पलवल से दिल्ली की तरफ बढ़ रहे किसान सत्याग्रहियों पर प्राइम टाइम के दौरान और बाद में मिली प्रतिक्रियाओं को देख रहा था। ट्वीटर और फेसबुक पर आईं इन प्रतिक्रियाओं का सामाजिक विश्लेषण होना चाहिए।
इससे पता चलता है कि अलग-अलग तबकों में हमारे किसान की क्या छवि है। अच्छा लगा कि काफी सारी प्रतिक्रियाएं किसानों के समर्थन में थीं। युवा से लेकर ऐसे तबके के लोग जिनका दूर-दूर तक देश के गांव किसानों से नाता नहीं है वो इन किसानों की तकलीफों को समझना चाहते थे। किसी भी देश के लिए इससे अच्छी बात क्या हो सकती है कि मध्यमवर्ग के बीच से कमज़ोर तबके के लिए समर्थन की आवाज़ आने लगे।
लेकिन इसी मात्रा में ऐसी प्रतिक्रियाएं भी आने लगीं जिन्हें देखकर हैरान तो नहीं हुआ मगर मन एक बार ख़राब ज़रूर हुआ। लोग लिख रहे थे कि आपका दफ्तर भी किसी किसान की ज़मीन पर होगा। ज़मीन नहीं लेंगे तो यह सब क्या हवा में बनेगा। क्या आप अपना वेतन किसानों के लिए कम कर देंगे। इन किसानों को जितना भी मुआवज़ा दो कम है। जो पैसा मिलता है वो खा पीकर उड़ा देते हैं। गुड़गांव से लेकर ग्रेटर नोएडा तक जाकर देखिए मुआवज़े के पैसे से कितने गुलछर्रे उड़ाए जा रहे हैं। एक ने लिखा कि मुझे सिर्फ नौकरी चाहिए। पूछिए इन किसानों से कि विकास नहीं होगा तो मुझे नौकरी कैसे मिलेगी।
वही तो किसान पूछ रहे हैं। मेरी ज़मीन ले लेंगे तो हम कैसे जीएंगे। सिर्फ मुआवज़ा ही अंतिम राहत नहीं है। बाज़ार दर से ज़रूर कुछ अधिक मुआवज़ा मिल रहा है लेकिन उन किसानों को पता ही नहीं है कि दस बीस लाख का क्या करना है। सबके बस की बात नहीं है कि वो अगले दिन से शेयर मार्केट में खेलने लगे। निवेश करते हुए खिलाड़ी बन जाए। यह एक बड़ी समस्या है। मुआवज़े का पैसा वाकई बर्बाद हो जाता है। कुछेक अपवादों को छोड़कर। रही बात मुआवज़े की तो वो भी हर जगह एक बराबर नहीं मिलता है। पूरे भारत में उसकी कहानी गुड़गांव या ग्रेटर नोएडा जैसी नहीं है।
बीजेपी दावा करती है कि बाज़ार दर से चार गुना मुआवज़ा मिलेगा जबकि कानून में इसे एक रेंज के तौर पर रखा गया है। राज्य सरकारें अपने हालात के आधार पर दो से चार गुना तक का मुआवज़ा दे सकती हैं। हरियाणा और मध्यप्रदेश ने पूरे राज्य के लिए एक ही दर तय कर दिया यानी शहरी और ग्रामीण ज़मीन को बाज़ार दर से दो गुना मुआवज़ा मिलेगा। यही कारण है कि किसानों को सरकारों पर जल्दी यकीन नहीं होता है।
यह तो एक उदाहरण है। आप ऐसे उदाहरण उन दलों की सरकारों से भी निकाल सकते हैं जो इस वक्त किसान हितैषी बनी हुई हैं और केंद्र सरकार के बिल के विरोध में नारे लगा रही हैं। कोई दूघ का धुला नहीं हैं। हां यह सही है कि वो ज़माना गया कि किसानों को कुछ पता नहीं होता था और उनकी ज़मीन ले ली जाती थी लेकिन वो ज़माना अभी भी नहीं आया है कि ज़मीन लेने की प्रक्रिया पारदर्शी हुई है। ऐसे अनेक उदाहरण हैं कि कलेक्टर कंपनियों से मिलकर रातों रात फर्जी जनसुनवाई का दस्तावेज़ तैयार कर लेते हैं और ज़मीन का अधिग्रहण हो जाता है।
मुझे उम्मीद थी कि ट्वीटर और फेसबुक पर लोग किसानों की इस तकलीफ से सहानुभूति रखेंगे। मेरा सवाल किसानों को विकास विरोधी कहने वालों से है। ऐसा क्यों होता है कि हर बार किसान ही लाठी खाता है। वो सब सरकारों में लाठी खाता है। सब राज्यों में लाठी खाता है। कई जगहों पर चीनी मिलों ने गन्ना ले लिया है मगर सालों तक उनका भुगतान नहीं किया। आपने किसी कंपनी वालों को लाठी खाते देखा है। कारपोरेट हमारे विकास के लिए ज़रूरी अंग हैं लेकिन क्या इस तरह की लूट करने वाले ही विकास के प्रतीक हैं। बात विकास की नहीं हो रही है बात है बराबरी और इंसाफ की। ऐसी व्यवस्था क्यों नहीं बन सकती जहां सबका फायदा हो और फायदे से ज्यादा सबके बीच विश्वास बना रहे।
आखिर आपने कब देखा है कि कोरपोरेट के लोग धरना देने बसों में सवार होकर आते हैं। उनका काम तो दो साउंड बाइट और प्रधानमंत्री से एक मुलाकात में हो जाता है। उनकी आवाज़ सड़क से नहीं उठती बल्कि सत्ता के गलियारों में घूमती हुई सत्तानशीं के कान तक पहुंच जाती है। यह उदाहरण इसलिए दे रहा हूं ताकि आप लोकतंत्र में ताकत की आवाज़ और आवाज़ की ताकत को समझ सकें। सोच कर देखियेगा कि क्यों किसानों को ही सैंकड़ौं किलोमीटर पैदल चलकर दिल्ली तक आना पड़ता है।
ये किसान न आए होते तो क्या तमाम दल ऐसी आवाज़ उठाते। क्यों अकाली दल कह रहा है कि अधिग्रहण से पहले सहमति और सामाजिक असर के अध्ययन की शर्त को वापस जोड़ा जाए। क्यों शिवसेना ने कहा है कि किसानों का गला घोंटने वाले किसी फैसले का समर्थन नहीं करेगी। ये दल तभी क्यों बोलते हैं जब किसान बोलने के लिए उठता है। पैदल चलता है। भूखे संघर्ष करता है।
आप किसी भी चुनावी सभा की रिकार्डिंग निकाल कर सुनिये। किसी भी नेता का भाषण सुन लीजिए। वो यही कहता रहा है कि हमारे देश का किसान ख़ुद भूखा रहकर देश का पेट भरता है। क्या किसी नेता को यह कहते सुना है कि हमारे देश का कारपोरेट ख़ुद भूखा रहकर देश का पेट भरता है। जो भूखा है वो विकास का विरोधी कैसे हो सकता है।
किसान का भविष्य भी तो विकास में है। ये और बात है कि सबके लिए विकास का मतलब अलग अलग है। अगर हमारा किसान देश के लिए भूखा रह सकता है तो वो देश की प्रगति के ख़िलाफ कैसे हो सकता है। हम एक तरफ जय जवान जय किसान का नारा भी लगाते हैं और दूसरी तरफ जब वो अपने हक की बात करते हैं तो उसके पेट की नहीं अपने पेट की चिन्ता करते हैं। कम से कम उसका शुक्रिया तो अदा कर ही सकते हैं जो खुद भूखा रहकर हमारा पेट भरता है।