्रों में 20 लाख बांग्लादेशी घुसपैठिए रह रहे हैं. इसके अलावा पूर्वोत्तर के विभिन्न राज्यों व देश के अन्य हिस्सों में भी बांग्लादेशी अवैध रूप से बसे हुए हैं. उधर पाकिस्तान में जाकर बसे बांग्लादेशियों की संख्या भी लाखों में है. बांग्लादेश अपने देश के लोगों को ही रोजगार और औसत जीवन स्तर नहीं दे पा रहा है, वह शरणार्थियों की कितनी मदद कर सकेगा?    

किस-किस को शरण दे भारत
इधर भारत ने साफ कह दिया है कि वह म्यांमार से अवैध तरीके से घुस आए रोहिंग्या मुस्लिमों की पनाहगाह नहीं बनेगा. रोहिंग्या अवैध अप्रवासी हैं और उनको उनके मुल्क भेजा जाएगा. भारत में करीब 40 हजार रोहिंग्या शरणार्थी हैं. भारत में तो पहले से करोड़ों की संख्या में तिब्बती और बांग्लादेशी शरणार्थी रह रहे हैं. इसके अलावा यहां करीब 36 हजार पाकिस्तानी भी अवैध रूप से बसे हुए हैं. केंद्रीय गृह राज्यमंत्री किरेन रिजीजू के अनुसार भारत में पहले से ही मौजूद शरणार्थियों की संख्या दुनिया में सर्वाधिक है. ऐसे में भारत ने रोहिंग्या समुदाय को भी आसरा देने से हाथ खड़े कर लिए हैं. इसके अलावा केंद्र सरकार का मानना है कि रोहिंग्या समुदाय देश की सुरक्षा के लिए खतरा हैं. सरकार को खुफिया जानकारी मिली है कि इस समुदाय के कुछ सदस्य आतंकी संगठनों से मिले हुए हैं.

अमेरिका में आठ लाख युवाओं पर निर्वासन की तलवार
निर्वासन के संकट का सामना दुनिया के सबसे विकसित देश में भी एक समुदाय कर रहा है. अमेरिका में करीब आठ लाख युवा संकट से घिर गए हैं. ये वे लोग हैं जिन्हें अवैध तरीके से अमेरिका तब लाया गया था जब वे बच्चे थे. अब युवा हो चुके इन लोगों के लिए पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा के कार्यकाल के दौरान एमनेस्टी कार्यक्रम जिसे डीएसीए (डिफर्ड एक्शन फॉर चिल्ड्रन अरायवल) कहा जाता है लागू किया गया था. इसके तहत इन प्रवासियों को रोजगार के लिए वर्क परमिट दिया गया था. राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने हाल ही में इस कार्यक्रम को रद्द कर दिया है. ट्रंप प्रशासन के इस कदम से यह लाखों लोग न सिर्फ बेरोजगार हो जाएंगे बल्कि उन्हें अमेरिका से अपने देशों को लौटना भी पड़ेगा. संकट में घिरे इन लोगों में करीब सात हजार अमेरिकी भारतीय भी शामिल हैं.

हालांकि अमेरिका में इस फैसले के खिलाफ प्रदर्शन हो रहे हैं. इतना ही नहीं युवा प्रवासियों के निर्वासन के खिलाफ डिस्ट्रिक्ट ऑफ कोलंबिया और 15 अन्य राज्य अदालत में भी पहुंच गए हैं. उन्होंने ट्रंप के कदम को असंवैधानिक बताते हुए इसे खारिज करने की मांग की है. न्यूयार्क के अटॉर्नी जनरल एरिक टी श्नाइडरमैन ने इन युवा प्रवासियों को अमेरिका के सर्वश्रेष्ठ लोग कहा. खुद ट्रंप ने कहा है कि वे इन युवा प्रवासियों से बेहद प्यार करते हैं. निर्वासन के फैसले के तुरंत बाद ट्रंप ने उम्मीद जताई कि कांग्रेस इन प्रवासियों की मदद के लिए कोई विधेयक लेकर आएगी.

अमेरिका में डीएसीए रद्द करने के बाद बन रहे हालात से संभावना यही बनती दिख रही है कि ट्रंप प्रशासन को अपना फैसला वापस लेना पड़ेगा. यानी कि अमेरिका के 'सर्वश्रेष्ठ लोगों' को वहां से आसानी से निर्वासित नहीं किया जा सकेगा. लेकिन इन रोहिंग्या मुसलमानों का क्या? म्यांमार में इनकी तरफदारी करने वाला कोई नहीं है. इस बौद्ध बाहुल्य देश के लोग सेना के साथ हैं और वे रोहिंग्या समुदाय के निर्वासन का समर्थन कर रहे हैं. ऐसे में वे जाएं तो जाएं कहां?

अभागे लोगों को तलाश एक टापू की...
म्यांमार से चार लाख रोहिंग्या मुसलमानों का निर्वासन हो चुका है और इसके बाद भी इस समुदाय के छह लाख लोग वहां सुरक्षाबलों के निशाने पर हैं. संयुक्त राष्ट्र सहित विश्व समुदाय का यदि प्रभावी हस्तक्षेप नहीं हुआ तो उन्हें भी देर-सबेर निर्वासित होना पड़ेगा. ऐसे में वे कहां जाएंगे? बांग्लादेश को तो फिलहाल वहां पहुंचे चार लाख लोगों को बसाने में ही पसीना आ रहा है. क्या तब इन अभागे लोगों को कोई ऐसा टापू मिल पाएगा जहां बाढ़ न आती हो, जहां वे इंसानों की तरह जी सकें, जहां फिर कोई उनके घर न जला सके, हैलिकॉप्टरों से हमले करके उनका संहार न कर सके, जहां उनको उनके जीने के अधिकार से वंचित न किया जा सकता हो, जहां उनकी अपनी पहचान हो, अपनी जमीन हो और भविष्य भी हो?

सूर्यकांत पाठक Khabar.ndtv.com के डिप्टी एडिटर हैं.

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